बसपा को एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में फिर से खड़ा करने की शर्त यह है कि...
पहली बात उसे हिंदुत्व की राजनीति (आरएसएस-भाजपा) के खिलाफ निर्णायक तरीके से खड़ा होना होगा
सिद्धार्थ रामूइसका पहली वजह है कि इस देश में दलित वोटर (विशेषकर बसपा के कोर वोटर जाटव-च...) सबसे अधिक वैचारिक वोटर हैं। आज की तरीख में उनके मन में सबसे अधिक नफरत भाजपा की हिंदुत्ववादी (ब्राह्मणावादी) विचारधारा और राजनीति से है। बसपा यदि अपने कोर वोटरों के भी बहुलांश हिस्से को अपने साथ बनाए रखना चाहती है और दलितों के अन्य हिस्सों को अपने साथ करना चाहती है, तो वह भाजपा के प्रति थोड़ी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नरमी न बरत सकती है और न दिखा सकती है।

अपने शब्दों और कर्म दोनों से यह साबित करना कि हम गोडसेवादियों के पूरी तरह खिलाफ हैं, हम उनके प्रति थोड़ा भी नरम नहीं हैं। उसको हर स्तर चुनौती देने को तैयार हैं। आरएसएस-भाजपा दलित समाज, बहुजन समाज और पूरे देश के लिए खतरनाक हैं, इसे बार-बार पुरजोर आवाज में रेखांकित करना और डॉ. आंबेडकर की इस बात के साथ पूरी तरह खड़ा होना कि हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।
इसके साथ भाजपा के कट्टर हिंदुत्व के बरक्स नरम हिंदुत्व की बात करने वालों की भी उनके नरम हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति के लिए आलोचना करना। चाहे कांग्रेस या कोई और। इसके साथ ही साफ-साफ यह संदेश देना पड़ेगा कि हम गोडसेवादी भाजपा को आज की तारीख में दुश्मन नंबर एक मानते हैं।
यह वैचारिक-राजनीतिक पोजीशन लिए बिना बसपा या दलित राजनीति मजबूत शक्ति के रूप में खड़ी नहीं हो सकती है। अपने सिकुड़ते राजनीतिक आधार को विस्तारित नहीं कर सकती है।
नहीं तो आज नहीं तो कल बचे-खुचे दलित वोटर भी उसका साथ छोड़ देंगे। जो शक्ति उन्हें भाजपा को मजबूत से रोकने की कोशिश करती दिखेगी उसके साथ हो लेंगे। क्योंकि आज की तारीख में अधिकांश दलित मतदाताओं ( विशेषकर जाटव..) के मन में भाजपा के प्रति तीखी नफरत है।
वे उनको संविधान और आंबेडकर की विचारधारा का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं और यह सच भी है। दलित वोटरों के इस नब्ज को पकड़ते हुए आकाशआनंद ने भाजपा को खिलाफ लोकसभा चुनाव के दौरान तीखे और निर्णायक तरीके बोलना शुरू ही किया था कि उन्हें बसपा के राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर और उत्तराधिकारी दोनों पदों से हटा दिया गया था।
दलित वोटरों के बाद जिस समुदाय का वोट बसपा को मिल सकता है और मिलता रहा है। मुस्लिम हैं। पिछले 10 वर्षों में भाजपा ने मुसलमानों की जिंदगी को जहन्नुम बना दिया है। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है। उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधत्व से बाहर कर दिया। हर स्तर पर उन्हें अपमानित किया जा रहा है। उनकी दिनदहाड़े लिंचिंग की जा रही है, उनको घरों को किसी भी बहाने तबाह किया जा रहा है। उनकी दुकानों को निशाना बनाया जा रहा है।
उन पर चौतरफ हमला हो रहा है। ऐसी स्थिति में मुसलमान किसी तरह उस पार्टी के साथ खड़े नहीं हो सकते हैं, जो भाजपा के प्रति नरम हो या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से उसे मदद पहुंचाते दिख रही हो। लोकसभा चुनावों में वोटिंग पैर्टन ने यह साबित कर दिया है।
मुसलमानों ने उस किसी भी पार्टी या व्यक्ति को वोट नहीं दिया, जिसको वोट देने से भाजपा के जीतने की कोई संभावना बनती हो। चाहे कोई खुद को मुसमलानों की पार्टी कहने वाली पार्टी हो या मुस्लिम उम्मीदवार। बसपा में यूपी 20 मुस्लिम खड़े किए लेकिन मुसलमानों का वोट उसने नहीं मिला।
