सांस्कृतिक माहौल की कल्पना मेंढक़ तौलने जैसे
लेखक, निर्देशक, नाटककार हरजिंदर सिंह (मोटिया) के जन्मदिन पर विशेष
सुशान्त कुमारसालों पहले हरजिंदर सिंह मोटिया से बेलागलपेट चर्चा। आज भी मोटिया दु:ख तकलीफ के साथ आगे बढ़ रहा है। कुछ साल पहले उन्होंने नाटक सुगंधा पर काम किया था। नाटकों के साथ मोटिया फिल्म न्यूटन के पड़ाव को पार किया है और अब वह फिल्म कुरूक्षेत्र पर काम कर रहे हैं। बहरहाल मोटिया के सिर पर किसी गॉड फादर का हाथ नहीं है नहीं तो मोटिया की किस्मत की रेखा कुछ और बया करती। ‘द कोरस’ लेखक, निर्देशक, नाटककार हरजिंदर सिंह (मोटिया) के जन्मदिन पर विशेष तौर पर इस साक्षात्कार को प्रकाशित कर रहा है जो आज भी प्रासंगिक है।

विविध विधाओं का संगम है भिलाई। जहां विभिन्न प्रकार की नाट्य संस्थाएं भिन्न-भिन्न भाषाओं में पटकथा लेखन, मंच सज्जा, अभिनय, निर्देशन, प्रकाश एवं संगीत के माध्यम से कला को जनता की भवनाओं से जोडक़र भिलाई का नाम इस प्रदेश के साथ पूरे देश भर में बुलंदियों तक पहुंचाने का कार्य किया है। बीएसपी के नेहरू सांस्कृतिक भवन, चित्र मंदिर व क्रीड़ा एवं मनोरंजन समूह के साथ जुडक़र उपेक्षाओं के बाद भी कुछ लेखक, कलाकार व निर्देशक नाटक के क्षेत्र में ध्रुवतारा की तरह प्रकाशमान है।
जो गुमनामी के साथ रंगकर्म को ऊंचाइयों तक पहुंचाने तन-मन-धन से संघर्षरत है। ऐसा ही एक कलाकार हरजिंदर सिंह (मोटिया) पिछले एक दशक से नाट्य विधा के सभी रूपों को विकसित करते हुए आगे बढ़ रहा है। वह भिलाई इस्पात संयंत्र के साथ जुडक़र नाटक लिखते, खेलते व निर्देशन करते हैं, लेकिन इसके बाद भी वे बेरोजगारी व पारिवारिक समस्याओं से निरंतर जूझते हुए इस क्षेत्र में अपने कॅरियर की तलाश में जुटे हुए है। उन्होंने कोरस नाट्य संस्था में एक मामूली कलाकार के रूप में जुडक़र नाट्य विधा के सभी रूपों में दक्षता हासिल किया हैं। उनसे उत्तम कुमार ने मुलाकात कर नाट्य विधाओं के साथ समाज व उनके जिंदगी के अनछुए पहलुओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की
प्रारंभिक शिक्षा आपने कहां प्राप्त की?
भिलाई के ही एक सामान्य स्कूल लोक भारती वैशाली नगर से 12 वीं तक की शिक्षा प्राप्त की।
कला व संस्कृति के लिए अलग से कोई कोर्स किया?
नाटकों से जुडऩे का कोई विधिवत कार्यक्रम नहीं था। हां, फिल्मों से लगाव जरूर था। फिल्में देखते समय एक आवाज अंदर से जरूर उठती थी कि ये दृश्य ऐसे क्यों लिया गया? उस फिल्म की कहानी अच्छी थी पर निर्देशन ठीक नहीं जैसे कई सवाल कोई भी फिल्म देखने के बाद मुझसे टकराने लगता। फिर अचानक एक परिवार हमारे पड़ोस में रहने आया उसी के कारण मैं नाटकों से जुड़ा और आज नाटकों के साथ इतनी दूरी तय कर चुका हूं कि जहां तक नाटक लिखने का सवाल हैं तो मैंने शुरूआती समय में मंचित किए गए नाटक पढ़े और देखें। धीरे-धीरे लगा कि क्यों न अपने आस-पास की परिस्थितियों पर नाटक बनाया जाए। देखते ही देखते मैंने तीन-चार नाटक लिख डाला। जो कालांतर में काफी पसंद किए गए।
अभिव्यक्ति के लिए नाटकों को ही क्यों चुना?
