अरुंधति रॉय से इतनी नफरत क्यों है?
स्त्री होकर पुरुषों से सफल लेखक होना
कृष्ण समिद्धपहलगाम घटना के बाद एक अजीब बात देखने को मिली। कश्मीर में आतंकवादी हमले के बाद जहाँ सवाल सरकार से पूछे जाने चाहिए थे, वहाँ कुछ भारतीय साहित्यकार और बुद्धिजीवी अरुंधति रॉय से जवाब मांगते नज़र आए। वजह यह थी कि अरुंधति ने कहा था कि भारतीय और पाकिस्तानी शासक वर्ग देशभक्ति और कश्मीर के मुद्दे को ज़िंदा रखते हैं ताकि अपने-अपने लोगों का ध्यान गरीबी, असमानता, सरकारी विफलताओं और अत्याचारों से भटकाया जा सके। इस विरोध के पीछे के मनोविज्ञान और समाजशास्त्र को समझते हैं।

1997 में जब 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स ' ने बुकर जीता, तो एकाएक भारत ने एक नई नायिका को जन्म लेते देखा—अरुंधति रॉय। मगर अरुंधति रॉय ने अपने संस्मरण मदर “मैरी कम्स टू मी” (2025) में लिखती हैं -
“इसी बीच मैंने बुकर पुरस्कार जीत लिया। इससे सब कुछ बदल गया। हालाँकि कुछ वामपंथियों ने कहा कि यह (पुरस्कार ) एक साम्राज्यवादी साज़िश है, फिर भी लोग इस बात से गर्वित और प्रसन्न थे कि एक भारतीय लेखक को एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। लेकिन पूरी तरह से उत्सव के रूप में मनाने के लिए 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' को भारतीय बौद्धिक वर्ग ने उपन्यास का "अराजनीतिकरण (de-politicize)" कर दिया गया और उसे बच्चों की कहानी बना दिया गया, उसके जाति-संदर्भों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
क्यों? ताकि वे उन्हें गर्व से अपना सकें, उनके पुरस्कारों का जश्न मना सकें, लेकिन उनकी असुविधाजनक राजनीति से दूरी बना सकें।
पर यह शुरुआत भर थी
उनका असली अपराध यह किताब नहीं था। उनका अपराध वह था जो उसके बाद हुआ। अरुंधति के वैचारिक आलेख आये। परंपरागत बौद्धिकता सत्ता या सांस्कृतिक वर्चस्व के करीब बैठती है, अरुंधति रॉय को एक खतरनाक सवाल के रूप में देखती है-क्योंकि वे सिर्फ लिखती नहीं, वे सत्ता के सारे मिथकों को तोड़ती हैं।
रॉय ने एक निबंध "The Ladies Have Feelings…So Shall We Leave It to the Experts?" में इस दोहरी पहचान पर प्रतिक्रिया दी है। जिस अरुंधति ने 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' लिखा, उसे ‘लेखक’ कहा जाता है, और जिस अरुंधति ने राजनीतिक लेख लिखा, उसे ‘एक्टिविस्ट।’ वे प्रश्न उठाती हैं कि क्या लेखक को नॉन-फिरशन लेखन का अधिकार नहीं है? उनका तर्क है कि उन्हें यह उपाधि इसीलिए दी गई क्योंकि उन्होंने अपने लेखों में पक्ष लिया है — नैतिक पक्ष। वे यह भी कहती हैं कि आज के समय में नैतिक पक्ष लेना ‘अनकूल’ नहीं माना जाता, लेकिन वे ऐसा करती हैं क्योंकि यह ज़रूरी है।
रॉय से घृणा करनेवाला साहित्यकारों का वर्ग वही है जो नहीं चाहते कि किताबें सत्ता से सवाल करें। लेकिन रॉय की किताबें सवाल करती हैं और यही उनके लिए असहनीय है।
इन साहित्यकारों की प्रतिक्रिया को एक केस स्टडी के रूप में देखेने से यह समझा जा सकता है कि विचारधारा, राजनीति और साहित्य के आपसी संबंधों में आज कितनी असहिष्णुता और दोहरापन घुल चुकी है और ऐसा क्यों है? इस घृणा के रुप क्या हैं और यह कैसे व्यक्त होता है?
