बुद्ध ने ‘अप्प दिपो भव’ कहा, उससे भी पहले पारी कुपार लिंगों ने तमवेरची आम्ट-रेक्वेरची कीम्ट कहा...
दोनों ही कार्यक्रमों में हजारों की संख्या में विभिन्न समाज के आदिवासी जुटे
सुशान्त कुमारढाई हजार साल पहले भगवान बुद्ध ने ‘अप्प दिपो भव’ कहा था, उससे पहले इसे पहांदी पारी कुपार लिंगों ने ‘तमवेरची आम्ट-रेक्वेरची कीम्ट!, सुयमोदी आमट-सुयमोद सिम्ट, सेवकाया आम्ट-सेवा किम्ट, सुयवन्के आम्ट-सुयवाणी वन्काट’ ऐसा उपदेश दिया है।

छत्तीसगढ़ में प्रथम शक्ति पीठ के संस्थापक और शंभू सेना प्रमुख रघुवीर सिंह मार्को उक्त वाक्य का उल्लेख 84 परगना छोटेडोंगर, नारायणपुर और कोया करसाड 2025 कटेकल्याण, दंतेवाड़ा, बस्तर में आयोजित आदिवासी वार्षिक उत्सव तथा कोया कुटमा सम्मेलनों में अभिव्यक्त कर रहे थे।
असल में मार्को पारी कुपार लिंगों के गोंडी दर्शन को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि गोंडी पुनेमी गण्डजीव आर्यों के गुलाम हो गए और मजबूरन आर्यधर्मियों के जीवन प्रणाली को स्वीकार कर लिया और आज भी स्वीकारते जा रहे हैं, किन्तु उसके जीवन प्रणाली ने उन्हें आज भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। इसी प्रक्रिया में कोयावंशीय गोंडी पुनेमी गण्डजीवों पर बुद्धधर्मियों और जैन धर्मियों का भी वर्चस्व रहा।
इतिहास में देखे तो एक जमाने में वर्तमान भारत का संपूर्ण उत्तर पूर्व और दक्षिण भाग बौद्धधर्मी महाप्रतापी राजा सम्राट अशोक के अधीन रहा। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि मध्य भारत के कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीवों के गोंडी पुनेमी मूल्यों पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। वे अपने स्वयं मूल्यों के अनुसार अपना जीवन बिताते रहे।
गोंडी मूल्यों और बुद्ध के विचारों में काफी समानता झलकती है। पारी कुपार लिंगों ने प्राकृतिक शक्ति परसापेन (बुढाल पेन, फाड़ापेन, सजोरपेन, सिंगाबोंगा पेन, भिलोटापेन) रूपी सल्लां गांगरा (ऋण-धन) शक्ति को माना है, तो बुद्ध ने भी प्राकृतिक शक्ति को ही सर्वोच्च शक्ति माना है।
भौतिक जगत की निर्मिति स्वयंसिद्ध है, किसी ईश्वर पर उसका अस्तित्व निर्भर नहीं है ऐसा पारी कुपार लिंगो का मत है, तो ठीक ऐसा ही बुद्ध का भी दर्शन है। पारी कुपार लिंगो ने गोंगोओं (देवी-देवताओं) की शक्ति को पूर्वजों के रूप में माना है, तो बुद्ध ने भी ठीक इसी तरह देवताओं के अस्तित्व को मान्य किया है।
परंतु उन्हें कोई कर्ता शक्ति या ईश्वर के रूप में नहीं माना है। इस मान्यता में मात्र फर्क यह है कि पारी कुपार लिंगों ने मृतक पूर्वजों को देवता (पेन) माना है, तो बुद्ध ने देवताओं का अस्तित्व मनुष्य लोक से भिन्न माना है।
पारी कुपार लिंगों ने जीवन जगत की सर्वोच्च शक्ति परसापेन रूप में सल्लां गांगरा (पिता-माता) शक्ति को माना है और अपने माता पिता की सेवा करने पर बल दिया है, तो बुद्ध का जीवन जगत का दर्शन भी कुछ इसी प्रकार का है। पारी कुपार लिंगो ने सगावेन गण्डजीवों की गोंदोला (सामुदायिक)व्यवस्था प्रस्थापित की है, तो बुद्ध ने संघ की व्यवस्था प्रस्थापित की है।
