बस्तर: क्या राज्य और माओवादियों के बीच चल रहा युद्ध बस एक ‘भ्रम’ है?

बस्तर वास्तव में वहां रहने वाले लोग मिलकर बनाते हैं

अपूर्वानंद

 

बस्तर की अपनी पिछली यात्रा में गृह मंत्री अमित शाह ने आदिवासियों से उनके पिता जैसे लहजे में बात की. उन्होंने कहा कि किसी को भी नक्सली का मारा जाना पसंद नहीं आता. उन्होंने नक्सली भाइयों से आग्रह किया कि ‘वे हथियार डालकर मुख्यधारा में शामिल हो जाएं. आप हमारे अपने हैं. जब कोई नक्सली मारा जाता है तो कोई खुश नहीं होता. बस हथियार डालकर मुख्यधारा में शामिल हो जाएं.’

जिस आदमी ने मार्च 2026 की तारीख़ तय कर दी है जिस वक़्त तक माओवादियों का सफ़ाया कर दिया जाएगा, उसके मुंह से यह सुनकर कुछ अचंभा होता है. इसके अलावा हमें इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि मीडिया ने अमित शाह के बस्तर में एक रात बिताने की बात को खूब उछाला. ऐसा लगा जैसे वे यह दिखाना चाहते थे कि बस्तर पूरी तरह से उनके क़ब्ज़े में आ गया है. बाहरी दुनिया को यह बतलाया जा रहा था कि ‘माओवाद ग्रस्त’ बस्तर को माओवादियों से मुक्त करदिया गया है.

उनकी बात की ईमानदारी की जाँच कैसे करें? सबसे पहले तो हमें यह पूछना चाहिए कि अगर मारे जा रहे आदिवासी अपने हैं, तो अपनों की हत्या का इनाम कौन देता है. अगर नक्सलियों की हत्या एक अप्रिय और खेदजनक कृत्य है, तो उसके लिए इनाम का इंतज़ाम क्यों है जिससे सुरक्षाकर्मी अधिक से अधिक लोगों को माओवादी कहकर मारने को उत्साहित होते हैं?

हमें बताया जाता है कि इनाम राशि के लोभ ने सुरक्षा बलों के बीच होड़ पैदा कर दी है. इसके नतीजे में हत्याओं की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है. इनाम के लिए माओवादी पैदा किए जा रहे हैं और मारे गए लोगों को माओवादी कह भर देना काफी माना जा रहा है. वही बात हथियार डालनेवाले ‘माओवादियों’ पर लागू होती है.

 

यह किस तरह का युद्ध है जिसमें आदिवासियों को (जिन्हें राज्य द्वारा माओवादी कहा जाता है) बस मारा ही जा सकता है और पकड़ा नहीं जा पा रहा है? शक्तिशाली भारतीय सुरक्षा बल निहत्थे लोगों को केवल मार सकते हैं और पकड़ नहीं सकते? क्या यह कहा जा रहा है कि अगर आप पर माओवादी होने का संदेह है तो भले ही आप निहत्थे हों, सो रहे हों, बाज़ार में हों,आपकी हत्या कर दी जाएगी?

 

राज्य की इस बात को वैध क्यों माना जाता है? सिर्फ़ 3 महीनों में सैकड़ों की संख्या में हुई हत्याओं ने मीडिया और समाज को क्यों नहीं झकझोरा?

क्या इसका कारण यह है कि माओवादियों और भारतीय राज्य के बीच बस्तर में युद्ध के मिथ को हम सबने सच मान लिया है? क्या हम मानते हैं बेचारा राज्य माओवादियों जैसे खूंखार सशस्त्र विद्रोहियों के साथ युद्ध कर रहा है, इसलिए इसस्थिति में उस पर शांति काल के सामान्य नियम लागू नहीं होते?

