ऑपरेशन कगार : शांति वार्ता क्यों न हो?

छत्तीसगढ सरकार उनके प्रस्ताव का स्वागत क्यों नहीं कर सकती?

दिवाकर मुक्तिबोध

 

तेलंगाना में नक्सलियों ने आगामी छह माह के लिए संघर्ष विराम की घोषणा की है. क्या ऐसी कोई घोषणा माओवादी छत्तीसगढ में भी करेंगे जो भीषण रूप से नक्सल प्रभावित है? शायद यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि सरकार सुलह वार्ता का संकेत न दें. छत्तीसगढ के गृह मंत्री विजय शर्मा पहले ही नक्सलियों की शांति वार्ता की पेशकश को ठुकरा चुके है.

दरअसल 25 अप्रैल को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवाद ) के उत्तर पश्चिम सब ज़ोनल ब्यूरो ने अपनी ओर से पहली बार राज्य सरकार को शांति वार्ता का प्रस्ताव तब भेजा जब सरहदी जिले बीजापुर के अंतर्गत कर्रेगुटा पहाड़ी में छिपे हुए तीन सौ से अधिक नक्सलियों को सशस्त्र बल ने चारों तरफ से घेर लिया. छत्तीसगढ, तेलंगाना व महाराष्ट्र की संयुक्त टीम का यह अब तक का सबसे बड़ा आप्रेशन था और यह माना गया कि नक्सलियों के खिलाफ यह अंतिम लडाई है.

इसका असर यह हुआ कि भाकपा (माओवादी) के सब ज़ोनल ब्यूरो के प्रभारी रुपेश ने पत्र भेजकर सरकार से नक्सल उन्मूलन अभियान तुरंत रोकने एवं बातचीत शुरू करने की अपील की. यद्यपि कर्रेगुटा में 21 - 22 अप्रैल से दो हफ्ते तक जारी रहे इस युद्ध में जिसे आप्रेशन कगार कहा गया, कितने नक्सली मारे गए और कितने भाग गए इसकी कोई पुष्ट जानकारी सामने नहीं आई है अलबत्ता मीडिया से बातचीत में प्रदेश के गृह मंत्री ने पिछली हिंसक घटनाओं का हवाला देकर भाकपा ( माओवादी) के शांति प्रस्ताव को खारिज कर दिया. उन्होंने उन मानवाधिकारवादियों तथा वामपंथी विचारकों की आलोचना की जो आप्रेशन कगार बंद करने तथा शांति वार्ता प्रारंभ करने सरकार से अनुरोध कर रहे थे.

बहरहाल नक्सल मोर्चे पर राज्य सरकार की यह अब तक कि सबसे बड़ी सफलता है. शीर्ष नक्सली नेताओं की सर्वाधिक सुरक्षित इस पहाड़ी पर अब सुरक्षा बलों का कब्जा है. इस अभियान से नक्सलियों की रही-सही कमर टूट गई है और वे घुटने पर आ गए हैं तथा युद्ध विराम चाहते हैं. सवाल है यदि नक्सली सुलह चाहते हैं तो बिना उनकी कोई शर्त माने छत्तीसगढ सरकार उनके प्रस्ताव का स्वागत क्यों नहीं कर सकती ? इसमें क्या दिक्कत है?

क्या सत्ता का दंभ आडे आ रहा है या अति आत्मविश्वास रोक रहा है? यह नहीं भूलना चाहिए कि एक तरफ नक्सली व उनका नक्सलवाद तथा दूसरी तरफ पुलिस, इन दोनों के बीच में बस्तर के अति गरीब तथा निरीह आदिवासी पिछले 45 वर्षों से झुलस रहे हैं. उनका जीवन कठिन से कठिनतम होता रहा है. इन वर्षों में नक्सलियों के साथ पुलिस की दर्जनों मुठभेड़ों व नक्सलियों द्वारा की गई हत्याओं से बस्तर में इतना अधिक खून बह चुका है कि देखने-सुनने वालों के दिल दहल जाते हैं.