केस स्टडी 1: अशोक कुमार पांडेय द्वारा सत्य- झूठ का मिश्रण
अशोक कुमार पांडेय ने ‘उसने गांधी को क्यों मारा’, ‘सावरकर: काला पानी और उसके बाद’, तथा ‘कश्मीरनामा’ पुस्तकों को लिखा है। पांडेय ने अपने एक फेसबुक पोस्ट में अरुंधति रॉय पर कश्मीर मुद्दे को लेकर यह कहकर निशाना साधा कि वे "पाकिस्तान के सबसे बड़े समर्थक सैयद अली शाह गीलानी के साथ मुट्ठियाँ लहराते हुए खड़ी थीं। क्या उन्होंने कभी नहीं सोचा कि मसला-ए-कश्मीर बंदूक से हल नहीं होगा?" उन्होंने आगे लिखा कि “याद कीजिए कि जब गीलानी से पूछा गया कि कश्मीर की आज़ादी से उनका क्या मतलब है, तो उन्होंने कहा – पाकिस्तान में मर्जर।”
यहाँ अशोक कुमार पांडेय सच और झूठ एक साथ मिलाकर एक भ्रम पैदा कर रहे हैं। सत्य यह है कि अरुंधति रॉय ने गीलानी के साथ मंच साझा किया था और वे खुलकर कश्मीरियों की आत्मनिर्णय की माँग का समर्थन करती रही हैं। लेकिन झूठ यह है कि उन्होंने कभी कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने (merger) की वकालत की हो।
यदि मंच साझा करना विचारों की समानता का प्रमाण होता, तो क्या गांधी-सावरकर, अटल-नवाज़ शरीफ और मोदी- नवाज़ शरीफ ने भी अलग- अलग समय पर मंच साझा किया था, तो क्या एक दूसरे के विचार के समर्थक हुए? आ अशोक कुमार पांडेय भी तो गुटखा वाला साहित्य आज तक का मंच साझा यह कहकर किया था कि वो अपनी बात रखने जा रहे हैं। लोकतांत्रिक समाज में मंच साझा करना विचारों की समानता का प्रमाण नहीं होता — यह संवाद और विरोध के अधिकार का हिस्सा हो सकता है या फिर अशोक कुमार पांडेय लोकतंत्र विरोधी भी हैं?
आगे अशोक कुमार पांडेय कहते हैं कि रॉय हर किताब की रिलीज के पहले भारत आने, कुछ भड़काऊ बयान देकर वापस चली जाती है। उनकी नजर में रॉय की राजनीतिक या सामाजिक सक्रियता किताब बेचने का तरीका है। मजे कि बात यह है अभी कुछ दिन पहले भारत-पाकिस्सतान युद्ध में अशोक कुमार पांडेय अपनी किताब कश्मीरनामा की तस्वीर लगा कर बता रहे थे कि कैसे इस किताब कश्मीर में हमले में पाकिस्तान की भूमिका बता रहे थे। पाकिस्तान की भूमिका की बात वैसे भी कही जा सकती है, बिना किताब की तस्वीर लगाये। स्पष्ट रुप से यह उनकी अपनी किताब का प्रमोशन की तरह था।
केस स्टडी 2: सुजाता – बौद्धिक दोहरापन
सुजाता एक साहित्यकार हैं, जिनकी एक किताब "विकल विद्रोहिणी: पंडिता रमाबाई" है। सुजाता ने अरुंधति रॉय को "मौकापरस्त पर्यटक क्रांतिकारी" मानकर यह आरोप लगाया कि वे लिखती हैं और फिर विदेश चली जाती हैं, इसलिए उन्हें भारत पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। तब प्रश्न यह है कि क्या पंडिता रमाबाई, जिन्होंने अमेरिका में रहते हुए ‘The High-Caste Hindu Woman’ जैसी ऐतिहासिक पुस्तक लिखी, उनका योगदान भी विदेश में रहने की कसौटी पर खारिज किया जा सकता है? नहीं। सुजाता एक ही कारण से पंडिता रमाबाई के लिए अलग और अरुंधति रॉय के लिए अलग निष्कर्ष निकालती हैं। इस संदर्भ में अरुंधति रॉय को केवल इसलिए खारिज कर देना कि वे विदेश चली जाती हैं, न केवल अतार्किक है बल्कि एक बौद्धिक दोहरापन भी है।
जब सुजाता जैसी लेखिका अरुंधति रॉय के "विदेश चले जाने" या "भारत में न रहने" को उनके विचारों की वैधता पर सवाल उठाने के लिए इस्तेमाल करती हैं, तो यह तर्क उसी प्रतिगामी मानसिकता दोहराता है जो भारतीय राजनीति में अक्सर "विदेशीपन" को राष्ट्रभक्ति की कसौटी बनाकर इस्तेमाल करती है।
यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने वर्षों तक सोनिया गांधी के "इटालियन मूल" को लेकर किया, जहाँ उनके विचारों, नेतृत्व और भूमिका को बार-बार इस आधार पर खारिज करने की कोशिश की गई कि वे "विदेशी" हैं।