दलितों का वोट सहेजे बिना और मुसलमानों को उनके साथ किए बिना बसपा या कोई भी दलित राजनीति खड़ी नहीं हो सकती है। दलित राजनीति का बुनियादी आधार यूपी में दलित-मुस्लिम गठजोड़ ही रहा है। उसके साथ अति पिछड़े (विशेकर सर्विस प्रोवाइडर जातियां) जुड़ी थीं। मुस्लिम वोटर इंडिया गठबंधन की तरफ पूरी तरह शिफ्ट हो चुका है।
वह तभी बसपा के साथ खड़ा हो सकता है जब बसपा इंडिया गठबंधन की तुलना में विचार और व्यवहार में ज्यादा निर्णायक तरीके से मुसमलानों के साथ खड़ा हो और भाजपा के प्रति किसी भी तरह से नरम होने कोई गुंजाइश नहीं,भाजपा को लाभ पहुचाने की बात ही छोड़ दीजिए।
दलित वोटरों और मुस्लिम वोटरों को एक साथ लाया जा सकता है। इसका रास्ता नगीना में चंद्रशेखर आजाद ने दिखाया। इसके लिए उन्होंने तीन काम किए।
पहला उन्होंने दलितों, मुसमलानों और देश को अपने विचार और आचरण से दिखाया कि वह नख से सिर तक भाजपा और आरएसएस के खिलाफ हैं। वे किसी की तुलना में भाजपा के हिंदुत्ववादी-ब्राह्मणवादी विचारधारा को ज्यादा मजबूती से चुनौती दे सकते हैं।
दूसरा उन्होंने आंबेडकरवादी विचारधारा और एजेंडे को मजबूती से थामें रखा। खुद को सबसे प्रखर आंबेडकरवादी के रूप में प्रस्तुत किया। भाजपा के ब्राह्मणवादी विचारधारा पर निर्णायक हमला बोला। उसके संविधान और आरक्षण विरोधी विचारों और कदमों को हर बार निशाना बनाया।
तीसरा उन्होंने मुसलमानों को यह भरोसा दिलाया कि हम हर सुख-दुख में आपके साथ हैं। आज भी मुसमलानों की लगातार हो रही लिंचिंग पर जब राहुल और अखिलेश यादव जैसे लोग चुप्पी साधे हुएं हैं। चंद्रशेखर आजाद हर ऐसे मामले में मुसलमानों के साथ खड़े हो रहे हैं।
चंद्रशेखर आजाद ने यह साबित किया है कि न केवल भाजपा-एनडीए को हरा कर बल्कि इंडिया गठबंधन को भी हरा कर दलित राजनीति आग बढ़ सकती है।
चंद्रशेखर आजाद अभी बसपा का विकल्प नहीं बन सकते हैं। बसपा के पास अभी भी एक मजबूत वोट बैंक है, देशव्यापी सांगठनिक आधार है, ऑफिस है, कार्यकर्ता हैं और पैसा भी है। वह खुद को एक मजबूत ताकत के रूप में खड़ी कर सकती है। लेकिन उसे भाजपा के खिलाफ निर्णायक तरीके से खड़ा ही होना पड़ेगा। इसके बिना न तो वह दलित वोटरों को अपने साथ बनाए रख सकती है, जो भी बचे हैं और न ही मुस्लिम वोटरों को अपने साथ वापस ला सकती है।
यदि बसपा के मन में थोड़ा भी मुगलता हो कि सवर्ण वोटर उसके साथ आ सकते हैं। तो पिछले चुनावों के परिणाम देखकर यह बात उसे अपने दिल से निकाल देना चाहिए। वे मजबूती से भाजपा के साथ खड़े हैं।
वे बसपा के साथ तब आए थे, जब उनकी स्वतंत्र राजनीति शक्ति कमजोर हो गई थी। मुख्य मुकाबला सपा और बसपा के बीच था। वे सपा को शिकस्त देने के लिए बसपा के साथ आए थे।
बसपा मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप मे तभी खड़ा हो सकती है। जब वह पहली शर्त पूरा करे।
कुछ अन्य जरूरी शर्तें भी हैं, लेकिन फिलहाल पहली शर्त तो पूरा हो।
इस या उस पार्टी से गठबंधन करके बसपा अपनी राजनीतिक ताकत और वोटर हासिल नहीं कर सकती है। पंजाब में उसने अभी शिरोमणि अकालीदल से गठबंधन करके चुनाव ( विधान सभा) का लड़ा था। कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
हरियाणा में इनेलो (अभय चौटाला) से गठबंधन करके वह अक्टूबर के चुनावों में कुछ हासिल नहीं कर पायी ।
मजबूत दलित राजनीति ने केवल दलित समाज, बल्कि व्यापक बहुजन समाज और इस देश के लिए जरूरी है। मैं ऐसा मानता हूं।
एक मित्र के सवाल का ज़वाब
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