क्या सरकारों को विचलित करने के लिए यह काफी नहीं है? अब यदि बातचीत के जरिए भविष्य की हिंसात्मक घटनाएं रोकी जा सकती हैं तो हिचक कैसी? क्या साय सरकार यह मानकर चल रही है कि अगले कुछ महीनों में बस्तर में सक्रिय तमाम नक्सली मारे जाएंगे अथवा आत्मसमर्पण कर देंगे और इस तरह केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा तय तिथि तक छत्तीसगढ से नक्सलवाद का खात्मा हो जाएगा? लेकिन सशस्त्र बलों के दम पर, तमाम कोशिशें के बाद भी ऐसा न हुआ तो? तो क्या सरकार के पास कोई जवाब होगा? शायद नहीं?

नहीं इसलिए क्योंकि चार दशक से अधिक पुरानी इस समस्या के बारे में हमेशा कहा जाता रहा है कि इसका समाधान हिंसा से नहीं हो सकता. केवल बातचीत से ही बस्तर में शांति की स्थापना संभव है. लेकिन इस तथ्य को सरकार के स्तर पर हमेशा नज़रअंदाज किया गया. सरकार ने समय-समय वार्ता का राग ज़रूर अलापा पर वह दिखाए के तौर पर था. माओवादी संगठनों का यह आरोप गलत नहीं है कि राज्य सरकार भ्रमित करती रही है जैसा कि इस बार भी साय सरकार ने किया.

सत्तारूढ होते ही शांति वार्ता का ऐलान किया गया किन्तु यह सिर्फ घोषणा थी. उसने गंभीर प्रयत्न नहीं किए. यदि सचमुच नक्सली आतंक को पूर्णत: समाप्त करने का सरकार का संकल्प है तो वार्ता के लिए सरकार को आगे आना चाहिए खासकर ऐसे मौके पर जब माओवादी संगठन खुद वार्ता की अपील कर रहे हैं.

नक्सल उन्मूलन अभियान के साथ साथ-साथ सरकार को बस्तर में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उपायों को गति देनी होगी तथा विश्वास का वातावरण बनाना होगा. यह तथ्य खुली किताब की तरह है कि बस्तर के गरीब एवं उपेक्षित आदिवासियों के शोषण व दमन में नौकरशाही के साथ-साथ राजनीति की भी भूमिका रही है जिनके लिए नक्सल समस्या सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है जिसे 40-45 वर्षों से जिंदा इसीलिए रखा गया ताकि केन्द्र से इस मद में मिलते रहे करोड़ों रूपयों का खेल चलता रहे.

आर्थिक भ्रष्टाचार के इसी खेल के चलते बीते वर्षों में नक्सलियों के खिलाफ जितने भी अभियान चले उनमें संकल्प व प्रतिबद्धता का अभाव था. इसीलिए कभी कोई ठोस परिणाम नहीं मिला जबकि दोनों तरफ की हिंसा में सैकड़ों बेगुनाह मारे गए जिनमें पुलिस के जवान व ग्रामीण शामिल हैं. हिंसा-प्रतिहिंसा की वर्षों से चली आ रही आंखमिचौली के बाद अब केंद्र सरकार ने नक्सली व नक्सलवाद को समूल नष्ट करने का वायदा किया है.

चूंकि इस बार इरादा पक्का नज़र आता है इसलिए पिछले डेढ वर्ष में नक्सल विरोथी अभियान को अच्छे परिणाम मिले हैं. अनेक बड़े नेताओं के मारे जाने से नक्सल संगठन कमजोर पड़े हैं तथा उनकी मारक क्षमता घटी है.अब वे शांति वार्ता चाहते हैं. किंतु परिणाम से उत्साहित सरकार को अब उनकी पेशकश मंजूर नहीं है. उसने नक्सलियों को दो विकल्प दे रखे हैं - ' नि:शर्त आत्मसमर्पण करो या पुलिस की गोलियों से मरने के लिए तैयार रहो '.

