कोचिंग इंडस्ट्री की दीवारों पर लिखे टॉपर्स के नामों के पीछे छिपा है हजारों-लाखों बच्चों का दर्द

मां-बाप की अधूरी इच्छाएं बच्चों की जिंदगियों में जबरन फिट कर दी जाती हैं

मनोज अभिज्ञान

 

लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि इन महलों के नीचे कुचले हुए सपनों और टूटे हुए विश्वासों की परतें बिछी हैं? यह व्यवस्था मिथक बेचती है। सपना, जो सुनने में सुनहरा लगता है लेकिन हकीकत में ऐसा जाल है जिसमें मासूम बच्चों की इच्छाएं, उनकी सोच, और उनकी जिन्दगी उलझकर रह जाती है।

कोचिंग इंडस्ट्री की दीवारों पर लिखे टॉपर्स के नामों के पीछे छिपा है हजारों-लाखों बच्चों का दर्द, जिनका कोई नाम तक नहीं लिया जाता। वे बच्चे, जो अपनी कक्षाओं में पीछे बैठते हैं, जो हर दिन इस झूठे वादे को लेकर जीते हैं कि 'अगली बार' उनकी बारी आएगी।

हम यह क्यों नहीं पूछते कि जिन बच्चों के बोर्ड में न्यूनतम अंक तक नहीं आते, उनके लिए यह उद्योग क्यों बना है? क्यों उनका आत्मविश्वास तोड़कर उन्हें उसी दौड़ में धकेला जाता है, जिसमें दौड़ने की क्षमता सिर्फ कुछ गिने-चुने लोगों के पास है? क्यों हर बच्चा, चाहे उसकी क्षमताएं कुछ भी हों, को इस इंडस्ट्री का ग्राहक बनने पर मजबूर किया जाता है?

यहां कोई काउंसलिंग नहीं है। यहां सिर्फ 'टारगेट' हैं। यह ऐसी फैक्ट्री है, जहां बच्चों को किसी मशीन की तरह ट्रीट किया जाता है। उनके मनोविज्ञान, उनकी इच्छाओं, उनकी क्षमताओं की परवाह किए बिना, उन्हें सिर्फ 'सक्सेस' के प्रोडक्ट में ढालने की कोशिश होती है। लेकिन क्या कभी किसी ने देखा है कि इस 'सक्सेस' की कीमत क्या होती है?

जब एक बच्चा इस व्यवस्था में सफल नहीं हो पाता, तो वह खुद को दोषी मानता है। उसे लगता है कि शायद उसमें ही कमी है। यह अपराधबोध उसे अंदर से खा जाता है। और जब यह अपराधबोध उसकी हदें पार कर जाता है, तो वह वह कदम उठा लेता है, जिससे पूरा समाज सिहर उठता है। लेकिन क्या यह समाज सच में सिहरता है, या सिर्फ दो मिनट की संवेदनाओं के बाद वापस उसी चक्रव्यूह में लौट आता है?

बच्चों, और पैरेंट्स को भी, यह समझाने की जरूरत है कि सफलता का मतलब सिर्फ नंबर और रैंक नहीं है। हर बच्चा खास है, लेकिन हर बच्चे की खासियत एक सी नहीं होती। इस सच्चाई को स्वीकार करने के बजाय हम उन्हें एक ही खांचे में ढालने की कोशिश करते हैं।

इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। हमें यह समझना होगा कि शिक्षा का मतलब सिर्फ प्रतिस्पर्धा नहीं है, बल्कि बच्चों को जीवन का सही मार्ग दिखाना है। अगर हम अब भी नहीं जागे, तो शायद हमें और भी ऐसी खबरें पढ़नी पड़ेंगी। यह समय सिर्फ शोक मनाने का नहीं, बल्कि नई शुरुआत करने का है। ऐसी शुरुआत, जहां बच्चों को इंसान समझा जाए, ग्राहक नहीं।

मां-बाप की अधूरी इच्छाएं बच्चों की जिंदगियों में जबरन फिट कर दी जाती हैं। जो खुद जीवन में कुछ नहीं कर पाए, उन्हें अपने बच्चों के माध्यम से जीत का स्वाद चखने की चाह होती है। बेटा डॉक्टर बने, बेटी ‘अच्छी बहू’ बने—इससे कम किसी चीज को वो मंजूर नहीं कर सकते। लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि बेटा क्या चाहता है? बेटी के अपने सपने क्या हैं?

बचपन कहां बचता है, जब हर कदम पर मां-बाप का डर और उनकी इच्छाओं का दबाव हो? बचपन तो वहीं खत्म हो जाता है, जब बच्चे को बताया जाता है कि तुम्हारा जीवन तुम्हारा नहीं, बल्कि हमारी उम्मीदों का गुलाम है। संस्कार के नाम पर इस गुलामी को आदर्श बना दिया गया है।

जो बेटा अपने माता-पिता के सपनों को पूरा न कर सके, उसे नालायक कह दिया जाता है। जो बेटी अपनी इच्छाओं को जीने की कोशिश करे, उसे संस्कारहीन कहा जाता है। मां-बाप के ये अरमान एक तरह का अघोषित युद्ध है, जिसमें बच्चे अपने खुद के सपनों की बलि चढ़ा देते हैं। इसे पीढ़ियों का संघर्ष भी कह सकते हैं, लेकिन इसे समाज में बड़े गर्व से संस्कार कहा जाता है।

इसका सबसे कड़वा सच यह है कि ये बोझ मां-बाप भी उठाते हैं। वे अपने अधूरे सपनों को पूरा न कर पाने की हताशा में बच्चों को वही जकड़न सौंपते हैं, जिसमें वे खुद तड़पते रहे। यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है, जैसे कोई अनंत श्राप, जिसे हर पीढ़ी को विरासत में दिया जाता है।

अगर मां-बाप बच्चों को सच में प्यार करते हैं, तो उन्हें अपने अधूरे सपनों के पीछे नहीं भागना चाहिए। बच्चों को उनके अपने सपनों के पंख देने चाहिए। उन्हें स्वतंत्रता का वो स्वाद चखने देना चाहिए, जो शायद मां-बाप ने कभी नहीं चखा। यही असली संस्कार है। संस्कार गुलामी नहीं, बल्कि स्वतंत्रता है। अरमान तब तक खूबसूरत हैं, जब तक वे किसी पर लादे न जाएं। वरना यही अरमान किसी की जिंदगी का सबसे भयानक सपना बन जाते हैं।

लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं और दिल्ली में निवास करते हैं।


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