बहुजन आंदोलन की बुनियादी कमजोरियां

कुछ मित्रों के सवाल का जवाब

सिद्धार्थ रामू

 

अपने लिए इन 20 प्रतिशत लोगों से हर स्तर हिस्सेदारी-भागीदारी के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। जैसे 20 प्रतिशत लोग देश के मालिक हों और बहुजन समाज अपने मालिकों से अपने हक लिए के लिए संघर्ष कर रहा हो। भारतीय संविधान के पूरी तरह लागू हुए भी करीब 75 वर्ष पूरे हो गएं हैं। जिसमें हर व्यक्ति के वोट का समान मूल्य माना गया है।

बहुजन आंदोलन कुछ बुनियादी कमजोरियों का शिकार हो गया है। जो निम्नवत हैं-

1- आदिवासियों का इस आंदोलन से बाहर होना-

भले ही बहुजन आंदोलन आदिवासियों को बहुजनों का हिस्सा मानता हो और यह बार-बार कहता हो कि आदिवासी इस आंदोलन का हिस्सा हैं, लेकिन सच यह है कि बहुजन आंदोलन आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं, उनके एजेंडों और उनके संघर्ष से कोई खास वास्ता नहीं रखता है। इस आंदोलन ने आदिवासियों को उनके हाल पर पूरी तरह छोड़ दिया है। आदिवासी अपने दम पर अपने संघर्ष चला रहे हैं, उन्हें बहुजन आंदोलन से कोई खास मदद या साथ नहीं मिल रहा है। इसके चलते आदिवासी इस आंदोलन का व्यवहार में हिस्सा अभी तक नहीं बन पाए हैं और न उन्हें इस आदोलन का हिस्सा बनाने के लिए को विशेष कोशिश हो रही है। न ही इसके लिए कोई विचार और ठोस कार्यक्रम आंदोलन के पास है।

2- बहुजनों के करीब 70 प्रतिशत से अधिक मेहनतकशों की बुनियादी समस्या इस आंदोलन की एजेंडे में नहीं है-

बहुजन आंदोलन बहुजनों के 70 प्रतिशत मेहनतकश गरीब लोगों के बुनियादी मुद्दों से कोई खास वास्ता नहीं रखता है। ये 70 प्रतिशत लोगों की सबसे बुनियादी समस्या जिंदा रहने की समस्या है, रोजी-रोटी, घर-दुवार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समस्या है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि ये सामाजिक अपमान और दोयम दर्जे का व्यवहार भी सहते हैं, लेकिन इनकी पहली समस्या जिंदा रहने की, बच्चों और परिवार को पालने की समस्या है। बहुजन आंदोलन इनकी बुनियादी आर्थिक समस्याओं को अपने सरोकार और चिंता का विषय नहीं बना सका है।

3- पसमांदा समूह को यह आंदोलन अपना हिस्सा नहीं बना पाया-

मुसलमानों का बड़ा हिस्सा पसमांदा है। करीब 85 प्रतिशत से अधिक। यह दलित और पिछड़े हैं। बहुजन आंदोलन इन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक ( मुसलमान) के रूप में देखता है। जिसमें मुसलमानों के बीच के ऊंची जातियां भी शामिल हैं, बल्कि आंदोलन में मुस्लिम के रूप में वही प्रतिनिधित्व करती हैं। मुसलमानों का बहुसंख्यक हिस्सा पसमांदा का है। बहुजन आंदोलन इनको अपने साथ कर पाने में पूरी तरह असफल है। उसके पास इनको अपने साथ लेने यानि सच्चे अर्थों में बहुजन आंदोलन का हिस्सा बनाने का कोई विचार, कार्यक्रम और एजेंडा नहीं है।

4- अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) में अति पिछड़े वर्ग का खुद को अलग-थलग पाना-

भले आंकड़ों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) देश की आबादी में करीब 50 प्रतिशत से अधिक है, लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा अति पिछड़ा वर्ग ( करीब 35 से 40 प्रतिशत) है। यह वर्ग छोटी-छोटी जातियों में विभाजित है। यह वर्ग खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग और बहुजन आंदोलन से नजदीकी जुड़ाव नहीं महसूस करता है, क्योंकि इसकी बुनियादी समस्याओं और एजेंडे बहुजन आंदोलन अपने में समाहित नहीं कर पाया है। यहां तक कि ये लोग खुद को प्रतिनिधित्वहीन भी महसूस करते हैं।

5- दलितों में वाल्मीकि, मुसहर और अन्य प्रदेशों अन्य जातियों अन्य दलितों की तुलना में खुद को अलग-थलग पाना-

बहुजन आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा दलित हैं, लेकिन दलितों में साफ तौर पर अलग-अलग प्रदेशों में दो तरह के समूह दिखाई देते हैं। वे दलित जातियां जो सापेक्षिक तौर पर मजबूत और ताकतवर हैं। दूसरी तरफ वे जातियां जो अपने कमजोर और प्रतिनिधित्व हीन महसूस करती हैं। जैसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटवों की तुलना में वाल्मीकि। यही स्थिति हरियाणा में है। बिहार दुसाधों-पासियों की तुलना में मुसहर खुद को कमजोर और प्रतिनिधित्वहीन महसूस करते हैं और दलितों से अलग-थलग हो जाते हैं।

6- तमिलनाडु को यदि छोड़ दिया जाए, तो बहुजन आंदोलन बहुजन आंदोलन की जगह जातियों की गठजोड़ का आंदोलन बन कर रह गया है-

बहुजन आंदोलन में बहुजन होने के विचार- भावना और एजेंडें की जातिवादी विचार-भावना और एजेंडा हावी हो चुका है। बहुजन प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी की जगह जातियों का प्रभुत्व और हिस्सेदारी का विचार और भाव मजबूत हो रहा है। इसका दोष अलग-अलग जातियों पर सिर्फ मढ़ा नहीं जा सकता है। बहुजन आंदोलन के अगुवा अलग-अलग जातियों को यह असहसा नहीं दिला पा रहे हैं कि हम सभी बहुजनों के प्रतिनिधि हैं, किसी जाति विशेष के नहीं। यह अहसास कहकर नहीं दिलाया जा सकता है, इस व्यवहार से साबित किया जा सकता है।

इसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति बहुजनों की कही जाने वाली पार्टियों में दिखाई देता है। ज्यादात्तर पार्टियां कुछ जाति विशेष, अब तो परिवार विशेष की पार्टियां बन गई हैं। जो व्यापक बहुजन आदोलन को भीतर से खोखला कर रही हैं।

7- बहुजन आंदोलन के ठोस एजेंडे, बहुजनों के मध्यवर्ग की बहुत छोड़े से हिस्से के एजेंडे बन गए हैं-

बहुजन आंदोलन सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में भले ही सभी बहुजनों की बाते करता है, लेकिन जहां जिंदगी से जुड़े ठोस मुद्दों ( रोजी-रोटी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य नागरिक सुविधाएं) का सवाल आता है, बहुजन आंदोलन बहुजनों के सापेक्षिक तौर पर शिक्षित और आर्थिक तौर पर थोड़े सम्पन्न हिस्से के मुद्दों तक खुद को सीमित कर लिया है, ले-देकर सारी बातें आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक सीमित हो जाती हैं। बहुजनों का व्यापक हिस्सा ( खासकर बहुसंख्यक मेहनतकश-गरीब) खुद को इन दोनों चीजों से जुड़ा तो पाता है, लेकिन उसे अपनी ठोस समस्याओं का इसमें को समाधान नहीं दिखता है।

8- महिलाओं का सवाल बहुजन आदोलन से करीब-करीब गायब है-

बहुजन आंदोलन फुले, पेरियार और आंबेडकर से लेकर बाद एक साथ वर्ण-जाति के विनाश के साथ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के विनाश को भी अपना एजेंडा एक साथ बना हुए था। यह चीज हिंदी पट्टी में पेरियार ललई सिंह यादव, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, जगदेव बाबू, रामस्वरूप वर्मा आदि में भी दिखती है, लेकिन उसके बाद के बहुजन आंदोलन के एजेंडे से पितृसत्ता के विनाश और उस पर आधारित भेदभाव के खात्में के कार्यक्रम से मुंह मोड लिया है। आधी आबादी का सवाल उसके लिए लगता है कि महत्वपूर्ण सवाल नहीं रह गया है। ऐसे लगता है कि जैसे बहुजन आंदोलन का मतलब मर्दों का आंदोलन हो।

9- भारत की सत्ता पर दावेदारी और नए भारत के निर्माण के मुकम्मल स्वप्न का गायब होना-

बहुजन आंदोलन के सभी विचारकों-चिंतकों ( फुले, आंबेडकर, पेरियार) ने पूरे भारत को बुनियादी तौर पर बदलने और नए भारत के निर्माण का खाका प्रस्तुत किया था। जिसमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक सभी स्तरों पर नव निर्माण का स्वप्न और ठोस योजना थी। बहुजन आंदोलन का बड़ा हिस्सा अब खुद को कुछ मांगो तक सीमित कर लिया है। द्विज-सवर्ण मर्दों के वर्चस्व को खत्म करके समतामूल, न्यायपूर्ण और सबकी समृद्धि पर आधारित आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का निर्माण का बहुजन आंदोलन का स्वप्न धुंधला पड़ रहा है। सिर्फ कुछ एक मांगो तक यह सीमित होता दिख रहा है।

यह कुछ मोटी-मोटी संक्षेप में बिंदुवार बातें हैं, जिसने 80 प्रतिशत लोगों के बहुजन आंदोलन को बहुत कमजोर, अप्रभावी और सीमित बना दिया है, जिसके चलते 20 प्रतिशत लोगों की सत्ता और ताकत मजबूत होती जा रही है। जिनका प्रतिनिधित्व आरएसएस -भाजपा जैसे संगठन करते हैं। इन कमजोरियों को दूर किए बिना बहुजन आंदोलन एक प्रभावी और निर्णायक आंदोलन नहीं बन सकता, जो नए समतामूल, न्यायपूर्ण, सबकी समृद्धि पर आधारित लोकतांत्रिक भारत का निर्माण कर सके और वर्चस्व और अधीनता के सभी रिश्तों का खात्मा किया जा सके।


तमिलनाडु नें बहुजन आंदोलन और बहुजन राजनीति का एक मॉडल खड़ा किया है, जिससे देश के शेष हिस्से का बहुजन आंदोलन बहुत कुछ सीख सकता है और कमजोरियों को दूर कर सकता है। हालांकि उसके भी अपने कुछ कमजोरियां हैं, लेकिन भी वह एक बेहतर मॉडल है, एक समग्र मॉडल प्रस्तुत करता है।


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