परंपरागत व्यापारिक ब्राह्मणवादी गठजोड़ के साएं में बस्तर जैसे युद्ध क्षेत्र में पत्रकारिता के जोखिम
पत्रकारों को व्यवस्था के लिए माध्यम और हीरो बनने से बाहर आने की जरूरत है और तटस्थ रहना होगा
सुशान्त कुमारपत्रकार मुकेश चन्द्राकर की हत्या पहली घटना नहीं हैं, इससे पूर्व पत्रकार नेमीचंद जैन और सांई रेड्डी की हत्या हो चुकी है। यह सारे हत्याएं व्यवस्थापोषित हत्या की श्रेणी में आते हैं। पत्रकार सोमारू नाग, मंगल कुंजाम, संतोष यादव, प्रभात सिंह और लिंगाराम कोडोपी को यातना देकर जेलों में कैद रखा गया। अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा कानून को लेकर पत्रकार और नागरिक समाज ईसाइयों और हिन्दूओं के बीच अंतरविरोध को जन्म दिया है। यहां यह भी मौजूं है कि वरिष्ट पत्रकार किरीट दोशी और मालिनी सुब्रामणियम को बस्तर में पत्रकारिता के लिए परेशान किया गया था।

यह अंतरविरोध साम्प्रदायिकीरण को बढ़ावा देते हुए डिलिस्टिंग और आदिवासी और आदिवासी के बीच की खाई को गहरा किया है, वहीं दूसरी ओर आदिवासियों के बीच निजी धन संचय और व्यक्तिगत सम्पत्ति को लेकर होड़ नहीं है बल्कि बाहर से आयातित सवर्ण व्यापारिक वर्ग और उनकी पूंजी आदिवासियों के इस पुरातन आर्थिक स्वयं सम्पूर्ण व्यवस्था पद्धति को नेस्तनाबूत करते हुए पूरे सैन्य बल के साथ आ धमकी है जिसका शिकार सुरक्षा बल, स्थानीय आदिवासी और लोकतंत्र को पहले पंक्ति में लाने वाले सूचना का आदान प्रदान करने वाले अगुआ पत्रकारों पर हमले तेज हो रहे हैं।
पत्रकारों को जान से मारने और आदिवासी क्षेत्रों में न आने की धमकियां व्यवस्था की ओर से लगातार मिल रहे हैं, जो इस क्षेत्र को परंपरागत व्यापारिक ब्राह्मणवादी गठजोड़ के साएं में बस्तर से लेकर हसदेव तक में पत्रकारिता की दायरे में मानवतावाद के लिए खतरे की घंटी है।
व्यवस्था के नाम पर बस्तर जैसे सुदूर क्षेत्रों में पुलिसराज कायम हैं। वहां उनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता है। इस क्षेत्र में पुलिस की भूमिका संदिग्ध हैं, क्या पुलिस अधिकारी इन क्षेत्रों में ठेकेदारों के रूप में अंडरकवर काम कर रहे हैं? क्या सुरेश चंद्राकर के साथ विभिन्न ठेकेदारों के साथ पुलिस अधिकारियों के ठिकानों में भी छापें की कारवाई की जानी चाहिए?
पत्रकार मुकेश का यह कसूर था कि वह ठेकेदार सुरेश चन्द्राकर द्वारा बनाई गई सडक़ की रिपोर्टिंग कर दिए...। मिरतुर से हिरोली गंगालूर सडक़ जिसकी लागत 56 करोड़ लगभग थी वह काम 120 करोड़ का हो गया...। उसके बाद भी सडक़ गुणवत्ताहीन बनी इसी सडक़ की सच्चाई मुकेश ने अपने साथी पत्रकार नीलेश के साथ 30 दिसम्बर को एनडीटीवी में प्रकाशित कर दी जिसके बाद छत्तीसगढ़ के विभागीय मंत्री अरुण साव ने जांच कमेटी बनाकर जांच के आदेश दे दिए...!
इस तरह विडंबना है कि ऐसे कंटेंट क्रियेटर, स्ट्रिंगर के रूप में कार्यरत पत्रकारों को एनडीटीवी अपना पत्रकार क्यों नहीं बता रहे हैं। उसे स्वतंत्र पत्रकार करार देने की साजिश रचा जा रहा है और अलग-थलग किया जा रहा है। कहीं यह पूंजी के साथ मीडिया का गठजोड़ तो नहीं है?