केस स्टडी 3: अंचित–छिपी नफ़रत और गलत आरोप
अंचित एक युवा कवि हैं, जिनका कविता संग्रह "साथ-असाथ" प्रकाशित हुआ है। अंचित का कहना है कि रॉय के लेखन में वैचारिक एकपक्षीयता है, जो उन्हें पर्याप्त "स्टिमुलेट" नहीं करता। उनका एक प्रश्न यह भी है कि अरुंधति रॉय क्या मार्क्सवादी हैं? और इस आलोचना का एक अंतर्विरोध यह है कि अंचित स्वयं को प्रगतिशील परंपरा का हिस्सा नहीं मानते और स्वयं को मार्क्सवाद सिंपेथाईजर नहीं मानते हैं, फिर भी पूछते हैं क्या अरुंधति के मार्क्सवादी हैं? साथ ही अरुंधति के पक्ष में बोलने वाले पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि अरुंधति के समर्थकों का पेट खराब है और यह एक लाइलाज बीमारी है। यह अरुंधति रॉय के खिलाफ उस " छिपी नफ़रत" (cold war hate) का उदाहरण है, जो अकसर वैचारिक के बदले कलात्मक असहमति के आवरण में प्रकट होती है, जहां लेखन की ताक़त, सामाजिक हस्तक्षेप और असुविधाजनक सवाल पूछने वाली आवाज़ को नज़रंदाज़ करने के लिए उसके कलात्मक मूल्य पर प्रश्न खड़ा किया जाता है और एक पक्षीयता का गलत आरोप लगा दिया जाता है।
आखिर इन साहित्यकारों को अरुंधति रॉय से इतनी नफ़रत क्यों है? क्या यह विचारों से असहमति है या किसी गहरी असुरक्षा की प्रतिक्रिया? इसे समझते हैं।
भारत: विरोधाभासों की भूमि
अरुंधति कहती हैं कि भारत एक ऐसा देश है जो एक साथ कई सदियों में जीता है। तकनीकी विकास के बीच, पौराणिक आस्थाओं और अंधविश्वासों की घटनाएं भी उसी ऊर्जा से फल-फूल रही हैं। उदाहरण के तौर पर वे एक ओर जर्मनी में भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की मांग का ज़िक्र करती हैं, वहीं दूसरी ओर कुंभ मेले में एक नागा साधु द्वारा अपने लिंग से डी.सी. की कार खींचने की घटना की ओर इशारा करती हैं। यह एक ऐसा देश है जहां Miss World प्रतियोगिता की चमक और बाल मजदूरी एक ही समय में मौजूद हैं।
यह द्वैत भारत की राजनीति, समाज और आत्मा में गहरे धंसा हुआ है। एक तरफ डिजिटल क्रांति है, तो दूसरी ओर वह सड़कों पर खड़े मज़दूर हैं जो ठंड में मोमबत्ती की रोशनी में फाइबर ऑप्टिक केबल बिछा रहे हैं। इस विरोधाभास को वे एक रूपक के ज़रिए समझाती हैं—एक बड़ा ट्रक समृद्धि की ओर जा रहा है और एक छोटा ट्रक अंधकार में लुप्त हो रहा है। भारत की जनता इनमें से किसी एक में नहीं, बल्कि दोनों ट्रकों के बीच लटक रही है—भावनात्मक और बौद्धिक रूप से।
रॉय की विशेषता है कि वे भारत के उस "डुअल" यथार्थ को उजागर करती हैं जिसे अक्सर बौद्धिक वर्ग छिपा देता है। इस तरह की सच्चाई को देखकर बौद्धिक वर्ग असहज होता है।
Siddharth Ramu ने अपने एक लेख में अरुंधति की इस सक्रियता को परंपरावादियों की नजर में अपराध माना है। उन अपराधों को समझते हैं।
पहला अपराध: वह राष्ट्रीय नायिका नहीं बनीं, जो बन सकती थीं
1997 के बाद रॉय अगर चाहतीं, तो वह दिल्ली के किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन सकती थीं। पद्मश्री या पद्मभूषण ले सकती थीं। टीवी डिबेट्स की स्थायी अतिथि बन सकती थीं। लेकिन उन्होंने वह रास्ता नहीं चुना।
उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ खड़ा होना चुना।
यह उस दौर की बात है जब भारत नवउदारवाद के उत्सव में डूबा था। 'इंडिया शाइनिंग' का नशा अभी चरम पर था। डैम को विकास का प्रतीक माना जा रहा था। और रॉय ने इस 'विकास' के खिलाफ लिखा—'The Greater Common Good'। उन्होंने पूछा कि किसके लिए यह विकास हो रहा है? और किस कीमत पर?
