31 माओवादियों के मारे जाने की घोषणा हुई

भूपेश बघेल की अडानी से बलगहियां और वर्तमान मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की बलगहियां का सूत्र एक ही है

सिद्धार्थ रामू

 

भले हम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को फासीवादी सरकार, हिंदुत्वादी फासीवादी, ब्राह्मणवादी-मनुवादी आदि-आदि कहते हों, लेकिन कई सारे मामले में हम भारतीयों का बहुसंख्यक हिस्सा नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ पूरी तरह खड़ा है, इसमें एक मामला छत्तीसगढ़ में नक्सलियों-माओवादियों के पूरी तरह खात्में का भी है। दूसरा मामला तो हम हाल में देख चुके हैं, जब बहुसंख्य लोग यह घोषणा कर रहे थे कि हम पाकिस्तान के खिलाफ हमले और युद्ध में भारत सरकार के साथ खड़े हैं।

पिछले कुछ महीनों से हर एक दो दिन के अंतराल पर खबर आती है कि छत्तीसगढ़ में इतने नक्सली-माओवादियों को भारतीय सुरक्षा बलों ने मार गिराया। आज के अखबारों की खबर है कि 21 दिनों में 31 माओवादी सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए।

सारे मीडिया संस्थान बिना किसी इनर्वटेड कामा के या तथाकथित के सुरक्षा बलों और भारत सरकार की कही इस बात को हेडिंग बनाते हैं कि इतने नक्सली-माओवादी मारे गए। कई तो इस पर खुशी जाहिर करते हुए संपादकीय लिखते हैं। सुरक्षा बलों ने कहा और मीडिया मान लेती है कि जो कहा जा रहा है, वह पूरी तरह सच है, किसी तरह के वेरिफिकेशन की कोई जरूरत नहीं महसूस होती है। कौन मारा गया, कैसे मारा गया कोई सवाल नहीं।

जो मैं कह रहा हूं कि भारत के बहुसंख्य लोग इस मामले में अमित शाह के साथ खड़े हैं,तो इसका पहला प्रमाण भारत के राजनीतिक दलों का इस मामले में रूख और व्यवहार है।

नक्सलियों-माओवादियों को देश के सबसे बड़ा आंतरिक खतरा मनमोहन सिंह और उस समय के गृहमंत्री चिदंबरम ने घोषित किया था। उनके खात्में की पूरी रणनीति और कार्यनीति चिदंबर ने बनाई थी, उन्होंने उसे लागू भी किया था।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान भारत सरकार उसी को चढ़-बढ़ कर लागू कर रही है। इसके पहले की भूपेश सिंह बघेल के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकार इस मामले में नरेंद्र मोदी का पूरे जोर-शोर से साथ दे रही थी।

भारत की जनता पर सबसे अधिक प्रभाव राजनीतिक दलों का है। नक्सलियों-माओवादियों को खत्म करने के मामले में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के बीच पूरी सहमति हैं।

इसका मुख्य कारण यह है कि उनका विकास के कार्पोरेट-पूंजीवादी मॉडल पर पूरा का पूरा भरोसा है, बल्कि विकास का इसे एकमात्र मॉडल मानते हैं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी या नक्सली-माओवादी इस मॉडल के मार्ग में सबसे बड़े अवरोध उन्हें लगते हैं। क्योंकि वे किसी भी सूरत में अपना जंगल, जल और जमीन कार्पोरेट कौ सौंपने को तैयार नहीं है। इसी जमीन के नीच सबसे अधिक खनिज संपदा भी है।

भूपेश बघेल की अडानी से बलगहियां और वर्तमान मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की बलगहियां का सूत्र एक ही है।

दोनों गठबंधनों में शामिल दलों की जब-जब केंद्र या प्रदेशों में सरकारें रही हैं, उनका भी रूख और कार्रवाई वही रही है, जो भाजपा और उसकी प्रदेश की सरकारों रही है या है।

इन राजनीति दलों और उनके नेताओं ने अपने प्रभाव क्षेत्र के मतदाताओं-समर्थकों-कार्यकर्ताओं को इस बात के लिए पूरी तरह तैयार किया है कि नक्सलियों-माओवादियों का खात्मा देश में शांति,सुरक्षा और विकास के लिए जरूरी है। कमोबेश सबकी यही राय है, जब-जब सरकारें बनी हैं, सब यही करते रहे हैं।

खैर उदारवादी या खुद को बहुजनों का दल कहने वालों की फिलहाल छोड़ देते हैं, थोड़ी सी उनकी बात करते हैं, जो अपने को वामपंथी दल कहते हैं। नक्सली-माओवादी कहीं न कहीं, वैचारिका तौर पर इस धारा निकले हैं।