यह मामला पूर्व में प्रभात सिंह, सोमारू नाग और संतोष यादव के साथ में घटित हो चुका है। और पूर्व में एडिटर गिल्ड ने इसका पर्दाफाश किया है। जरूरत यह भी है कि पत्रकारों को व्यवस्था के लिए माध्यम और हीरो बनने की लालच से बाहर आने की जरूरत है और तटस्थ रहना होगा।
जैसे जैसे बस्तर जैसे युद्ध क्षेत्र में वित्तीय पूंजी और विकास का दबाव बढ़ा है उत्खनन के साथ क्षेत्र में निर्माण कार्यों की जाल फैलाई गई है। व्यवस्था को दूर जंगलों में ले जाने की मुहिम तेज हुई है उसके समानांतर पूंजी के साथ ठेकेदार और निजी कंपनियों की भरमार हो गई है। यही नहीं पिछले चार-पांच सालों में बस्तर में नए-नए पत्रकारों की आमद में वृद्धि हुई हैं।
और कई सारे पत्रकारों पर भ्रष्टाचार करने का आरोप भी लगे हैं। यहां के पत्रकारों को मुठभेड़ कवर करने पर जान से मारने की धमकी और जेल का डर दिखाया जा रहा है वहीं दिल्ली से आने वाले पत्रकारों को पुस्तक लिखने की छूट और पुरस्कारों से नवाजा जा रहा है। अब बस्तर और हसदेव पर पत्रकारिता करने वालों को स्कॉलरशिप देकर कमर तोडऩे की कोशिश जारी है। यह कैसा प्रिविलेज हैं।
वर्षों से विकास से दूर रहे जनजातियों का असंतोष नक्सलियों द्वारा उनके हाथ में हथियार पकड़ाने का अच्छा कारण बना। परिणामत: अगले कुछ ही वर्षों में हमारे 18 से 20 हजार सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए हैं। और हजारों की संख्या में आदिवासी जेलों में सड़ रहे हैं या हर दिन किसी ना किसी रूप में मारे जा रहे हैं। इस पर भी शहर का ब्राह्मणवादी आदिवासी वर्ग चुप्पी साधे बैठा है। सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में जंगल और पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाले जेलों में और उनके नाम पर दुकान चलाने वाले पुरस्कृत हो रहे हैं।
देखा यह भी जा रहा है कि आदिवासी क्षेत्रों में पेसा कानून के बाद भी पेसा नियम अमल में नहीं आया है। पत्रकार सुरक्षा कानून और मजीठिया कानून लंबित हैं। बिना ऑडिट के आवारा पूंजी का प्रवाह खतरनाक ढंग से क्षेत्रों में प्रवाहमान हैं। उत्खनन के नाम पर सडक़, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि पहुंचाने के हर प्रकार के प्रयास विवादों में हैं। परन्तु सरकार की उचित योजनाओं, कार्यवाहियों एवं प्रयासों की धमक से कुछ देर से ही सही पर लोगों की आंखें खुल रही हैं। गृहमंत्री का कहना है कि कुछ ही सालों में नक्सलवाद पर काबू हासिल कर ली जाएगी।
वर्तमान में 33 जिलों वाले छत्तीसगढ़ राज्य के 14 जिले नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र में बढ़ रहे हिंसा में अनेक पत्रकार, पुलिस अधीक्षक, जवान, हजारों निर्दोष आदिवासी लगातार आहत हो रहे हैं। पुलिस कैम्पों में जवान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। उदाहरण स्वरूप हाल ही में कोण्डागांव (बस्तर) के एक वरिष्ट नेता पर हमला हुआ। 25 मई 2013 को झीरमघाटी की घटना में छत्तीसगढ़ काँग्रेस पार्टी की परिवर्तन यात्रा में हुए नरसंहार ने ना केवल छत्तीसगढ़ बल्की पूरे भारत वर्ष को हिला कर रख दिया था।
हाल ही में घटित हुई ऐसी कुछ घटनाएं जैसे - 2010 - सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए। साल 2012 सुकमा में तैनात अधिकारी का अपहरण कर लिया गया। साल 2019 - दंतेवाड़ा में बीजेपी विधायक भीमा मंडावी पर हमला किया गया।