यहीं से उनकी दुश्मनी शुरू हुई।
उनकी लेखनी को 'विकास विरोधी' और 'राष्ट्र विरोधी' घोषित कर दिया गया।
दूसरा अपराध: बस्तर के आदिवासियों के बीच जाना, और 'कॉमरेड' के साथ चलना
अरुंधति रॉय ने जब 'Walking with the Comrades' लिखा, तो उन्होंने भारत के 'रेड कॉरिडोर' को साहित्यिक और राजनीतिक विमर्श में लाकर खड़ा कर दिया। यह सिर्फ एक किताब नहीं थी, यह उस शोर के विरुद्ध एक स्पष्ट आवाज़ थी जो बस्तर के आदिवासियों को आतंकवादी कहकर खारिज करता रहा।
सिद्धार्थ रामू कहते हैं कि “बंदूक को लेकर पांडेय कुछ ज्यादा भड़के नजर आ रहे हैं। बस्तर के आदिवासियों के मामले में उन्होंने बंदूक को निशाना बनाकर अरूनधती को निशाना बनाया है। पांडेय जी की बात से यह लग रहा है कि जनता या जनता के किसी हिस्से के हाथ में किसी भी परिस्थिति में बंदूक हो, यह बात पांडेय जी को गंवारा नहीं है।
बस्तर के आदिवासियों के बीच अरूधती के जाने और किताब लिखने पर पांडेय जी का कमेंट-इस मामले में पांडेय जी लिखते हैं कि, “अहिंसा का पाठ तो इन्होंने बस्तर में भी नहीं पढ़ाया जिसके नाम पर दिल्ली/पटना/इलहाबाद के पढे-लिखे लोग बुद्धिजीवी बन गए और आदिवासी शिकार होते रहे।किताबें लिखीं, वाहवाही और रॉयल्टी बटोरी और यूरोप चली गईं।”यहां पांडेय जी एक साथ तीन निशाना साध रहे हैं। पहली लाइन में अहिंसा के पाठ की बात कर रहे हैं। यहां साफ है कि उनका संदर्भ भारत-पाकिस्तान के बीच के युद्धोन्माद-युद्ध के बारे में अरूनधती की राय पर व्यंगात्मक टिप्पणी है, जिसमें पांडेय जी कह रहे हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध की मुखाफलत करके अरूनधती अहिंसा का पाठ पढ़ा रही हैं।”
तीसरा अपराध: कश्मीर के लिए बोलना, गिलानी के साथ मंच साझा करना
कश्मीर पर रॉय का स्टैंड शुरू से साफ रहा है—यदि कश्मीरी आज़ादी चाहते हैं, तो उन्हें उसकी बात करने का अधिकार है।
वे भूल जाते हैं कि अरुंधति ने कभी कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की बात नहीं की। उन्होंने गिलानी के साथ मंच साझा किया, विचार नहीं।
चौथा अपराध: मुसलमानों के साथ खड़े होना
सीएए-एनआरसी आंदोलन हो या गुजरात दंगे, अरुंधति ने बार-बार अपने लेखन और भाषणों में उस अल्पसंख्यक समुदाय के साथ खड़ा होने की हिम्मत दिखाई, जिसे बार-बार राष्ट्र विरोधी कहा गया।
जब दिल्ली जल रही थी, तब अरुंधति ने बोला-"सीएए-एनआरसी संविधान की रीढ़ तोड़ने के लिए तैयार है।"
"अंत की आहटें: एक हिंदू राष्ट्र का उदय" आलेख में अरुंधति रॉय उस बदलते भारत की तस्वीर पेश करती हैं जहां कभी असहमति और प्रतिरोध की परंपरा गर्व का विषय थी, वहीं आज वह दम तोड़ती प्रतीत हो रही है। यह लेख भारत के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के क्षरण की गहरी चिंता को व्यक्त करता है, जहां एक "हिंदू राष्ट्र" के उभार की आहटें स्पष्ट होती जा रही हैं।
यह 'आत्मा' शब्द ही परंपरागत बौद्धिकता को चुभता है। क्योंकि यह आत्मा वे कभी संविधान में ढूंढते हैं, कभी वर्णाश्रम में।
पाँचवाँ सबसे बड़ा अपराध-जाति पर प्रहार
जब अरुंधति ने 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' की भूमिका लिखी थी, तो वह सिर्फ़ एक लेखक नहीं थीं, एक संवेदनशील और सतर्क आत्मा थीं, जो भारत की आत्मा से लड़ रही थीं।
वह कहती हैं, “जाति व्यवस्था ही वह नस है, जिससे हिंदू राष्ट्रवाद का रक्तसंचार होता है।” वह रेखांकित करती हैं कि जातिवाद और कार्पोरेट गठबंधन ही इस समय की सबसे ख़तरनाक साजिश है। उनका कहना है, "जाति आज भी भारतीय समाज का इंजन है—नियम भी, और चाल भी।"
उनकी कलम ने न केवल आंबेडकर को नए सिरे से स्थापित किया, बल्कि 'जाति उन्मूलन' को आज की ज़रूरत बना दिया। उन्होंने गांधी के जाति-सम्मत दृष्टिकोण की आलोचना की, हर उस विचार और किताब की धज्जियां उड़ाईं जो जाति व्यवस्था को पोषित करती थीं। इसलिए वे हमेशा वर्णवादी आलोचकों के निशाने पर रहीं।
छठा अपराध: जब उन्होंने परमाणु बम के खिलाफ कलम उठाई
1998 में जब पोखरण में भारत ने परमाणु परीक्षण किया, तो सारा देश जश्न में डूबा था। टीवी पर एंकर 'जय विज्ञान' के नारे लगा रहे थे। लेकिन रॉय ने लिखा-'The End of Imagination'.
उन्होंने कहा कि यह विनाश का उत्सव है।
उन्होंने राष्ट्रवाद की उस चादर को खींच दिया जिसके नीचे सत्ता अपनी ताकत छुपा रही थी। पाण्डेय जी जैसे परंपरागत बुद्धिजीवी, जिन्हें इतिहास के सभी युद्ध याद हैं, वे यह नहीं समझ पाए कि किसी बुद्धिजीवी का काम सिर्फ तारीखों को याद रखना नहीं होता, बल्कि भविष्य को बचाना भी होता है।
सातवाँ अपराध - स्त्री होकर पुरुषों से सफल लेखक होना
अरुंधति रॉय का लेखन के प्रति विरोध का एक गूढ़ और अक्सर अनकहा कारण यह भी है कि वे एक स्त्री होते हुए भी पुरुषों से कहीं अधिक सफल और मुखर लेखिका हैं। "गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स" जैसी कृति से अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाने वाली रॉय ने जिस तरह सत्ता, पूंजीवाद, सैन्यीकरण और पितृसत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाई है, वह परंपरागत पुरुष वर्चस्व वाले साहित्य और विचार के क्षेत्र को चुनौती देती है। मसलन, जब वे कश्मीर या माओवाद पर बोलती हैं, तो आलोचक उन्हें 'लेखिका' या एक्टिविस्ट के दायरे में सीमित कर उन्हें 'राजनीति न समझने वाली भावुक स्त्री' बताने का प्रयास करते हैं—यह एक पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति है, जो पुरुषों को असहज करती है। इसलिए अरुंधति रॉय का 'अपराध' यह नहीं कि वे लिखती हैं, बल्कि यह है कि वे स्त्री होकर न केवल लिखती हैं, बल्कि पुरुषों से बेहतर लिखती हैं और सत्ता से टकराने का साहस रखती हैं।
अरुंधति राय की नज़र में आदर्श बुद्धिजीवी का मॉडल क्या है?
