स्वदेशी मेला में हिमानी वासनिक ने दी ‘भरथरी गायन’ की यादगार प्रस्तुति

भरथरी पर प्रख्यात इतिहासकार डॉ. राजेन्द्र प्रसाद क्या कहते हैं?

सुशान्त कुमार

 

हिमानी भरथरी की शिक्षा भरथरी की अंतरराष्ट्रीय कलाकार रेखा जलक्षत्रिय से ले रही है और प्रदेश की लुप्त होती सांस्कृतिक विधा को बचाए रखने लगातार गा रही हैं। बहुमुखी प्रतिभा की धनी हिमानी वासनिक ने इस अवसर पर शानदार प्रस्तुति देते हुए विभिन्न तबकों के दर्शकों को बांधे रखी।

वह कई प्रसंगों के माध्यम से हमें भरथरी गायन से अभिभूत किया है। बताते चले कि वह अपनी माता और पिता कविता विवेक वासनिक द्वारा संचालित ‘अनुराग धारा’ कार्यक्रम में भी बेहतरीन छत्तीसगढ़ी लोक गायिका के रूप में विख्यात हैं। 

हिमानी की प्रस्तुति में हारमोनियम पर मोहित चंद्राकर, बैंजो पर हर्ष मेश्राम, तबला पर चंद्रकांत निर्मलकर, ढोलक पर हरीश पंड्या तथा रागी राकेश सिन्हा गायिका गीतिका डोंगरे का योगदान रहा।

छत्तीसगढ़ में इसकी प्रस्तुति में माहरत किसे?

छत्तीसगढ़ में ढोला मारू, चंदैनी, आल्हा उदल, पंथी गायन के बाद भरथरी गायन शैली की अपनी अलग पहचान हैं। इस विधा में रेखा जलक्षत्रिय, सुरूज बाई खांडे, अमृता बारले, हेमलता पटेल, किरण शर्मा जैसे ख्यातिनाम शख्सियतों का नाम प्रचलित हैं। छत्तीसगढ़ में भरथरी गायिका सुरूज बाई के नाम पर ‘सुरूज सम्मान’ से विभिन्न क्षेत्रों में अपना योगदान दे रहे लोगों को सम्मानित किया जाता हैं।

कौन थे भरथरी?

इतिहासकारों के अनुसार राजा भर्तहरि या भर्तृहरि संस्कृत के विद्वान कवि और नीतिकार थे। वे सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। कुछ लोग इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का बड़ा भाई मानते हैं। कहते हैं कि वे एक घटना के बाद गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर योग साधना करके योगी बन गए थे। संन्यास धारण करके के बाद जनमानस में वे बाबा ‘भरथरी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे।

भर्तहरि की शतकत्रय की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस में रचीबसी हुई हैं। इस नाम से तीन शतक हैं-  नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक। कहते हैं कि प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। ऐसा भी कहते हैं कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के भी यही प्रवर्तक थे।

इतिहासकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह क्या कहते हैं?

इतिहासकार और भाषाविद् डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार भरथरी का विकास भर थारू से ही हुआ है, वही भरथरी जो नाथ पंथी थे और गोरखनाथ के शिष्य थे, ये परवर्ती बौद्धों की परंपरा थी।

राजा सुहेलदेव और सालार मसूद की प्रारंभिक जानकारी अमीर खुसरो की पुस्तक ‘एजाज - ए - खुसरवी’ (14 वीं सदी) और अब्द - उर - रहमान की पुस्तक ‘मिरात - ए - मसूदी’ (17 वीं सदी) से मिलती हैं।

राजा सुहेलदेव की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने गजनवी कमांडर सालार मसूद को मौत के घाट उतार दिए थे तथा फौज को नेस्तनाबूद कर दिए थे। राजा सुहेलदेव के समुदाय के बारे में जो प्राचीन और प्रामाणिक जानकारी मिलती है, उसके अनुसार वे भर थारू थे, यह प्रमाण ‘मिरात - ए - मसूदी’ से मिलता है।

भर थारू मूल रूप से भरों की शाखा है और ये भर लोग पहले से ही बौद्ध थे, जैसा कि हम लोग भरहुत में ‘भर’ का योग देखते हैं। थारू भी स्थविर का संक्षिप्त रूप है, जो बौद्धों से जुड़ा हैं। राजा सुहेलदेव 11वीं सदी में श्रावस्ती के राजा थे, तब श्रावस्ती बौद्ध केंद्र था। 12वीं सदी में श्रावस्ती बौद्ध भिक्खुओं से भरा था, इसका प्रमाण गहड़वाल नरेश गोविंदचद्र के श्रावस्ती ताम्रपत्र से मिलता हैं।

संवत 1186 में श्रावस्ती स्थित जेतवन के भिक्खु संघ को राजा गोविंदचद्र ने 6 गांवों की आय दान में दिए थे। श्रावस्ती 12वीं सदी में भी बौद्ध भिक्खुओं से गुलजार था और राजा सुहेलदेव (भर थारू) इसी श्रावस्ती के 11वीं सदी में राजा थे।

जुबानी स्मृतियों में- (बृजभार)  और भरथरी (भर थरी) दोनों जुबानी स्मृतियों के नायक हैं। दोनों गोरखनाथ के शिष्य हैं। दोनों नाथपंथी योगी बनते हैं। दोनों भर समुदाय के हैं। (बृजभार में घूंघट काढ़े  ‘भर’ छिपा है, जैसे लखनऊ में ‘ऊर’ छिपा है।)

इस गरिमामयी कायक्रम में पूर्व सांसद अशोक शर्मा, कोमल सिंह राजपूत (बीजेपी जिला अध्यक्ष), शुभरत चाकी (स्वदेशी मेला प्रबंधक), अशोक चौधरी, विनोद डढ्ढा एवं शहर के अन्य वरिष्ठ जन उपस्थित थे।


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