छत्तीसगढ से नक्सलवाद एवं देश से आतंकवाद के खात्मे का केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह का कौल है. देश में आतंकवाद की क्या स्थिति है , इसे बताने की जरूरत नहीं है. यह राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा है और इसके खात्मे को समय-सीमा में बांधा नहीं जा सकता अलबता छत्तीसगढ़ व अन्य दो- तीन राज्यों तक सिमट चुके नक्सलवाद को समाप्त किया जा सकता है बशर्ते इसे उदार व मानवीय दृष्टिकोण से भी देखा जाए. शुरू में विष्णुदेव सरकार ने ऐसी उदारता दिखाई थी. दिसंबर 2023 में राज्य की बागडोर सम्हालने के तुरंत बाद भाजपा सरकार ने इसी नीति पर आगे बढ़ना शुरू किया था.

तब प्रदेश के गृह मंत्री विजय शर्मा का पहला बयान आया कि सरकार नक्सलियों से बातचीत के लिए तैयार है. उन्होंने यह भी कहा था कि यदि नक्सली नेता राउंड टेबल पर आने से हिचकिचा रहे हैं तो सरकार उनसे पत्राचार के अलावा टेलीफोन या वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए भी बातचीत कर सकती है.

राज्य सरकार ने पहली बार इतना सकारात्मक प्रस्ताव दिया था जिसका प्रत्युत्तर भी नक्सली नेताओं ने खुले दिल से दिया. दंडकारण्य सेंट्रल ज़ोन कमेटी के प्रवक्ता ने विज्ञप्ति जारी कर सरकार की पहल का स्वागत किया था और अपनी कुछ मांगे रखीं थीं. लेकिन इस दिशा में कोई अपेक्षित प्रगति नहीं हुई और इस बीच केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने छत्तीसगढ से नक्सलवाद के खात्मे की तिथि तय कर दी.

महीना मार्च 31, वर्ष 2026. उन्होंने छत्तीसगढ की सरजमीं से यह घोषणा की. इसके बाद शांति वार्ता की सरकारी पहल कूड़ेदान में चली गई. केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स व राज्य की पुलिस ने बस्तर में तेज अभियान शुरू कर दिया जिसका पहला मकसद था शीर्ष नक्सली नेताओं को खत्म करना, अबूझमाड सहित उनके महत्वपूर्ण शरणगाहों को ध्वस्त करना तथा आर्थिक स्तोत्र सहित उनके सारे संसाधनों को ध्वस्त कर करना.

इस अभियान से नक्सल नेताओं के हौसले पस्त हो गए. सुरक्षा बलों के दबाव से इलाके नक्सल मुक्त होते गए, सैकड़ों ने आत्मसमर्पण किया तथा बौखलाए नक्सल प्रवक्ताओं ने बार-बार शांति वार्ता का राग अलापना शुरू किया. ऐसा पहली बार है जब नक्सली जान बचाने सरकार से वार्ता करना चाहते हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि छत्तीसगढ में दिसंबर 2023 में भाजपा की सरकार के बनने के बाद नक्सल मोर्चे पर जो प्रगति नज़र आ रही है, वह अभूतपूर्व है. गृह मंत्रालय द्वारा जारी आंकडों के अनुसार जनवरी 2024 से अप्रैल 2025 तक यानी करीब डेढ वर्ष के भीतर 513 नक्सली मारे गए तथा 1300 से अधिक मुख्य धारा में शामिल हुए.

अर्थात नक्सल उत्पात के 45 - 46 वर्षों के इतिहास में सर्वाधिक प्रगति इन 18 महीनों में हुई. जैसा कि जाहिर है, उसका सबसे बड़ा अभियान 21 - 22 अप्रैल 2025 को चला जब छत्तीसगढ सहित तीन राज्यों के जवानों की भारी भरकम संयुक्त टीम ने सरहदी जिले बीजापुर के कर्रेगुटा-नडपली पहाड़ी को घेर लिया जहां नक्सली मिलिट्री बटालियन के चीफ हिडमा, शीर्ष नेता देवा, दामोदर सहित बड़ी संख्या में नक्सली पनाह लिए हुए थे.