अरुंधति के अनुसार लेखक को 'शांत न रहने' का अधिकार है। यह स्वतंत्रता का सार है-स्वतंत्रता से बोलने, सोचने, पहचान को बनाए रखने और मानवीय गरिमा से जीने की।
रॉय खुद सवाल करती हैं-क्या एक लेखक को राजनीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है? क्या वह सिर्फ कल्पनाओं में उलझा रहने वाला प्राणी है? उन्होंने एक निबंध - “The Ladies Have Feelings…So Shall We Leave It to the Experts?" - में इस दोहरेपन पर चोट की है।
उनके अनुसार, अगर आपने कोई उपन्यास लिखा है, तो आप ‘लेखक’ कहलाएंगे। लेकिन जैसे ही आपने कुछ राजनीतिक या सामाजिक आलोचना की, आपको ‘एक्टिविस्ट’ करार दे दिया जाएगा — जैसे यह कोई अलग जीव हो! यह एक घेट्टोइज़ेशन है — लेखकों की दुनिया को सजावटी बना देने की कोशिश, जहां वे सत्ता के सामने केवल मौन रहकर तालियां बजाएं।
लेकिन रॉय ने वह मौन नहीं ओढ़ा। उन्होंने अपना नैतिक पक्ष चुना — और यही उन्हें परंपरागत बौद्धिकता की आंख की किरकिरी बना देता है।
लेखक की ‘ताकत’: जोड़े बिखरे सूत्र
लेखक के पास यह ‘ताकत’ होती है कि वह उन कड़ियों को जोड़ सके जो बिखरी हुई लगती हैं—जैसे कि एक गाँव के डूब जाने की कहानी को WTO, IMF और World Bank से जोड़ देना। लेखक जटिल राजनीतिक-आर्थिक सच्चाइयों को ऐसी कहानियों में रूपांतरित करता है जो संवेदना के माध्यम से समझी जा सकें। लेखक जनता को उनकी ‘वास्तविक स्थिति’ से अवगत कराता है, जो कि अक्सर विशिष्ट भाषा और नीतियों के पर्दे में छुपा दी जाती है।
विशेषज्ञ बनाम लेखक: ज्ञान का लोकतंत्र
रॉय विशेषज्ञों की भूमिका को संदेह की दृष्टि से देखती हैं। वे मानती हैं कि विशेषज्ञ ज्ञान को उपनिवेशित कर लेते हैं—उसे चार दीवारों में बंद कर आमजन से दूर कर देते हैं। अशोक कुमार पांडेय इस तरह के फर्जी इतिहास-विशेषज्ञ के सटीक उदाहरण हैं। रॉय के अनुसार ये विशेषज्ञ ऐसे तर्क देते हैं: "मेरा ज्ञान तुम्हारे जीवन के लिए आवश्यक है, इसलिए निर्णय मुझे करने दो।" यह विचार लोकतांत्रिक नहीं है। लेखक का काम होता है इस ज्ञान को आम जनता तक लाना, उसे कहानियों में बदलकर सहज बनाना।
रॉय मानती हैं कि विशेषज्ञ हमेशा गलत नहीं होते, लेकिन केवल उन्हीं पर आश्रित रहना उचित नहीं है। एक लेखक की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे ज्ञान को भी सामने लाए जो जिज्ञासा, करुणा, विनम्रता और कभी-कभी ‘न छेड़ने’ की भावना से प्रेरित हो। उनके लिए तथ्यों को खोदना नहीं, बल्कि संघर्षों और चिंताओं की परतों को उजागर करना अधिक महत्वपूर्ण है।
नई कला की जरूरत: अदृश्य को दृश्य बनाने की क्षमता
इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है—नई तरह की कला का विकास करना। ऐसी कला, जो अमूर्त को मूर्त बना सके, जो अदृश्य को दृश्यमान कर सके, जो कॉर्पोरेट शक्ति की असलियत को सामने ला सके। यह वह कला है, जो न केवल सौंदर्य बोध की सेवा करे, बल्कि राजनीतिक प्रतिरोध की भी भूमिका निभाए।