नाटक को चुनने से पहले मुझे लगता था कि मैं कुछ अलग करना चाहता हूं लेकिन क्या है वह मुझे पता नहीं होता था। मुझे लगता था कहीं कुछ मेरे अंदर है जो उबाल मार रहा है, उसे किस रूप में बाहर निकालूं, इस जद्दोजहद में काफी समय गुजरा मुझे कुछ साहित्यिक पुस्तकें मिली, उसके बाद एक सामाजिक माहौल मिला जिसे पढ़-समझ कर मेरे अंदर का कलाकार रंगकर्म के लिए बाहर आया। मुझे लगा जो कुछ हम बेहतर समाज के बारे में सोचते है, उसे सही लोगों तक पहुंचाने का सबसे सशक्त माध्यम नाटक ही है। जिसमें आम आदमी अपना स्वाभाविक जुड़ाव महसूस करता है, उसका परिणाम भी नाटककार और कलाकारों को तुरंत मिल जाता है। ऐसी ही कुछ बातें मुझे नाटकों तक ले गई।
आपके निर्देशन में कितने नाटक लिखे व मंचन किए गए?
अब तक तीन नाटक लिखा हूं और उनका मंचन भी किया है। लाल परिन्दें, वहशी, लकीर, देह और चूंहे। वहशी गुजरात दंगों के ऊपर केन्द्रित नाटक था, जिसे लिखा व मंचन किया। सिपाही की मां, यम का छाता का निर्देशन किया है।
आप नाटकों को किस दृष्टि से देखते हैं?
नाटक उस वृक्ष की तरह है, जिसकी छांव तले रंगकर्मी एक मुसाफिर की तरह जाकर रूकता है। उसकी ठंडी छाया में बैठकर उसके मीठे फलों को खाता है और पूरी तरह तरोताजा होकर आगे निकल जाता है।
राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहां-कहां मंचन किए?
अंतरराष्ट्रीय तो नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर पटना, सोलन, टाटा व मुंबई में मंचन किया।
किस नाटक ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया?
मोहन राकेश द्वारा लिखा गया एकांकी नाटक सिपाही की मां से मैं बहुत प्रभावित हूं। इस नाटक में लेखक ने एक सिपाही के परिवार की पीड़ा जितनी संजीदगी से रखा है। उतना उम्दा चिंतन मुझे किसी दूसरे नाटक में नहीं मिला। व्यवस्था का चेहरा जिस सफाई से इस नाटक के जरिए दर्शकों तक पहुंचता है, वो भी कमाल है। निर्देशन के लिए भी इस नाटक में बहुत सारी संभावनाएं है।
नाटक व रोजी-रोटी की लड़ाई में कैसे तालमेल करते है?
नाटक से रोजी-रोटी नहीं चलेगी यह मैंने पहले दिन ही जान गया था और मेरे सारे रंगकर्मी समझ भी गए लेकिन मैं आज भी इस सवाल से लड़ रहा हूं कि क्यों आखिरकार अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम जो हमें अपने हक के लिए लडऩे और मरने के लिए उकसाता है और इसी माध्यम से पात्र अपने रोजी-रोटी के लिए शोषकों का आहार बन जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों है? ये मुझे आज तक पता नहीं चला।
नाटकों में रंगकर्म की सृष्टि कैसे करते है?
रंगकर्म व ब्लाक नाटक की जान होते हैं। जिसके लिए निर्देशक को हर वक्त अपने आस-पास होने वाली गतिविधियों की बारिकीयों को खोजना होता है। कुछ टूल कहानियों और फिल्मों से भी मिल जाते हैं। बाकि निर्देशक की कल्पानाओं पर भी निर्भर करता है कि उसकी सोच कहां तक छलांगे मारती है।
क्रीड़ा एवं मनोरंजन समूह से आपकी नाट्य संस्था कब से जुड़ी है?
बीएसपी से एफिलेशन 1993 में हुआ था। तब हमारे नाटक दल ने अपना पहला नाटक ‘कोरस’ मंचन किया था। उस समय मेरा जुड़ाव नाटकों से नहीं हुआ था।
बीएसपी कलाकारों को रोजगार देने में क्या भूमिका निभा रही है?
भिलाई के संदर्भ में देखे तो नाटकों की जितनी भी गतिविधियां भिलाई में दिखती है, वो सब बीएसपी की ही देन है, चाहे वह लाइट एंड साऊंड की देन हो, चाहे प्रेक्षागृह में होने वाले नाटक सभी भिलाई इस्पात संयंत्र पर ही आश्रित है लेकिन कला और रोजगार के मध्य तालमेल बनाने पर काम नहीं हुआ। कलाकारों को रोजगार देने की पहल फिलहाल बीएसपी के एजेंडे में नहीं है।
सांस्कृतिक माहौल के लिए किन-किन चीजों की जरूरत होती है?
