शाहूजी महाराज: प्लेटो के आदर्श दार्शनिक-क्रांतिकारी राजा के मूर्त रूप
परिनिर्वाण दिवस पर विशेष
सिद्धार्थ रामूप्लेटो ने अपनी चर्चित किताब ‘रिपब्लिक’ में एक ऐसे राजा की कल्पना की है, जिसमें दार्शनिक जैसी मावनीय ऊंचाई एवं साहस और राजनीतिक श्रेष्ठता एवं बौद्धिकता का मेल हो। उसका कहना था कि ऐसा राजा मानव जाति को अभिशाप से मुक्त कर सकता है और अंधेरे से निकाल कर रोशनी की ओर ले जा सकता है। भारत में ऐसे राजा की सिर्फ एक मिसाल मिलती है, उस राजा का नाम है-क्षत्रपति शाहू जी महाराज।

जिन्होंने अपने राज्य कोल्हापुर की करीब 90 प्रतिशत आबादी को उन सभी अभिशापों से मुक्त करने के लिए ऐसे ठोस एवं निर्णायक उपाय किए, जो अभिशाप उनके ऊपर ब्राह्मणवादी व्यवस्था एवं मनु की संहिता ने लाद रखी थी।
अधिकांश पाठक एवं अध्येता शाहू जी महराज को आरक्षण के जनक के रूप में जानते हैं, जो कि वह हैं भी। आज से करीब 118 पूर्व उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों के करीब पूर्ण आरक्षण को तोड़ने के लिए पिछड़े वर्गों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था।
यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि पिछड़े वर्ग में मराठा, कुनबियों एवं अन्य समुदायों के साथ दलितों एवं आदिवासियों को भी उन्होंने शामिल किया था। उन्होंने इस संदर्भ जो आदेश जारी किया था, उसमें साफ लिखा है कि पिछड़े वर्ग में ब्राह्मण, प्रभु,शेवाई और पारसी को छोड़कर सभी शामिल हैं।
शाहू जी द्वारा असमानता को खत्म करने एवं न्याय के लिए उठाए गए इस कदम का अनुसरण करते हुए 1918 में मैसूर राज्य ने, 1921 में मद्रास ने जस्टिस पार्टी ने और 1925 में बाम्बे प्रेसीडेंसी (अब मुंबई) ने आरक्षण लागू किया। ब्रिटिश शासन से आजादी के बाद 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान के बाद सिर्फ एससी-एसटी समुदाय को आरक्षण मिल पाया।
पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का अधिकार हासिल करने में 40 से 46 वर्ष से अधिक लग गए। यानि पिछड़े वर्ग के लिए जिस आरक्षण की व्यवस्था शाहू जी ने की थी, उसे आजाद भारत में उनसे छीन लिया गया था।
आखिर शाहू जी ने आरक्षण क्यों लागू किया। इसका मुकम्मल जवाब उनके द्वारा बाम्बे (अब मुंबई) के पूर्व गर्वनर लॉर्ड सिडेनहम को लिखे पत्र में मिलता है। करीब 3 हजार शब्दों के इस पत्र में उन्होंने कोल्हापुर राज्य में जीवन के सभी क्षेत्रों में नीचे से ऊपर तक ब्राह्मणों के पूर्ण वर्चस्व और ब्राह्मणों की गैर-ब्राह्मणों के प्रति नफरत का वर्णन किया है।
और पुरजोर तरीके से यह तर्क दिया है कि गैर-ब्राह्मणों को पृथक प्रतिनिधित्व एवं आरक्षण दिए बिना कोल्हापुर राज्य में न्याय का शासन स्थापित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि गैर-ब्राह्मणों के हित में उठाए जाने वाले हर कदम को नीचे से लेकर ऊपर तक (गांव से लेकर ऊपर के शीर्ष पद तक) नौकरशाह एवं कर्मचारी के रूप में कब्जा जमाए ब्राह्मण लागू नहीं होने देते हैं। इसके सबूत के तौर उन्होंने उदाहरण भी प्रस्तुत किए।