पारी कुपार लिंगो ने पेनकड़ा की स्थापना की है, तो बुद्ध ने भिक्खू संघ की स्थापना की है। पारी कुपार लिंगो ने सभी जीवों का कल्याण साध्य करने हेतु मुन्दमुन्शूल सर्री (त्रैगुण्य शूल मार्ग) प्रस्थापित की है, तो बुद्ध ने अष्टांग मार्ग प्रतिपादित किया है। पारी कुपार लिंगो ने सगा, गोटुल, मुठवा, पुनेम और पेनकड़ा यह पांच वंदनीय एवं पूजनीय तत्वों को मानने की बात कही है, तो बुद्ध ने धम्म, बुद्ध और संघ की शरण में जाने की बात कही है।
पारी कुपार लिंगो ने गण्डजीवों के दु:ख का कारण तमपेनी को माना है, तो बुद्ध ने आशक्ति को माना है। पारी कुपार लिंगों के गोंडी पुनेम का अंतिम लक्ष्य सगा जन कल्याण साध्य करना है, तो बुद्ध का अंतिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। पारी कुपार लिंगो का त्रिशुल मार्ग है, तो बुद्ध का त्रिशरण मार्ग है।
पारी कुपार लिंगों ने अपने शिष्यों को पांच कर्तव्य निर्देशित किए हैं, तो बुद्ध ने पंचशील मार्ग प्रतिपादित किया है। पारी कुपार लिंगों ने प्राकृतिक न्याय तत्व पर आधारित मुंजोक्क सिद्धांत बताया है, तो बुद्ध ने अहिंसा सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
पारी कुपार लिंगों ने जन्म-मृत्यु का कारण प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति परसापेन के पूना-ऊना सत्त्वों की पारस्पारिक क्रिया प्रक्रिया और पांच महत्व के शक्तियों के संयुक्तिकरण एवं विघटन को माना है, तो बुद्ध ने कार्यकारण सिद्धांत को माना है। इस तरह बहुत सारी मूल बातों में गोंडी पुनेम और बौद्ध धर्म के जीवन मार्ग में समानता होने की वजह से कोया वंशीय गोंड समुदाय के जीवन प्रणाली पर बुद्ध के विचारों का कोई विशेष प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ।
आदिवासी विद्वान मार्को का मानना है कि जल्द ही सामूहिक प्रयास से बाइसवीं अनूसूची में गोंडी भाषा दर्ज होगी। उन्होंने इन दोनों ही सम्मेलनों में गोंड़ी में ही गोंडी धर्म संस्कृति, शिक्षा एवं सुधार पर गीत कविता के माध्यम से व्याख्यान दिया। उनका वक्तव्य छोटेडोंगर के गोंडवाना समाज में सहमें लोगों के बीच उत्साह, उमंग एवं आशा की किरण जगाई।
18 से और 20 जनवरी तक आयोजित भव्य गोंडी धर्म सम्मेलन और कोया करसाड में हजारों की तादाद में आदिवासी शामिल हुए। इन कार्यक्रमों में धार्मिक, भाषायी, सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक और पत्रकारिता से जुड़े भाषाविद्, समाजसेवी, आदिवासी साहित्यकार तथा शोधाथी के अलावा हजारों की संख्या में जनसमूह उपस्थित थे।
यह अभूतपूर्व कार्यक्रम धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक एकजुटता की दृष्टिकोण से बहुत ही उपयोगी था, जिसमें भारत की सबसे प्राचीन जनजाति गोंड़, गोंड़ीय और गोंड़वाना पर वृहद चर्चा का आयोजन था।