दुर्गम क्षेत्र व घने वन नक्सलियों और सैनिकों के बीच कार्यवाहियां आदिवासियों के साथ पत्रकारों को भी अपने चपेट में ले रहा है। आदिवासी और पत्रकार माओवादियों और व्यवस्था के लिए आसान निशाना होते। देश की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में अंतराल, प्रशासन की ओर से कोई अनुवर्ती कार्यवाही नहीं, राज्य सरकारों की उदासीनता, आदिवासी संस्कृति एवं जीवनशैली पर हस्तक्षेप इत्यादी हमें मध्ययुगीन बर्बर युग की ओर धकेल रही है।
उद्योगों के लगने के साथ युद्धरत क्षेत्रों में आंतरिक अशांति, आर्थिक हानि, शस्त्रों की अवैध खरीद-फरोख्त, जानमाल की हानि, अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहन मिलता है। इससे दोनों ही व्यवस्थाओं को बल मिलता है।
झीरमघाटी, तो कभी सुकमा, दंतेवाड़ा व नारायणपुर जैसी घटनाएं पूरे देश को अशांत कर देती हैं। हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में स्वयं ही दुर्गम क्षेत्रों में बनाए जा रहे विकास के साधनों को क्षति पहुंचाने का आरोप लगता हैं, उन्हें नियंत्रित करने के लिए सरकार को पुन: करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं। अपने तथाकथित अभियान को जारी रखने के लिए नक्सलियों को हथियार अवैध माध्यमों से ही प्राप्त होते हैं। इस हिंसा का परिणाम है कि जनहानि में लगातार वृद्धि हो रही है। यहां यह बताते चले कि विकास के वाहक यह वही ठेकेदार हैं, जो बस्तर के आदिवासियों और मूलवासी मंच के कई लोगों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट और मुकदमा दायर किया हैं।
ब्राह्मणवाद और जातिवादी के इर्दगिर्द समानान्तर सरकार का गठन, सशस्त्र विद्रोह का भय, कानून व्यवस्था में समस्या, वर्गीय भेदभाद को बढ़ावा, हिंसक गतिविधियों में वृद्धि, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी खराब छवि पैदा करती है।
विकास के नाम पर अधोसंरचना की भरमार हैं-ऑपरेशन ग्रीन हंट के तहत इसे 2009 - 10 में शुरू किया गया था और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती की गई थी। नियद नेल्लानार योजना इसका अर्थ है ‘आपका अच्छा गांव’, इस योजना के तहत बस्तर क्षेत्र में सुरक्षा शिविरों के 5 किलोमीटर के दायरे में स्थित गांवों में बुनियादी सुविधाएं और लाभ प्रदान किए जाएंगे।
आकांक्षी जिला कार्यक्रम वर्ष 2018 में लांच किए गए इस कार्यक्रम में देश के कुल 112 जिले एवं छत्तीसगढ़ के 10 जिले शामिल हैं, इन जिलों में नीति आयोग, सामाजिक आर्थिक विषयों, स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि और जल संसाधन, कौशल विकास और बुनियादी ढांचे के तहत प्रगत्ति की निगरानी करता है।
सलवा जुडूम इस अभियान की शुरूआत जून 2005 में महेंद्र कर्मा द्वारा की गई थी। इस आंदोलन में नक्सलियों से लडऩे के लिए ग्रामीणों को भी हथियार एवं रसद मुहैया कराए गए थे। जिसके कारण महेन्द्र कर्मा सहित कई कांग्रेसी नेताओं पर हमले हुए थे। परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट को इस पर रोक लगानी पड़ी उसके बाद डीआरजी की उत्पत्ति संभव हो सकी है।
रोशनी कार्यक्रम इस योजना में 50 हजार ग्रामीण पुरूषों एवं महिलाओं को लक्ष्य बनाया गया है, जिनमें अधिकतर आदिवासी होंगे एवं इस योजना में कम से कम 50 फीसदी महिलाएं होंगी। कमजोर आदिवासी समूहों को प्राथमिकता के आधार पर इसमें शामिल किया जाएगा।
घर वापसी अभियान ‘लोन वर्रादु योजना’ के तहत आत्म समर्पण करने वाले नक्सलियों को बुनियादी आवास एवं रोजगार सुविधा दी जाती है। आवासी कॉलोनी का नाम शहीद महेन्द्रकर्मा कॉलोनी रखा गया है।
भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में हर मोड़ पर किसी न किसी चुनौती का सामना हुआ है, इस बार यह माओवाद के नाम पर हैं। इसे दूर करने में सबसे बड़ा संकट अशिक्षा ही है। इसकी कमी के कारण जनजागरूकता विकसित नहीं हो पा रही है। परिणामस्वरूप भय और आवश्यकता के कारण नक्सलियों को ही जनसमर्थन मिल जाता है।
लगभग 39000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले बस्तर संभाग के अधिकतर हिस्से घने वन, दुर्गम कंदराओं और अनियमित उच्चावच के कारण एक पहेली से कम नहीं है। इस क्षेत्र में नई योजनाओं के लिए आदिवासियों का सहयोग जरूरी है। वरन कब्रगाह बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगी।
इसके अतिरिक्त पेसा कानून के तहत ग्रामसभा को शक्ति प्रदान कर जनजातियों का सरकार बनाने के लिए विकास के समान अवसर, अधोसंरचना निर्माण, नीतियों का उचित क्रियान्वयन, मुख्यधारा से जन भागीदारी, पुनर्वास, भूमि सुधार के कार्यक्रमों को व्यापक पैमाने में शुरू करने की जरूरत है।
चुनौतियां हैं कि इन क्षेत्रों में जनसहभागिता के तहत सर्वेक्षण और संस्थागत मैपिंग में कमी, अशिक्षा, पड़ोसी राज्यों में पलायन, भौगोलिक स्थिति, प्रशासनिक अनिच्छा, रूढि़वादिता, जनजातियों का सरकार के प्रति अविश्वास, विदेशी संगठनों का प्रभाव और जनसमर्थन जुटाने की चुनौती तो हैं।
इस क्षेत्र में आदिवासियों के मनमुताबिक पांचवी-छठवीं अनुसूचियों के तहत विकास के समान अवसर, असमानता की खाई को पाटने में अहम भूमिका की शुरूआत जरूरी हैं, असंतोष समाप्त होगा इसके साथ ही नक्सलवाद भी।
शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी एवं सडक़ की पहुंच इस क्षेत्र की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। अनेक नीतियाँ बनाई गई, किन्तु उन नीतियों का क्रियान्वयन उचित ढंग से नहीं होने के कारण आज भी यह सामाजिक, राजनैतिक समस्या बनी हुई है, अत: नीतियों के उचित क्रियान्वयन से ही इसका समाधान हो सकता है।
नक्सली गतिविधि में संलिप्त लोगों को सिर्फ पुलिस में भर्ती कर आत्मघाती बनाने से ही नहीं बल्कि व्यवस्था के विभिन्न अंगों में शामिल कर समाज की मुख्य धारा से जोडऩे की महती जरूरत हैं।
महत्व की बात यह कि नक्सल उन्मुलन के नाम पर इनाम या लालच देकर लोगों की वास्तविक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समाधान खोज पाना मुश्किल है इसके लिए एक टिकाऊ व्यवस्था की जरूरत है जिस पर इसका स्थाई हल संभव है। पत्रकारों को झूठे मुकदमों में फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों और अन्य दोषियों के खिलाफ त्वरित फास्ट ट्रेक न्यायालय में सुनवाई की जरूरत हैं।
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष गौतम लाहिड़ी तथा महासचिव नीरज ठाकुर ने पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या की निंदा करते हुए कहा है कि इस मामले का संज्ञान लेने और राज्य सरकार को उचित कार्रवाई करनी चाहिए।
उनका यह भी मानना है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर हमले और उनकी हत्याएं कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन जिस तरह से इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है, वह अस्वीकार्य है और इसे प्रभावी ढंग से हल करना जरूरी है। राज्य सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने की स्थानीय पत्रकारों की लंबे समय से चली आ रही मांग पर तुरंत गौर करना चाहिए।
फोटो संजीत बर्मन की फेसबुक वॉल से साभार
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