कोल्हापुर राज्य में ब्राह्मणों की आबादी करीब 3 से 4 प्रतिशत के बीच थी, लेकिन शासन-प्रशासन के पदों और शिक्षा पर करीब उनका 70-80 प्रतिशत तक कब्जा था। 1894 में शाहू जी जब राजा बने तो सामान्य प्रशासन के कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मणों का कब्जा था यानि करीब 86 प्रतिशत पर। शेष बचे 11 पदों में भी अन्य तथाकथित उच्च जातियों का भी हिस्सा था।
पिछड़े वर्ग के लोग करीब नहीं के बराबर थे। 1902 में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के 20 वर्षों बाद स्थिति बदली। 1922 में सामान्य प्रशासन के कुल 85 पदों में से 59 पद गैर-ब्राह्मणों के खाते में गए और ब्राह्मण 26 पदों तक सीमित हुए, फिर उनका 30 प्रतिशत से अधिक पदों पर नियंत्रण बना रहा, जबकि उनकी आबादी 3 से 4 प्रतिशत के बीच थी।
आरक्षण लागू होने से पहले यही स्थिति कोल्हापुर राज्य के शासन-प्रशासन से इतर अन्य विभागों में भी थी। 1894 में कुल 53 पदों में 46 पदों पर ब्राह्मणों का कब्जा था यानि 87 प्रतिशत पदों पर। सिर्फ 13 प्रतिशत पदों पर अन्य थे। 1922 तक आते-आते इसमें बदलाव आया।
कुल 152 पदों में 109 पद अन्य के पास गए यानि ब्राह्मण करीब 29 प्रतिशत पदों तक सीमित हुए और 71 प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों के खाते में गए। शाहू जी द्वारा आरक्षण लागू करने का उद्देश्य न्याय एवं समता आधारित समाज का निर्माण करना था, जो ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़े बिना या कम किए बिना संभव ही नहीं था।
शाहू जी अच्छी तरह समझ गए थे कि बिना शिक्षा के पिछडे वर्गों का उत्थान नहीं हो सकता है। उन्होंने 1912 में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क बनाने का निर्णय लिया। इसे पहली प्राथमिकता में रखा। 1917 - 18 तक निशुल्क प्राथमिक स्कूलों की संख्या दो गुनी हो गई। इसने शिक्षा के मामले में ब्राह्मणों और गैर-ब्राह्मणों के अनुपात में निर्णायक परिवर्तन ला दिया।
आरक्षण एवं शिक्षा के साथ जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए शाहू जी ने अनेक अन्य कानून बनाए, प्रशासनिक आदेश जारी किए और उनको पूरी तरह लागू कराया, जिसने कोल्हापुर राज्य के सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। इसी के चलते शाहू जी के जीवनीकार धनंजय कीर उन्हें एक क्रांतिकारी राजा के रूप में संबोधित करते हैं और अधिकांश अध्येता उन्हें सामाजिक लोकतंत्र का एक आधार स्तंभ कहते हैं।
सच यह है कि शाहू जी ने अपने राज्य में न्याय एवं समता की स्थापना के लिए जो कदम उठाए, उसमें बहुत सारे कदम ऐसे हैं जिन्हें उठाने में आजाद भारत की सरकार को दशकों लग गए और कुछ कदम तो ऐसे हैं, जिन्हें आज तक भी भारत की कोई सरकार उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई है।
उसका एक उदाहरण है, 20 सितंबर 1917 को सभी धर्म स्थलों को राज्य के नियंत्रण में लेने का आदेश जारी करना । न केवल सार्वजनिक धर्म स्थलों, बल्कि उन धर्म स्थलों को भी राज्य के नियंत्रण में ले लिया गया, जिन्हें की राज्य की ओर से किसी तरह की आर्थिक सहायता मिलती हो। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने शीर्षस्थ धार्मिक पदों पर पिछड़े वर्ग के लोगों की नियुक्ति कर दी।