लेकिन बस्तर में युद्ध के इस मिथक पर ही सवाल उठाए जाने की जरूरत है. क्या संसदीय माध्यमों से खुलेआम काम करने वाले मनीष कुंजाम जैसे राजनीतिक नेताओं को डराना -धमकाना भी माओवादियों से युद्ध के नाम पर जायज़ ठहराया जा सकता है? उनके घर पर हाल ही में की गई छापेमारी के ज़रिए सभी आदिवासियों को कहा जा रहा है कि वे कोई राजनीतिक काम नहीं कर सकते. वे राजकीय तंत्र से कोई सवाल नहीं कर सकते.

मनीष तो माओवादियों की तरह भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकने की बात नहीं करते. वे राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल लोगों के लिए किए जाने का संघर्ष भर करते हैं.वे राजकीय तंत्र को संवैधानिक तरीक़ों से जवाबदेह बनाने की बात करते हैं. लेकिन उन्हें इसकी भी सजा दी जा रही है.आदिवासियों से कहा जा रहा है कि उन्हें बस राज्य के हुक्म का पालन करना है.

हम जानते हैं कि बस्तर में युद्ध का मिथ राज्य के लिए बहुत उपयोगी है, लेकिन हमें यह भी पूछना चाहिए कि आख़िरकार क्यों माओवादी राज्य के इस दावे पर मुहर लगा रहे हैं कि उनके और भारतीय राज्य के बीच युद्ध चल रहा है. हम भी इसे क्यों मान ले रहे हैं?

माओवादियों द्वारा राज्य को शांति वार्ता की पेशकश और उस पर राज्य की प्रतिक्रिया के बारे में बात करने से पहले हमें इस संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए.

 

सरकार को आदिवासियों पर हमले, उनकी हत्या और उनके खिलाफ हिंसा को तत्काल बंद कर देना चाहिए. इसके लिए किसी शांति प्रस्ताव या युद्धविराम की पेशकश की ज़रूरत नहीं है. हम जानते हैं कि माओवादी अब छत्तीसगढ़ में किसी भी प्रकार निर्णायक ताकत नहीं हैं. वे निश्चित रूप से सशस्त्र हैं, लेकिन वे बिखरे हुए हैं और उनकी तादाद बहुत घट गई है. वे ख़ुद अपना बचाव भी नहीं कर सकते. वे अपने निहत्थे कार्यकर्ताओं की मदद नहीं कर सकते जिन्हें राज्य द्वारा बेरहमी से मारा जा रहा है या आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है.

 

यदि यह उनके और माओवादियों के बीच युद्ध है ( दोनों के बीच जो हो रहा है उसके लिए युद्ध बहुत भारी भरकम शब्द है), तो हम जानते हैं कि राज्य माओवादियों की तुलना में गोला बारूद, लड़ाकों की संख्या, संसाधनों तक पहुंच आदि के मामलों में बहुत अधिक मजबूत और शक्तिशाली है. बल और हिंसा के अपने असंगत प्रयोग को राज्य यह कह कर उचित ठहराना चाहता है कि माओवादी राज्य के खिलाफ युद्ध कर रहे हैं और उन्हें हर तरह से कुचलने की जरूरत है.

क्या यह विडंबना नहीं कि ‘खूंखार माओवादियों ‘को बिना किसी प्रभावी प्रतिरोध के मारा जा रहा है? बस्तर में दशकों बिताने के बाद, वे बस इतना ही कर सकते हैं कि नए छिपने के ठिकाने खोजें और वे भी अब सुरक्षा बलों की नज़रों से बच नहीं सकते . फिर वे उन आदिवासियों की रक्षा कैसे कर सकते हैं जिनकी तरफ़ से वे भारतीय राज्य के खिलाफ यह लंबा युद्ध लड़ रहे हैं? लेकिन उससे पहले

 

हमें यह भी पूछना होगा कि क्या माओवादी यह युद्ध आदिवासियों के लिए लड़ रहे हैं. दरअसल, उनके ‘युद्ध’ का आदिवासियों के अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है. आदिवासी केवल उनका आवरण हैं. बस्तर में उनकी मौजूदगी ने आदिवासियों को मजबूत नहीं किया है. उन्होंने अहिंसक संघर्षों को पनपने नहीं दिया है. वे क्रांति के नाम पर हथियारबंद गुंडागर्दी के अलावा और कुछ नहीं करते. उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को खत्म करने और अन्य आदिवासी नेताओं की निर्मम हत्या करने के अपने आपराधिक कृत्यों की विश्वसनीय सफ़ाई नहीं दी है.