इसके अलावा कार्यक्रम के विद्वान मुख्य अतिथि डॉ. केएम मैत्री, हम्पी विश्वविद्यालय कर्नाटक थे। जिन्होंने गोंडीय भाषा और गोंडीय शब्दकोश पर अपने विचार रखे व बताया कि कर्नाटक में भी ऐसे कई स्थानों का नाम गोंड़ शब्द से आते हैं पर उनका इतिहास किसी को भी ज्ञात नहीं हैं, वहां भी हलारपेन (भैंसासुर) पेन पुरखा के रूप में मौजूद हैं।
उन्होंने आदिवासी समाज के लिए पुरातात्विक, ऐतिहासिक और राजनीतिक अध्ययन के लिए वेदों से आगे की ओर जाकर मिलान और अध्ययन को जोर दिया। उन्होंने गोंडी लिपि को यूर्निवर्सल करने पर जोर दिया। उन्होंने तल्खी के साथ कहा कि सिर्फ पारी कुपार लिंगों या शंभू सेक ही नहीं अलग-अलग राज्यों में कई सारे पेन और देवताओं और पूर्व के विद्वानों को इतिहास के केन्द्र में लाने की जरूरत है।
प्रोफेसर मैत्री का कहना है कि आदिवासियों के ईस्टदेव को अब्ज़र्वर की तरह ठहर कर देखने की जरूरत है। खान पान, परिवेश, रहन-शहन, नाम, पानी, नदी, नाले, पर्वत, पहाड़, गुफा, कंदराओं में घूम घूमकर अपने जड़ तक पहुंचने की जरूरत है। मैत्री बलि प्रथा पर भी अपने अभिमत रखे।
उन्होंने कई गांवों के नामो में गोंडी कोया इतिहास से जुड़ा देखने को कहते हैं। उन्होंने जीवों से प्यार करना सीखने को कहा। उन्होंने तर्क दिया कि अबूझमाड़ में अबूझ का मतलब भूजंग नाग से तो नहीं हैं, अगर नहीं तो अबूझमाड़ एक अकेला स्थान का नाम कैसे हो सकता है दुनिया के इतिहास में सभी आदिवासी स्थानों को अबूझ ही बताया गया है।
उन्होंने बस्तर दशहरा को अपने मैसूर दशहरा से जोडऩे को कहा है। डॉक्टर मत्रीय अब भाषा, संस्कृति, इतिहास, मानवविज्ञान, पुरातत्व, दर्शन पर ठहर कर शोध करने पर बल दिया। वह इस कार्य में जुटे हुए हैं। वह प्रत्येक भाषा के दिवारों को गिराते हुए उसका समनार्थी अर्थों को शब्दकोश में जोडऩे पर बल दिया। उनका कहना था कि जिस प्रकार दक्षिण अफ्रीका से आदि मानव की उत्पत्ति हुई है उसी तरह भारत में मध्य भारत के नर्मदा नदी आदिवासी के उद्विकास के द्योतक हैं।
प्रोफेसर मैत्री ने पारी कुपार लिंगों के जन्म-मृत्यु का कारण प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति परसापेन के पूना-ऊना सत्त्वों की पारस्पारिक क्रिया प्रक्रिया और पांच महत्व के शक्तियों के संयुक्तिकरण एवं विघटन के आधार पर कहते हैं कि पूणे इसी पूना-ऊना से संबंध तो नहीं रखता है। उनका अध्ययन वास्तव में ज्ञान के वटवृक्ष की तरह हैं। हमें उनके ज्ञान के करीब पहुंचना ही होगा।
झारखंड से आई सामाजिक कार्यकर्ता बरखा लकड़ा ने वहां के जनआवाम में अपने उद्बबोधन से उद्वेलित कर दिया। उन्होंने बस्तर को विनाश करने में खदान, माइंस को माना। उन्होंने इसे विकास का अधूरा मॉडल कहा है।
उनका कहा था कि जल, जंगल और जमीन के मालिक हम हैं तो यहां दूसरों की क्या बिसात है। आदिवासियों की कला और संस्कृति को सर्वोच्च माना। उन्होंने जयपाल सिंह मुंडा का उल्लेख करते हुए कहा कि सिर्फ आदिवासियों से ही लोकतंत्र को समझा और जाना जा सकता है। आपको आदिवासियों से सिखना होगा। वही इस धरती के रक्षक भी हैं।