जिस बंधुआ मजदूरी प्रथा को पूरे भारत के स्तर पर भारत सरकार 1975 में जाकर कर खत्म कर पाई, उस प्रथा को 3 मई 1920 के एक आदेश से शाहू जी ने खत्म कर दिया। इसके पहले उन्होंने 1919 में महारों से दास श्रमिक के रूप में काम कराने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने मनु संहिता की मूल आत्मा को उलटते हुए अन्तरजातीय विवाह की अनुमति प्रदान करने के लिए भी कानून पारित कराया।
महिलाओं को समता का अधिकार दिलाने के लिए जो हिंदू कोड बिल डॉ. आंबेडकर ने प्रस्तुत किया था, उसका आधार शाहू जी ने 15 अप्रैल 1911को प्रस्तुत कर दिया था। इसमें उन्होंने विवाह, संपत्ति एवं दत्तक पुत्र-पुत्री के संदर्भ में महिलाओं को समता का अधिकार प्रदान करने की दिशा में ठोस कदम उठाए थे।
कोल्हापुर राज्य से अस्पृश्यता का नामो-निशान मिटाने का तो शाहू जी ने संकल्प ही ले लिया था। छुआ-छूत खत्म करने की अपनी कोशिशों के तहत 15 जनवरी 1919 को उन्होंने आदेश जारी किया कि यदि किसी भी सरकारी संस्थान में ‘अछूत’ कहे जाने वाले लोगों के साथ अस्पृश्यता और असमानता का व्यवहार किया है, और उनकी गरिमा को ठेस पहुंचाया जाता है, तो ऐसे अधिकारी-कर्मचारियों को छ: सप्ताह के अंदर इस्तीफा देना होगा।
इसी वर्ष उन्होंने आदेश जारी किया कि दलित वर्ग के लोगों का इलाज उसी तरह बराबरी एवं प्राथमिकता के आधार पर किया जाए, जिस तरह अन्य वर्गों का किया जाता है। उन्होंने दलित वर्ग के विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क हॉस्टल खोले और उनके लिए स्कॉलरशिप का इंतजाम किया।
30 सितंबर 1919 को शाहू जी ने सिर्फ दलित समुदाय के बच्चों के लिए खोले गए पृथक स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया और सभी स्कूलों को उनके प्रवेश के लिए खोल दिए गया। उन्होंने अपने आदेश में कहा कि सभी जातियों एवं सभी धर्मों के बच्चे एक साथ एक तरह के स्कूल में पढ़ेंगे। दलितों के सशक्तीकरण के कदम के रूप में उन्होंने गांव के अधिकारी के रूप में उनकी नियुक्त की।
अन्याय का शिकार लोगों के प्रति संवेदना और अन्याय को खत्म करने के साहस का एक बड़ा प्रमाण शाहू जी द्वारा 1918 में उठाए गए उस कदम में मिलता है, जिसके तहत उन्होंने ब्रिटिश शासन द्वारा अपराधी घोषित किए गए आदिवासियों को पुलिस थाने में उपस्थिति दर्ज कराने के नियम को रद्द कर दिया और उन्हें सामाजिक सम्मान दिलाने के लिए उनमें से कुछ को अपने सहायक के रूप में रख लिया।
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी. बी. सावंत शाहू जी को महान हद्य एवं व्यापक विजन वाले एक महान व्यक्तित्व के रूप में याद करते हुए कहते हैं कि वे एक असाधारण राजा थे और बुनियादी तौर पर सामान्य जन के साथ खड़े थे।
उनका यह भी कहना है कि उनके जीवन, चिंतन एवं कार्यों का सिर्फ एक लक्ष्य था, वह यह कि कैसे दबे-कुचले एवं उत्पीड़ित लोगों की जीवन- स्थितियों को बेहतर बनाया जाए। कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने शाहू जी को डॉक्टर ऑफ लॉ (एलएलडी) की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
प्लेटो की रिपब्लिक के आदर्श राजा की परिकल्पना को साकार करने वाले शाहू जी का जन्म 26 जून 1874 को हुआ था। 20 वर्ष की उम्र में वे राजा बने। 28 वर्षों तक उन्होंने कोल्हापुर में न्याय एवं समता की स्थापना के लिए संघर्ष करते हुए शासन किया। 48 वर्ष की उम्र में 6 मई 1922 को यह क्रांति ज्योति बुझ गई।
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