 

वे दावा कर सकते हैं कि वे सलवा जुडूम के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित करना चाहते थे, लेकिन हम यह नहीं भूल सकते कि उन्होंने दूसरों की, जो कहीं से इसके लिए ज़िम्मेवार न थे, पहचान करने के बाद भी उन्हें मार डाला. हम तर्क दे सकते हैं कि सलवा जुडूम के लिए जिम्मेदार लोगों ने इसकी क़ीमत चुकाई. लेकिन इससे सलवा जुडूम बंद नहीं हुआ. इसके लिए फिर से ‘नागरिक समाज’ के लोगों ने ही लड़ाई लड़ी.

माओवादियों ने दावा किया कि वे चूंकि लोगों की आवाज़ हैं, उन्हें फ़ौरी न्याय करने का अधिकार है. वे लोगों को दुश्मन या ग़द्दार घोषित कर सकते हैं और उन्हें मार डाल सकते हैं. ऐसा क्यों है कि हम इन अपराधों को वैध क्रांतिकारी हिंसा केरूप में स्वीकार करते हैं, जिस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता? उनमें से कौन इन निहत्थे नागरिकों की हत्या के लिए जिम्मेदार है? क्या इन हत्याओं को इसलिए अनदेखा कर देना चाहिए कि युद्ध में तो साधारण लोग भी मारे ही जाते हैं?

कुछ साल पहले ‘तहलका’ को दिए गए एक साक्षात्कार में वरवर राव को माओवादियों के हाथों आम आदिवासियों और अन्य लोगों की हत्याओं पर सवाल को टाल देने की कोशिश करते हुए सुनना डरावना था. उन्होंने कहा कि ये सब तो ब्योरों की बात है, मूल बात नहीं. उनका मतलब यही था कि हमें इसके बारे में अनावश्यक रूप से बात नहीं करनी चाहिए. क्या यही तर्क भारतीय राज्य नहीं करता जब हम उससे सामान्य आदिवासियों की हत्या या उनपर हिंसा को लेकर सवाल करते हैं?

ऐसा क्योंकर है कि माओवादियों की सशस्त्र ताकत और उनकी थोथी बयानबाजी के बावजूद, खनन कंपनियां और अन्य कॉर्पोरेट घराने बस्तर में बेफिक्र हैं? अगर हम स्वीकार करते हैं कि माओवादियों को आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है, तोफिर भाजपा वहां कैसे मजबूत हो रही है? हमें सबसे पहले बस्तर की स्थिति का ईमानदारी से आकलन और वर्णन करना चाहिए और माओवादियों की क्रांतिकारी मुद्रा से भयभीत नहीं होना चाहिए.

 

हमें यह समझने की जरूरत है कि उनके लिए बस्तर केवल क्रांति की उनकी फैंटेसी को बनाए रखने के लिए साधन मात्र है. इधर एकाध विस्फोट, उधर बेतरतीब हत्याओं से क्रांति नहीं होती. यह केवल माओवादियों के अहं की अभिव्यक्ति है. विस्फोट, हत्या के ज़रिए वे ऐलान करते हैं वे मौजूद हैं और उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

 

हमने कभी नहीं पूछा कि क्या केवल बस्तर को ही क्रांति की जरूरत है. अन्य राज्यों, शहरों, कस्बों को इस वरदान से वंचित क्यों किया जाए? और यदि बस्तर पिछले 4 दशकों से उनका आधार है, तो ऐसा कैसे है कि वे उससे आगे अपना विस्तारकरने में सफल नहीं हुए और बल्कि सिकुड़ते जा रहे हैं? हम राजनीतिक दलों पर सवाल उठाते हैं कि वे अपना जनाधार बढ़ाने में विफल रहे. माओवादियों से सवाल क्यों नहीं किए जाने चाहिए और उन्हें अपनी रणनीति की समीक्षा करने के लिएक्यों नहीं कहा जाना चाहिए, यदि उनके पास कभी कोई रणनीति थी भी?