ज्यादात्तर वामपंथी दलों का नक्सलियों-माओवादियों को वामपंथी कम्युनिज्म के बचकाना मर्ज का शिकार मानते हैं। वे खुल कर कहे या न कहें, लेकिन उनकी इस मामले में पोजीशन यह है कि मर्ज को तो खत्म होना ही है या होना ही चाहिए। निजी तौर यह बात-चीत में यह चीज खुलकर सामने आती है। कुछ ने जब उनकी सरकारें रही है, तो इसके खात्में के लिए अपनी पूरी ताकत भी लगाई है। केंद्र सरकारों का इस मामले में पूरा साथ दिया।

एक धारा इस देश में दलित-बहुजन पार्टियों की है। वे कहते हैं कि ‘संविधानवादी’ हैं और भारत की सभी सरकारों ने यह प्रचारित कर रखा है कि छत्तीसगढ़ और अन्य जगहों पर आदिवासियों का संघर्ष संविधान विरोधी संघर्ष है, यह कितना सच है या झूठ है, यह दीगर बात है। कभी भारत में योजना आयोग काम करता था, उसके विशेषज्ञों की टीम ने कहा था कि जिन्हें नक्सली-माओवादी कहते हैं, उनकी मांगे संविधान कानूनों को ही लागू करने की मांग है। जैसे फूलन देवी ने जब अपने संविधान सम्मत अधिकारों को हासिल करना चाहा तो वह बागी और डाकू हो गईं थी।

लेकिन फिलहाल यही समझ है कि यह संविधान विरोधी संघर्ष है। संविधान विरोधी है तो उसे खत्म होना ही चाहिए।

जहां तक उदारवादी बुद्धिजीवियों का संबंध है, वे तो किसी भी क्रांतिकारी वामपंथी संघर्ष के हमेशा खिलाफ रहे हैं। वामपंथी बुद्धिजीवियों का आज बड़ा हिस्सा भी कमोबेश उन्हीं की तरह सोचता है, क्योंकि वे जिन पार्टियों से जुड़े हुए हैं, जिन वामपंथी पार्टियों से सहानुभूति रहते हैं, उनका यही मानना है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का संघर्ष ( नक्सली-माओवादी संघर्ष) के बचकाना मर्ज है, जो कुछ होगा, वह सिर्फ चुनाव और वोट ही होगा। जैसा मैं ऊपर कह चुका हूं कि मर्ज है, तो खत्म होना ही चाहिए, चाहे ऐसे हो या वैसे।

कुछ ऐसे भी वामपंथी ग्रुप या पार्टियां हैं, जो नक्सलियों-माओवादियों को व्यापक जनगोलबंदी या जनसंघर्ष के मार्ग में अवरोध मानते हैं। अवरोध खत्म हो रहा है, दिक्कत क्या है, ऐसे हो या वैसे।

हां बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा जरूर आदिवासियों की इस संघर्ष के साथ सहानुभूति रखता रहा है और आज भी रखता है। उन्होंने इसकी कीमत जेल या शहादत के रूप में चुकाई है।

हम कई बुनियादी मामलों में इस फासीवादी, हिंदुत्वादी फासीवादी या ब्राह्मणवादी-मनुवादी फासीवाद के साथ हैं। यह यों ही नहीं फल-फूल रहा है और मजबूत होता जा रहा है।

मेरे अपने गृहमंत्रीमअमित शाह ने यदि घोषणा किया है कि 26 मार्च 2026 तक छत्तीसगढ़ से नक्सलियों-माओवादियों का किसी भी कीमत पूरी तरह खात्मा हो जाए और पूरे देश में अमन-चैन कायम हो जाएगा। इससे आदिवासियों के विकास और समृद्धि का रास्ता खुलेगा। उन इलाकों में सच्चा लोकतंत्र कायम होगा, तो यह सब होगा ही।

यह सब होगा ही, यह जरूर ही होगा, क्योंकि नक्सलियों-माओवादियों का खात्मा एक ऐसा मामला है, जिस मामले में देश की बहुसंख्य आबादी, संगठित समूह और प्रभावशाली नेता और बुद्धिजीवी सरकार के साथ हैं और केंद्र सरकारों और राज्य सरकारों तो यह ठान ही रखा है।

सच तो यह है कि यदि देश में कोई समूह किनारे लगाकर हाशिए पर फेंक दिया गया है, जिसे दूसरे समूहों का सबसे कम सहानुभूति और समर्थन प्राप्त हैं, तो वह आदिवासी हैं। बौद्धिक जगत में भी कमोबेश उनके मामलों में चुप्पी है।

 


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