रायपुर के शासकीय नवीन महाविद्यालय, माना कैंप की सहायक प्राध्यापक पूणम साहू जो कि लंबे समय से जनजातीय क्षेत्रों पर गहनता से काम कर रही है उन्होंने छोटेडोंगर का ऐतिहासिक महत्व, नारायणपुर काकतीय राजवंश के बारे में बताते हुए कहा कि गोंडीय संस्कृति इतनी प्राचीन जिसका प्रमाण सिंधु घाटी की सभ्यता की अवशेष में भी प्राप्त होते हैं।
कोंडागांव से आयी आदिवासी प्रोफेसर, साहित्यकार और रचनाकार किरण नुरुटी ने जनजातीय देवी देवता और पूजा पद्धति का वैज्ञानिक आधार लेते हुए अपनी बात रखी।
हाल में नुरूटी की चर्चित पुस्तक ‘गोंडों की पेन व्यवस्था उत्तर बस्तर’ पाठकों के बीच आयी हुई है। जो एचएसआरए पब्लिकेशन से प्रकाशित है। जिसका सजिल्द मूल्य 800 रुपए हैं इसके अलावा उन्होंने ‘बस्तर के पेन परब देव पर्व’ पुस्तक की भी रचना की है। वह आदिवासियों पर समाजशास्त्रीय ढंग से अध्ययनरत हैं उनकी हाल ही में एक रचना 'गोंड आदिवासियों की तत्वदृष्टि, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में' लेख ‘ककसाड’ में प्रकाशित हैं।
इसके अलावा आदिवासी अधिकारों के लिए चर्चित शख्सियत अश्वनी कांगे ने पेसा कानून और नियम पर विस्तार से अपनी बातों को प्रश्रोत्तरी के रूप में रखा। उनका आशय था कि बस्तर में तमाम उभरते हुए समस्याओं का समाधान पेसा कानून तथा नियम में निहित ‘ग्राम सभा के शक्ति’ पर आसरित हैं। आप आदिवासियों के बीच कोया भूमकाल संगठन के प्रणेता भी हैं। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे वक्तओं और अतिथियों ने अपनी राय रखी।
इस वार्षिक कार्यक्रम में गोंड़ समुदाय के सभी गोत्र के देवी-देवताओं की पूजा की गई। आंगा देव का विशेष आकर्षण था। उन्हें आमंत्रित किया गया और दूसरे दिन बिदाई दी गयी। इस विशाल जनसमूह के बीच कार्यक्रम में जनजातीय नृत्य की धूम थी, मांदरी नृत्य, रीलोपाटा, गोंडीय नृत्य उपस्थित जनमानस के बीच ऊर्जा का संचार किया है।
इस अवसर पर देश के अलग-अलग हिस्सों से अब्ज़र्वर के रूप में शख्सियत उपस्थित थे। अब्ज़र्वर के रूप में ‘दक्षिण कोसल’ के सम्पादक सुशान्त कुमार, संयोजक के रूप में गोंडवाना स्वदेश के सम्पादक रमेश ठाकुर, मैसूर से शोधार्थी सहाना मैत्री, कोरबा से शम्भू सेना प्रमुख राकेश शांडिल्य उपस्थित थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में 84 परगना से भी शख्सियत उपस्थित थे।
बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं, महिला-पुरूष, आदिवासी, पत्रकार, भाषाविद्, कृषक वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता भी उपस्थित थे। कार्यक्रम में विशेष रूप से संयोजक की भूमिका में राकेश कुमार उसेंडी, डॉ. ज्योति दुग्गा शामिल थीं। इसके अलावा आदिवासी तथा उनके संस्कृति, राजनीति आर्थिक कामकाजों को निर्देशित करने वालों का भरपूर सहयोग इन दोनों कार्यक्रमों को रहा।
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26/01/2025
Koytur Hodi
बहुत ही सुन्दर जानकारी के लिए बहूत बहुत सेवा जोहर ????????☘️????
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