अरुंधति मानती हैं कि यही आज की कला की भूमिका होनी चाहिए—लोगों को जागरूक करना, सवाल उठाना और सत्ता को जवाबदेह बनाना। यह कला न केवल मनोरंजन है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक हथियार भी है।
लेखन एक नैतिक परियोजना है
लेखक केवल ‘सुंदर’ नहीं रचता, वह ‘सच’ भी रचता है। सच को सुंदर बनाना और सुंदर को सच में बदल देना लेखक की अद्वितीय विशेषता है। लेखक का धर्म यह है कि वह जनता को सशक्त बनाए, उन्हें सोचने, समझने और अपनी ज़िंदगी में हस्तक्षेप करने का साहस दे। लेखन न तो केवल भाषा है, न ही केवल विचार; वह एक जीवंत संवाद है—जिसमें सत्ता, शक्ति, सौंदर्य और सच्चाई की बहस निरंतर चलती रहती है।
रॉय न तो आदर्शवादी हैं और न ही केवल दस्तावेज़ी। वे तर्क करती हैं, विश्लेषण करती हैं, असहमति प्रकट करती हैं और सवाल उठाती हैं। वे चीज़ों को वैसे ही नहीं छोड़तीं, बल्कि हर ‘सिस्टम’ में हस्तक्षेप कर सत्य को उजागर करने का काम करती हैं। लेखक का सबसे बड़ा योगदान उसकी असहमति में है—एक ऐसी असहमति जो तर्कसंगत, शांतिपूर्ण और निरंतर हो। यह असहमति धर्म, राज्य, पूंजीवाद और लोकतंत्र के दबावों से उपजी हिंसा
विरोध का वैश्विक निर्यात
रॉय कहती हैं, अगर लाभ को वैश्वीकृत किया जा सकता है, तो असहमति को क्यों नहीं? उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर कश्मीर और बस्तर तक हर संघर्ष की आवाज़ को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुंचाया।
उनकी यही वैश्विक सक्रियता, यह अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप परंपरागत बौद्धिकता के लिए चुनौती है। उनके लिए साहित्य एक सीमित मंच है, जबकि रॉय के लिए यह एक Global Act of Resistance है।
वे कहती हैं “भारत की सबसे बड़ी पेशकश ‘विरोध का निर्यात’ हो सकती है।”
इसलिए अरुंधति रॉय का अपराध यह नहीं है कि उन्होंने गिलानी के साथ मंच साझा किया, या बस्तर में आदिवासियों के साथ चलीं, या नर्मदा के किनारे बैठीं।
उनकी आलोचना करना आसान है। उनके होने को समझना कठिन। लेकिन समय गवाह है-पिछले दो दशकों में अगर किसी ने इस देश में बुद्धिजीवी होने की नैतिक ज़िम्मेदारी निभाई है, तो वह हैं- अरुंधति रॉय और सबसे ज्यादा किसी भारतीय लेखक का विरोध हुआ है, तो वह हैं - अरुंधति रॉय। एक तरफ अशोक कुमार पांडेय जैसे फर्जी स्वघोषित इतिहासकार, सुजाता, अंचित आदि का रॉय के लेखन को एकपक्षीय कहकर विरोध खारिज कर रहे हैं, एक तरफ नोम चॉम्स्की हैं, जिनकी नजर में रॉय के निबंध "विस्मयकारी जनसंघर्षों" की प्रेरणादायक गाथाएं भी हैं जो ‘झुकने और मरने से इनकार करते हैं।’
अरुंधति रॉय का अपराध यह है कि उन्होंने सवाल पूछे। ऐसे सवाल जो हमें सत्ता के आईने में देखने को मजबूर करते हैं। परंपरागत बौद्धिकता अरुंधति से डरती है और इसलिए घृणा करती है, क्योंकि वो ऐसे सवाल पूछती हैं कि किसका विकास? किसकी सुरक्षा? किसकी आज़ादी?
संदर्भ - सिद्धार्थ रामू, अरूंधती राय के ऐतिहासिक अपराध, फेसबुक पोस्ट.
लेखक फिल्म निर्माता और आलोचक हैं।
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