राज्य अच्छी तरह जानता है कि माओवादी अब कोई खतरा नहीं हैं. वे हल्का सा सरदर्द हैं. लेकिन माओवादी युद्ध के भ्रम को जनता की कल्पना में गहरा करने में सरकार को फ़ायदा है . यह राज्य को अपनी निरंतर सशस्त्र कार्रवाई को उचितठहराने में मदद करता है जो कि कानून के ख़िलाफ़ है.

माओवादियों द्वारा शांति वार्ता की पेशकश और राज्य द्वारा उस पर प्रतिक्रिया एक खेल है. यह राज्य को अपनी हिंसा जारी रखने में मदद करता है और माओवादियों को ऐसी स्थिति में अपना दावा पेश करने में मदद करता है जिसमें उनका कोई महत्व नहीं है और न ही होना चाहिए.

हम जानते हैं कि राज्य बिना शर्त आत्मसमर्पण की मांग करेगा और माओवादी कभी भी इसके लिए सहमत नहीं होंगे. वे पहले कह चुके हैं कि आख़िरी माओवादी के जीवित रहने तक वे हथियार नहीं छोड़ेंगे.इस प्रकार ‘युद्ध’ जारी रहेगा. राज्यबल आदिवासियों की हत्या जारी रखेंगे और मारे गए लोगों को माओवादी कहेंगे.

 

आदिवासियों की हत्या ट्रैजिक है. लेकिन क्या माओवादी वास्तव में इससे दुखी हैं? या वे अपने शहीदों की सूची में और नाम जोड़कर खुश हैं? माओवादियों को मानव और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और अन्य लोकतंत्रवादियों से राज्य परदबाव डालने के लिए आग्रह करते देखना बहुत मनोरंजक है. माओवादियों ने कभी भी मानवाधिकार की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया है; वे लोकतंत्र को अस्वीकार करते हैं और उन्होंने उसे कमजोर करने के लिए सब कुछ किया है.

 

अब वे जनतांत्रिक लोगों से मान्यता चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उनका बचाव वे लोग करें जिनकी बात सुनने से उन्होंने हमेशा इनकार किया है. माओवादियों और राज्य दोनों को पसंद आने वाले इस खेल में पड़े बिना, हमें सरकार से सशस्त्र कार्रवाई बंदकरने की मांग करनी चाहिए क्योंकि बस्तर में युद्ध जैसा कुछ नहीं चल रहा है. यह राज्य द्वारा की जा रही हिंसक कार्रवाई है जिसमें वह बस्तर की हरेक इंच ज़मीन पर नियंत्रण करने की की कोशिश कर रहा है. इस ज़मीन का इस्तेमाल कॉरपोरेट पूँजी के लिए ही किया जाएगा.

माओवादियों को घोषणा करनी चाहिए कि वे सभी हिंसक कार्रवाई बंद कर रहे हैं. राज्य को सभी सुरक्षा शिविरों को हटाना चाहिए ताकि और स्थानीय लोगों स्वतंत्र रूप से हर जगह आ जा सकें और अपना काम कर सकें है. यह उनकी ज़मीन हैऔर राज्य माओवादियों को घेरने के लिए ज़मीन साफ़ करने के नाम पर उन्हें वहाँ से बेदखल कर रहा है.

राज्य के लिए बस्तर सिर्फ़ संसाधनों का भंडार है, जिससे विकास के लिए जितना चाहे माल निकाला जा सके.माओवादियों के लिए यह सिर्फ़ एक आधार है जहाँ से वे अपनी क्रांति शुरू करेंगे और उसका विस्तार करेंगे. लेकिन बस्तर तो वास्तवमें वहां रहने वाले लोग ही हैं. वे आदिवासी ही प्राथमिक हैं. न राज्य, न ही माओवादी.

यह द वायर में छप चुकी हैं।

 


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