करीब पंद्रह दिनों तक चली इस घेरेबंदी का अंत क्या हुआ, इसकी खबर नहीं है अलबत्ता अपुष्ट खबर यह कहती है कि हिडमा सहित बड़े नक्सली नेता फोर्स का घेरा तोड़कर भागने में सफल रहे. नक्सलियों का यह सर्वाधिक सुरक्षित किला ध्वस्त हो गया तथापि सशस्त्र बल को इस बात का मलाल रहेगा कि शीर्ष नेताओं के खात्मे का एक अच्छा अवसर हाथ से निकल गया.

बहरहाल बीजापुर कर्रेगुटा अभियान का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि बस्तर में शांति वार्ता के समर्थक एवं मानवाधिकारवादी खुल कर सामने आ गए. तेलंगाना के पूर्व मंत्री के. चंद्रशेखर राव ने केंद्र सरकार से आप्रेशन कगार को बंद करने व नक्सलियों से बातचीत करने की अपील की. उन्होंने बहुत तीखे अंदाज में आरोप लगाया कि केन्द्र व राज्य सरकार नक्सलियों की क्रूरतापूर्ण हत्याएं कर रही हैं. भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की नेता व उनकी बेटी के. कविता ने भी वार्ता की वकालत की. तेलंगाना कांग्रेस के मुख्य मंत्री रेवंत रेड्डी ने भी रज़ामंदी जाहिर की.

इसके पूर्व 22 अप्रैल को प्रोफेसर हरगोपाल के नेतृत्व वाली मानवाधिकारवादियों की एक समिति ने भी मुख्य मंत्री विष्णुदेव साय को पत्र भेजकर आप्रेशन कगार बंद करने तथा नक्सलियों से वार्ता शुरू करने की अपील की थी. कुल मिलाकर राज्य सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है. यद्यपि छत्तीसगढ के गृह मंत्री विजय शर्मा ने वार्ता के प्रस्ताव को भाव नहीं दिया है फिर भी तेलंगाना की तरह यदि भाकपा ( माओवादी) नेता छत्तीसगढ में भी कुछ समय के लिए एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा करते हैं तो वार्ता की संभावना बन सकती है.

प्रदेश के मुख्य मंत्री विष्णुदेव देव साय आदिवासी वर्ग से हैं. उन्हें यह बताने की जरूरत नहीं है कि बीते वर्षों में सैकड़ों की संख्या में बस्तर के आदिवासी पुलिस तथा नक्सलियों की गोली के शिकार हुए और मारे गए. यह हिंसा अभी भी जारी है. आए दिन कोई न कोई घटना ऐसी होती है कि जिसमें आदिवासी जान से जाता है. फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मुठभेड़ों में जो नक्सली मारे जाते हैं, वे मूलत: राह से भटके आदिवासी ही होते हैं.

इसलिए यह उम्मीद तो करनी ही चाहिए कि आदिवासी मुख्यमंत्री उन आदिवासियों के दर्द को समझेंगे जो पुलिस व नक्सलियों के बीच फंसे हुए हैं और आतंक के साये में जी रहे हैं. ऐसी खबरें हैं कि लगभग समूचा बस्तर पुलिस की छावनी बना हुआ है. यह स्थिति महीनों से है. नक्सल प्रभावित इलाकों के चप्पे-चप्पे में सुरक्षा बलों की मौजूदगी से आम जनजीवन किस तरह प्रभावित होता है, इसे वहां के माहौल को देखकर समझा जा सकता है.

खैर भले ही नक्सली अभी बैकफुट पर हों और उनका संगठन नेतृत्व के संकट से जूझ रहा हो पर इस प्राचीन व रक्तरंजित समस्या का स्थायी हल दोनों पक्षों के परस्पर विश्वास व सद्भाव पर टिका हुआ है जो वार्ता के लिए वातावरण बनाने आवश्यक है. पिछली सभी कोशिशें इसलिए नाकाम हुईं क्योंकि भरोसा टूटता गया. शायद इस बार कोई बात बनें.


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment