महाकुंभ 2025 के मौनी अमावस्या के दिन हादसे का जिम्मेदार क्या मीडिया नहीं?
ज़मीनी हकीक़त से दूर तमाशों में ही ढूँढता रहा टी आर पी का अमृत तत्व
अजय सिंहबदइंतजामी, लापरवाही और बदहाली की त्रिवेणी में 30 से ज़्यादा लाचार, बेबस, आस्थावान श्रद्धालुओं को मौत के संगम में ढकेलने की जिम्मेदारी किसकी है? यह एक बड़ा सवाल है जिसमें लोग अपने-अपने तर्क दे रहे हैं और ज्यादातर लोग इसमें शासन प्रशासन को दोषी ठहरा रहे हैं। वह गलत भी नहीं है, सही कह रहे हैं जब इतने बड़े आयोजन की सफलता का श्रेय शासन प्रशासन ले रहा है तो अगर कोई दुर्घटना होती है तो उसका भी दोष भी उन्ही के मथ्थे मढ़ा जायेगा।
लेकिन ईमानदारी से देखिए तो क्या सिर्फ उन्हीं का दोष है। उनका दोष नहीं जो खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहते नहीं थकता और जिसके कंधे पर इस तरह के आयोजन की खामियों, कमियों से शासन प्रशासन को सचेत करने की जिम्मेदारी है, मीडिया जनता का वो सजग प्रहरी है जो सरकार से सवाल पूछता है उसे जिम्मेदार बनाता है। क्या इस महाकुम्भ पहुंचा मीडिया अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह करता नज़र आया अगर नहीं तो क्या इस हादसे के ये मीडिया दोषी नहीं है?
मैं एक पत्रकार हूं और मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन काल में दो पूर्ण कुंभ और दो अर्ध कुंभ की कवरेज की है। इस कुंभ में मैं तटस्थ भाव से मीडिया का कवरेज देख रहा था और अपने अनुभवों की कसौटी पर उसे कस रहा था तो इस हादसे की एक बड़ी जिम्मेदार मीडिया नजर आई। क्योंकि मेले के शुरू होने के 2 महीने पहले से ही इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के पत्रकार सरकार और उसके कर्मचारियों से चार हाथ आगे मेले की व्यवस्था और उसकी दिव्यता भव्यता का बखान करते नहीं थक रहे थे।
25 सेक्टर में बसे इस मेले में गंगा पर 30 पांटून के पुल बनाए गए हैं पर मीडिया ने इस आयोजन मैं सरकार को खुश करने और एक दूसरे से इस प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ जाने के लिए अपनी रिपोर्ट के जरिए झूठ के ऐसे सैकड़ों पुल बनाये जिस पर विशवास कर भोली भाली आस्थावान जनता खींची चली आई और जब यहाँ वो इस भव्य और दिव्य कुम्भ के इंतजाम के हकीकत से रूबरू हुई तो हजारों लोग बदहाली, बदइंतजामी और हादसों की सड़कों पर चलने पर मजबूर हुवे।
मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ इस हादसे के लिये मीडिया को जिम्मेदार क्यों कह रहा हूं क्योंकि मीडिया को अपने टीआरपी का अमृत तत्व सिर्फ चार लोगों के कवरेज में नज़र आया जिनमे आईआईटी वाले बाबा, माला बेचने वाली लड़की, मॉडल हर्षा रिछारिय और एक्ट्रेस ममता कुलकर्णी रही।
अब तक के सबसे ज़्यादा दूरी में बसाये गये 25 सेक्टर में मेले में संगम नोज और उसके इर्द गिर्द के तकरीबन चार पांच सेक्टर को छोड़ कर बाकी सेक्टर में मीडिया की नज़र नही घूमी कि वहां किस तरह की बदइंतजामी और बदहाली कल्पवासी झेल रहे हैं। कुम्भ का ये मेला कल्पवासियों का होता है। जिसे सदियों से पंडों की संस्था प्रयागवाल लगाती आ रही है। कल्पवासी पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक एक महीना गंगा यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी के संगम में साधु संतों के प्रवचन, रास लीला, राम लीला और प्रभु भजन में सांसारिक मोह माया दूर वास करते हैं ।
पहली बार ऐसा हुआ की बहुत से कल्पवासी जो संस्थाओं के जरिए इस मेले में आते हैं पौष पूर्णिमा तक उनके टेंट ही नहीं लगे । इस बार पौष पूर्णिमा और मकर संक्रांति लगातर पड़ी लिहाजा बहुत से कल्पवासियों को इन दो स्नानो के बाद मेले में बड़ी मशक्कत के बाद रहने की व्यवस्था मिल पाई। इन सेक्टरों में जरूरी चीज भी मुहैया नहीं हो पाई थी, जैसे पानी का नल शौचालय आदि। कल्पवासी अपनी इन दुर्व्यवस्था के लिए पुकार करते रहे लेकिन कोई मीडिया उनकी तरफ नहीं आया और ना ही उसने मेला के किसी भी खामी की रिपोर्ट की।
मेला क्षेत्र में जानकारी से भरे हुए साइन बोर्ड की भी कमी नजर आई जिस पर भी किसी मीडिया ने कोई रिपोर्ट नहीं की। मेले में आने वाली जनता ज्यादातर गांव की होती है और भोली भाली अनपढ़ जनता के लिए मेले में पहले प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल होता था , पंडों के झंडे भी प्रतीक चिन्ह के होते हैं। इन्हीं प्रतीक चिन्हों को देख और सुनकर यात्री अपने मुकाम तक पहुंच जाते थे या उस रास्ते पर चले जाते थे। इस तरह की व्यवस्था नदारद थी।
पहली बार मीडिया क्या दिखायेगा क्या नही दिखायेगा इसकी भी गाईड लाइन जारी कर दी गई थी। साफ़ है कि सरकार के जरिये रिपोर्टिंग के लिए खींची गई इस लक्ष्मण रेखा को लांघकर बाहर जाने की किसी मीडिया संस्थान में कूबत ही नहीं थी तो फिर ग्राउंड जीरो के पत्रकार अपनी खोजी रिपोर्ट की ताकत कहाँ से दिखाते। उन्होंने अपनी ख़बरों को कुम्भ की जमीनी हक़ीक़त से दूर ग्लैमर और तमाशों की तरफ मोड़ दिया उनके साथ शासन प्रसाशन किलोलें मारने लगा।
बड़े बड़े कारपोरेट घराने , वीआईपी , वीवीआईपी , मंत्रियों और ब्यूरोक्रेट के चकाचौंध से मेला ऐसा जगमगाने लगा कि तमाम व्यवस्था और व्यवस्थापक आम जनता की जरूरी सुविधा से आँखे मूँद ली जिसके परिणाम में हादसे की वजह से कइयों की आँखे हमेशा के लिए बंद हो गई।
इस कुम्भ में 144 साल के शुभमहूर्त की भी खूब कहानियाँ गढ़ी गई। कहा गया कि इस मुहूर्त का अमृत 144 साल बाद ही मिलेगा। मिडिया ने इसे भी अपने अपने तरीके से खूब प्रचारित किया। किसी मीडिया ने ये नहीं बताया कि ऐसा नहीं है कि इससे पहले या इससे बाद में लगने वाले किसी कुम्भ में लोगों को ये पुण्य नहीं मिला था। कुम्भ,अर्ध कुम्भ यहां तक कि हर साल लगने वाले माघ मेले में भी ये पुण्य और ये अमृत सदियों से मिलते आ रहे हैं। कुम्भ के इस अमृततत्व का वर्णन और इस क्षेत्र की महत्ता राजा हर्षवर्धन और व्हेनसांग के वर्णन से पता चलता है।
20 वीं सदी में कुंभ का जीवंत चित्रण कवि कैलाश गौतम के अमावस्या के मेले कविता में नज़र आती है। और अब बात 21 वीं सदी के पहले कुम्भ की जिसमे आज के दिव्य और भव्य कुम्भ की नींव डाली थी। 2001 जनवरी को 21वीं सदी का पहला कुंभ था लिहाजा इसे यादगार बनाने के लिये तत्कालीन सरकार ने अपने खजाने खोल दिये थे ,पहली बार संगम नोज तक पक्की सड़क बनाई गई थी।
इस सड़क को बनाने पर उस वक्त मीडिया ने बड़ी आलोचना की थी कि बाढ़ में सड़क बह जायेगी सरकार बेवजह पैसा पानी में बहा रही है पर तत्कालीन प्रसाशन ने मीडिया का मुँह बंद नहीं किया बल्कि इस आलोचना को अपनी चुनौती में बदला और ऐसी सड़क बनाई कि आज भी संगम नोज तक पक्की सडकों का जाल बिछ गया। आज जो एलईडी लाइट और बिजली की चकाचौंध आज मेले में दिखती है वो भी उस वक्त पहली बार हुवा था, मेले के विस्तार का जो स्वरूप आज आप देख रहे हैं वो उसी वक्त का है जब मेला झूँसी के बदरासुनौटी ,दारागंज के आगे बघाड़ा और अरैल तक मेले का विस्तार हुवा था।
सदी का पहला कुम्भ होने की वजह से भीड़ ऐसी ही आई थी और मीडिया का जमावड़ा भी ऐसा था। मै सन 1999 में इलाहाबाद में एक लोकल चैनल इलाहाबाद टेलीविजन से अपनी इलेक्ट्रानिक मीडिया की पत्रकारिता शुरू किया था। इस चैनल की शुरुआत मैं और मेरे एक सहयोगी सचिन गुप्ता ने की थी। इसी लोकल चैनल के जरिये 21 वीं सदी पहला कुम्भ कवर करने का अवसर मिला, उस वक़्त इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने उद्भव काल मे थी लिहाजा आज जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रेस का कैम्प कवरेज की व्यवस्था देख रहे हैं वह उसी कुंभ के शुरुआत की देन है।
इस कुंभ का पहला 24 घंटे लाइव कवरेज करने का लोकल चैनल के रूप में अनुमति मिलने का मौक़ा भी मेरे लोकल चैनल इलाहाबाद टेलीविजन को मिली थी। जिसे तत्कालीन मेला कमिश्नर सदाकांत शुक्ला जी ने प्रदान किया था। हम लोग बहुत उत्साहित होकर मेले के अलग पहलुओं को दिखा रहे थे। मेला कमिश्नर सदाकांत शुक्ला हर चीज पर नजर रखे हुवे थे नया नया प्रयोग हो रहा था और उस पर चर्चा भी होती थी जिसमे आलोचना और कमियों के बारे में जाना और बताया जाता था। इसी एक बैठक में सदाकांत जी ने कहा था कि मेला में जो भी गड़बड़ी है उसे जरूर बताते और उजागर करते रहिएगा जिससे कि उसे ठीक किया जा सके ।
मीडिया, प्रशासन, अखाड़े, साधू संतों, प्रयागवाल सभा और स्थानीय स्वयं सेवी संस्थाओं के लोगों की हर दिन बैठक होती थी एक दूसरे की बात सुनी जाती थी और उचित कमियों को दूर किया जाता था। वीआईपी , वीवीआईपी कल्चर से दूर कुम्भ के माहत्म, कल्पवास के विभिन्न पहलुओं को सहेजती खबरें, प्रमुख स्नान के पुण्य लाभ बीच ये एहसास होता था कि त्रिवेणी किनारे रेत के मैदान में धर्म की बुनियाद पर रंग बिरंगे तम्बुओं से घिरी आस्था की वो नगरी बसती है जहां आस्थावान जनता ही सबसे बड़ी वीआईपी है जिसके लिये सरकार पूरे तन मन धन से सेवा में लगती है। क्या इस कुम्भ में ऐसा था , क्या मीडिया ने इस पहलू से इस कुम्भ को देखा ये एक बड़ा सवाल है इसे आप भी ढूँढ़िये।
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