भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस

शहीद हुए महारों के नाम, उनके सम्मान में बनाये गये स्मारक स्तम्भ

आरपी विशाल

 

कहते हैं कि महाभारत का युद्ध इसलिए हुआ क्योंकि कौरवों ने पांडवों को जमीन, जायदाद, सत्ता, सम्पत्ति इत्यादि से बेदख़ल कर दिया था। दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया था कि "सुई कि नोंक पर थरथराते कण के बराबर अंश भी तुम्हें नहीं दूंगा"। ऊपर से द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह जैसे महान, ज्ञानी, विद्वान, धुरंधर, धर्मभीरू और कर्तव्यनिष्ठ जन भी कौरवों के ही पक्ष में खड़े थे।

अंततः श्रीकृष्ण जो कि सबके समान रूप से भगवान थे उन्होंने ही पांडवों के पक्ष में खड़े होकर इसे पारिवारिक, सामाजिक झगड़ा नहीं माना बल्कि धर्मयुद्ध करार दिया। जबकि पांडवों ने सबकुछ जुए में खुद ही गंवाया था। बावजूद इसके वह हिस्सेदारी चाहते थे। बहरहाल! यह पौराणिक कथाएं हैं इन्हीं के उदाहरण से मनुष्य कभी-कभी अपनी अच्छाई, बुराई और न्याय, अन्याय को परिभाषित करता है।

जब पेशवाओं का दौर आया तब बाजीराव पेशवा द्वितीय ने महारों के लिये वही महाभारत का संवाद अथवा डायलॉग दोहराया कि सुई की नोंक पर थरथराते कण के बराबर भी तुम महारों को हिस्सा नहीं दूँगा। बस फर्क यह था कि पांडवों ने अपना सबकुछ जुए में गंवाया था जबकि महारों से पेशवाओं ने अपनी सत्ता हासिल करने, महारों को अपना गुलाम बनाने के उद्देश्य से सबकुछ छीना था। पेशवाओं का वह सही चरित्र चित्रण इतिहास में नहीं किया गया।

पेशवाओं ने महारों पर मार्शल लॉ लगा दिया जो कि दुनिया के सबसे क्रूरतम व्यवस्था में एक है। थूकने के लिए गले में हांडी और कमर में झाड़ू बांध दी गयी थी ताकि जमीन अपवित्र न हो। हाथ में व गले मे काला धागा बांधा गया जिससे उनकी पहचान दूर से हो और कोई सवर्ण हिन्दू उनसे गलती से भी स्पर्श न कर सके। इस प्रकार इंसान से उनकी सारी इंसानियत ही छीनी गयी थी। बिना कारण की इतनी नफ़रत दुनिया के इतिहास में शायद ही कहीं दिखाई पड़े।

हर व्यक्ति का, किसी भी घटनाक्रम को देखने का नज़रिया उसके पूर्वाग्रहों पर ही केंद्रित होता हैं। समाज में उसी बात की अधिक स्वीकृति अधिक होती है जिसका प्रचार और प्रचलन भी अधिक हो। पौराणिक काल खंडों में बहुत धर्मों और उनके ईश्वरों तथा सत्ताओं का भी उदय हुआ। कुछ का प्रचार और प्रचलन की कमी के चलते समाप्त हो गए। जिनकी सभ्यताएं विकसित हो सकी उनका वर्णन भी हुआ और महिमामंडन भी हुआ।

कुछ सभ्यताएं क्रूर और बेहद अमानवीय रही। पेशवाओं का दौर शूद्रों के लिए उन्हीं अमानवीय दौर में से एक था जिसमें मनुष्यों से उनके जिंदा होने या मनुष्य कहलाने का भी अधिकार छीन लिया था। पेशवाओं के इस घोर अत्याचारों के कारण महारों में अन्दर ही अन्दर असन्तोष व्याप्त था। वे पेशवाओं से मिलकर यह संकेत दे चुके थे कि आपको अपना रवैया, विचार और शास्त्र बदलने होंगे अन्यथा परिणाम ठीक नहीं होंगे।