बाजारवाद से सने इस माहौल में विशुद्ध सांस्कृतिक माहौल की कल्पना करना मेंढक़ तौलने के बराबर है। फिर भी नाटक सांस्कृतिक क्रांति के प्रमुख विधाओं में से एक है। देश की कला एवं संस्कृति की रक्षा के लिए नाटक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। पाश्चात्य पाप-जाज जैसे संस्कृति, डिस्को, ब्रेक की संस्कृति के बाद भी लोकगीत व लोक संस्कृति हमेशा जिंदा रहेगी।
सामाजिक असमानताओं में नाटक एक सशक्त सिपाही की भूमिका अदा करेगा। हमारी कला, संस्कृति हमारे अभिव्यक्ति का आईना है, इसे कोई भी तोड़ नहीं सकता। सांस्कृतिक पतन के इस दौर में नवयुवकों को एक जगह ठहर कर आत्ममंथन करने की जरूरत है। मुझे लगता है कि नौजवान को संगठित हो पूरे समाज को बदलने के कार्य में आगे बढऩा चाहिए।
अन्य सांस्कृतिक समूृह व कलाकार किन मुद्दों पर काम करते है?
हमारी संस्था ने हमेशा कोशिश की है कि ज्वलंत सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक मुद्दों पर ही नाटक खेले। समाज में आ रहे उत्तर आधुनिकवाद व दोषों को दूर करने नाटक लिखे-खेले जाए। हमारी संस्था दूसरी संस्थाओं की अपेक्षा अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है। यह वह पहचान है जो समाज को बदलने मदद करती है। आज हमारी संस्था के साथ कई बड़े नामधारी कलाकार कार्य करते हैं। जिनमें प्रदीप शर्मा, अनिल शर्मा, आनंद अतृप्त जैसे रंगकर्म में सशक्त हस्ताक्षर है।
वर्तमान परिस्थितियों में नाटकों की क्या भूमिका होनी चाहिए?
फिल्मी अश्लीलताओं और टीवी चैनलों की भरमार से समाज में उथल-पुथल मचा रखी है रिश्तों में दरारें आ गई है। तलाक जैसी भयानक बीमारी ने कपड़े बदलने जैसा समाज बना दिया है। कई प्रायोजित प्रतियोगिता सिर्फ पैसों की कमाई के लिए कुछ भी दर्शकों को परोस रही है। ऐसे समय में नाटक है जो हमे अपने बारे में सोचने पर मजबूर करता है और एक बेहतर समाज के नव-निर्माण की दिशा में आगे बढऩे की राह दिखाता है।
अपनी तुलना सफदर हाशमी, हबीब तनवीर जैसे कलाकारों से करते हैं?
इन बड़े नामों के सामने तो हम निश्चित ही कहीं नहीं ठहरते लेकिन फिर भी हमारे नाटकों में बहुत सारी ऐसी चीजें आपको मिल जाएंगी जिसको देख दर्शक रोमांचित होकर तालियां बजाकर उछलने लगते है। जो हमारे वजूद को पहचान दे जाते है।
कोरस की स्थापना व उद्देश्य पर प्रकाश डालेंगे?
कोरस की स्थापना 90 के दशक में हुई थी जब पहला नाटक ‘कोरस’ मंचन किया गया था। हमारे देश में उदारीकरण व निजीकरण अपना पांव फैला रहे थे। चारों तरफ बेरोजगारी का बोलबाला था। हर पढ़ा लिखा नवयुवक डिग्री लेकर इधर-उधर घूम रहा था। कोरस की स्थापना ऐसे ही बेरोजगार नौजवानों ने की थी। हमारा उद्देश्य सामाजिक विसंगतियों जैसे धार्मिक उन्माद, मजदूरों, किसानों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने हुआ था।
आप नाटकों के भविष्य के बारे में क्या बताएंगे?
जब तक समाज में कुरीतियां, दमन, शोषण एवं परम्परावादी सोच की विसंगतियां रहेगी नाटक अमर रहेगा। नाटक एक विद्या है, यह वह आईना है जो समय-समय पर हमारे अंदर के चेहरे को बाहर लेकर आता है और अंधेरे आंतों को काटने की शक्ति देता हैं।
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