सत्ता और श्रेष्ठता के अहंकार में डूबे पेशवाओं ने महारों से कहा कि तुम शुद्र हो, शुद्र ही बने रहो। तुम हमारे अधीन हो यही तुम्हारी नियति है। महार अब पेशवाओं से इन जुल्मों का बदला लेने के लिए मौके की जबरदस्त तलाश में थे। आवश्यकता थी एक उचित अवसर की। जब महारों का स्वाभिमान जागा, तब पूना के आस-पास के महार लोग पूना आकर अंग्रेजों की सेना में भर्ती हुए। इसी का प्रतिफल कोरेगांव की लडाई का गौरवशाली इतिहास है।

कोरेगांव महाराष्ट्र प्रदेश के अन्तर्गत पूना जनपद की शिरूर तहसील में पूना नगर रोड़ पर भीमा नदी के किनारे बसा हुआ एक छोटा सा गांव है। इस गांव को भीमा नदी के किनारे बसा होने के कारण ही भीमा कोरेगांव कहते हैं। इस गांव की पूना शहर से दूरी 16 मील है। 1 जनवरी 1818 को 500 महारों और 28 हजार पेशवा सैनिकों के बीच युद्ध हो गया। महारों की पैदल फौज अपनी योजना के अनुसार 31दिसम्बर 1817 ई. की रात को कैप्टन स्टाटन शिरूर गांव से पूना के लिए अपनी फौज के साथ निकला।

उस समय उनकी फौज "सेकेंड बटालियन फसर्ट रेजीमेंट" में मात्र  500 महार थे। 260 घुड़सवार और 25 तोप चालक थे। उन दिनों भयंकर सर्दियों के दिन थे। यह फौज 31दिसम्बर 1817 ई.की रात में 25 मील पैदल चलकर दूसरे दिन प्रात: 8 बजे कोरेगांव भीमा नदी के एक किनारे जा पहुंची। 1 जनवरी सन 1818 ई.को बम्बई की नेटिव इंफैन्टरी फौज( पैदल सेना) अंग्रेज कैप्टन स्टाटन के नेत्रत्व में नदी के एक तरफ थी।

दूसरी तरफ बाजीराव की विशाल फौज दो सेनापतियों रावबाजी और बापू गोखले के नेत्रत्व लगभग 28 हजार सैनिकों के साथ जिसमें दो हजार अरब सैनिक भी थे, सभी नदी के दूसरे किनारे पर काफी दूर-दूर तक फैले हुए थे।"1 जनवरी सन 1818 को प्रात:9.30 बजे युद्ध शुरू हुआ। भूखे-थके महार अपने सम्मान के लिए बिजली की गति से लड़े। अपनी वीरता और बुद्धि बल से 'करो या मरो' का संकल्प के साथ समय-समय पर ब्यूह रचना बदल कर बड़ी कड़ाई के साथ उन्होंने पेशवा सेना का मुकाबला किया।

युद्ध चल रहा था। कैप्टन स्टाटन ने पेशवाओं की विशाल सेना को देखते हुए अपनी सेना को पीछे हटने के लिए याचना की। महार सेना ने अपने कैप्टन के आदेश की कठोर शब्दों में भर्तसना करते हुए कहा हमारी सेना पेशवाओं से लड़कर ही मरेगी किन्तु उनके सामने आत्म समर्पण नहीं करेगी, न ही पीछे हटेगी, हम पेशवाओं को पराजित किए बिना नहीं हटेंगे। मर जायेंगे। यह महारों का आपसे वादा है।" महार सेना अल्पतम में होते हुए भी पेशवा सेनिकों पर टूट पड़े, तबाई मच गयी।

लड़ाई निर्णायक मोड पर थी। पेशवा सेना एक-एक कदम पीछे हट रही थी। लगभग सांय 6 बजे महार सैनिक नदी के दूसरे किनारे पेशवाओं को खदेड़ते-खदेड़ते पहुंच गये और पेशवा फौज लगभग 9 बजे मैदान छोड़कर भागने लगी। इस लड़ाई में मुख्य सेनापति रावबाजी भी मैदान छोड़ कर भाग गया परन्तु दूसरा सेनापति बापू गोखले को भी मैदान छोड़कर भागते हुए को महारों ने पकड़ कर मार गिराया।

इस प्रकार लड़ाई एक दिन और उसी रात लगभग 9:30 बजे लगातार 12 घंटे तक लड़ी गयी जिसमें महारों ने अपनी शूरता और वीरता का परिचय देकर विजय हांसिल की। महारों की इस विजय ने इतिहास में जुल्म करने वाले पेशवाओं के पेशवाई शासन का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया। भारतीय इतिहास की यह एक अनूठी मिशाल बनकर हमेशा ऊर्जा ही प्रवाहित नहीं किया बल्कि इसमें पेशवाओं की ऐतिहासिक हार के साथ उनकी पेशवाई और अहंकार सब दफ़न गया तथा नये युग का आगाज हुआ।

कोरेगांव के मैदान में जिन महार सैनिकों ने वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया। अंग्रेजों ने उनके सम्मान में सन 1822 ई. में कोरेगांव में भीमा नदी के किनारे काले पत्थरों का क्रान्ति स्तम्भ का निर्माण किया। सन 1822 ई. में बना यह स्तम्भ आज भी महारों की वीरता की गौरव गाथा गा रहा है। महारों की वीरता के प्रतीक के रूप में अंग्रेजों ने जो विजय स्तम्भ बनवाया है, वहां उन्होंने महारों की वीरता के सम्बन्ध में अंग्रेजों ने स्तुति युक्त वाक्य लिखा। "One of the proudest traimphs of the British Army in the east " ब्रिटिश सेना को पूरब के देशों में जो कई प्रकार की जीत हांसिल हुई उनमें यह अदभुत जीत है।

इस स्तम्भ को हर साल 1 जनवरी को देश की सेना अभिवादन करने जाती थी। इसे सर्व प्रथम "महार स्तम्भ" के नाम से सम्बोधित किया जाता था। बाद में इसे विजय या फिर "जय स्तम्भ" के नाम से जाना गया। आज इसे क्रान्ति स्तम्भ के नाम से पुकारा जाता है, जो सही दृष्टि में ऐतिहासिक क्रान्ति स्तम्भ है। यह स्तम्भ 25 गज लम्बे 6 गज चौडे और 6 गज ऊंचे एक प्लेट फार्म पर स्थापित 30 गज ऊंचा है तथा जैसे-जैसे ऊपर जायेगा, उसकी चौड़ाई कम होती जायेगी। जिसको सुरक्षा की दृष्टि से लोहे की ग्रिल से कवर किया गया है।

इतिहास की किताबों से लेकर फिल्मों तक भले ही शोषकों ही महिमामंडन हुआ हो और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई को देश विरोधी भी बताने का प्रयास किया गया हो लेकिन जब आप शुरुआत से लेकर अंत तक, अपनों की भूमिका से लेकर व्यवस्था तक का अवलोकन, विश्लेषण करेंगे तब पूरा इतिहास पारदर्शी होकर सामने आएगा तथा खोखली महानता रेत के टीले की भाँति पल भर में ढेर हो जायेगा।

आज भी महार रेजीमेंट के सैनिकों बैरी कैप पर कोरेगांव की लड़ाई की याद में बनाए इस स्तम्भ पर बाबासाहेब डा. अम्बेडकर हर साल 1 जनवरी को अपने शहीद हुए पूर्वजों को श्रद्धार्पण करने कोरेगांव जाते थे। आज इस पवित्र स्मारक पर लाखों की संख्या में लोग अपने पुरखों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं। कोरेगांव के इस युद्ध में 20 महार सैनिक और 5 अफसर शहीद हुए।

शहीद हुए महारों के नाम, उनके सम्मान में बनाये गये स्मारक (स्तम्मभ) पर अंकित हैं। जो इस प्रकार हैं-

1:गोपनाक मोठेनाक

2:शमनाक येशनाक

3:भागनाक हरनाक

4:अबनाक काननाक

5:गननाक बालनाक

6:बालनाक घोंड़नाक

7:रूपनाक लखनाक

8:बीटनाक रामनाक

9:बटिनाक धाननाक

10:राजनाक गणनाक

11:बापनाक हबनाक

12:रेनाक जाननाक

13:सजनाक यसनाक

14:गणनाक धरमनाक

15:देवनाक अनाक

16:गोपालनाक बालनाक

17:हरनाक हरिनाक

18जेठनाक दीनाक

19:गननाक लखनाक

इस लड़ाई में महारों का नेत्रत्व करने वालों के नाम निम्न थे-

रतननाक

जाननाक

और भकनाक आदि

इस संग्राम में जख्मी हुए योद्धाओं के नाम निम्न प्रकार हैं-

1:जाननाक

2:हरिनाक

3:भीकनाक

4:रतननाक

5:धननाक


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