ब्रूनो ! तुम कहाँ हो

मैं ब्रूनों नहीं हूँ, लेकिन वह मेरा आदर्श है. थोड़ा-सा ही सही उसके जैसा होना चाहता हूँ.

प्रेमकुमार मणि

 

जियोर्दानो ब्रूनो (Giordano Bruno) (1548 – 17 फ़रवरी 1600) इटली का दार्शनिक, गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता था जिसे कैथोलिक चर्च ने अफवाह फैलाने का आरोप लगाकर जिन्दा जला दिया था. ब्रूनो की धारणा थी कि - 'इस ब्रह्मांड में अनगिनत ब्रह्मांड हैं। ब्रह्मांड अनंत और अथाह है।'

यह भी कि - 'धरती ही नहीं, सूर्य भी अपने अक्ष पर घूमता है।'

चर्च का कहना था ब्रूनो की बातें गलत हैं. उसकी बातें बाइबिल की मान्यताओं को झूठ बताती हैं. ब्रूनो जीवन भर चर्च की कठोर यातनाएँ सहते रहा. उसने अपने जीवन के लगभग 8 वर्ष जेल में बिताए मगर हिम्मत नहीं हारी. 17 फरवरी, सन् 1600 ई. को धर्म के ठेकेदारों (तत्कालीन पोप और चर्च के पादरियों) ने खुलेआम रोम में भरे चौराहे पर ब्रूनो को खंभे से बांध कर मिट्टी का तेल छिड़क कर जला डाला था. उसके मुँह में कपड़े ठूँस दिये गए थे कि वह दर्द से कराह या चिल्ला नहीं सके.

ब्रूनो ने हँसते हुए आग में जलना स्वीकार किया. झुका नहीं. किसी से मुआफी नहीं मांगी. अपने विचार और निष्कर्षों पर अडिग रहा. उसे विश्वास था कि एक रोज दुनिया उनकी बात पर यकीन करेगी. अंततः सत्य की जीत हुई. दुनिया ने उसके सिद्धांतों को स्वीकार लिया.

रेनेसां काल के इस योद्धा को दुनिया आज भी याद करती है.

मैं ब्रूनों नहीं हूँ, लेकिन वह मेरा आदर्श है. थोड़ा-सा ही सही उसके जैसा होना चाहता हूँ. कोशिश होती है कि जिसे मैं सही या फिर गलत मानता हूँ, उसे अभिव्यक्त कर सकूँ. इस कारण ज़िन्दगी में अनेक बार अलग-थलग पड़ा हूँ. इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. बल्कि इससे हासिल एकाकीपन मुझे रचनात्मक ऊर्जा से समृद्ध करता है. मैंने कभी नहीं चाहा कि भीड़ मेरे साथ हो, या मैं भीड़ का हिस्सा हो जाऊँ. जब भी मुझे यह लगता है कि कोई मत या व्यक्ति खूब लोकप्रिय है, तो मुझे थोड़ी आशंका होती है और सोचता हूँ उससे सावधान हुआ जाय. भीड़ से हमेशा मैं परहेज करता हूँ.

काम करने की मेज पर मैं अगस्तस सीजर के ज़माने के रोमन कवि होरेस की एक पंक्ति -'भीड़ के लिए मत लिखो ' (" डोंट वर्क फॉर द क्राउड .. ") लिख कर रखा हुआ है. उससे मुझे बल मिलता है. कभी भीड़ के लिए नहीं लिखा. जो लिखा सही या गलत, मेरे विचार थे. जब गलत हुआ, उसे स्वीकारने में देर नहीं लगी. लेकिन कभी किसी की धौंस के आगे झुका नहीं.

मैंने जिनसे भी कुछ सीखा है, उनमें से अधिकांश अपने ज़माने में बहुत लोकप्रिय नहीं थे. बुद्ध के विचारों से प्रभावित हुआ हूँ, लेकिन क्या वह अपने ज़माने में सचमुच लोकप्रिय थे? ऐसा नहीं प्रतीत होता. उनका प्रभाव अशोक के ज़माने में बढ़ा, जब एक राजा ने उनका धर्म राजधर्म बना दिया. फिर एक जमाना ऐसा आया, जब बुद्ध की मूर्तियों से पूरा एशिया भर गया.

उनकी पूजा शुरू हो गयी. और यहीं से उनकी परम्परा विकृत होने लगी. क्राइस्ट को अपने विचारों के लिए शूली पर चढ़ाया गया. उनका प्रभाव उनकी मौत के कुछ सौ साल बाद बढ़ा जब रोमन सम्राट ने ही उनका धर्म स्वीकार लिया. फिर वह जमाना आया जब उनके चर्च के नाम पर ब्रूनो को उनसे भी अधिक बर्बर ढंग से जला कर मार दिया गया.

क्राइस्ट के नाम पर पादरियों और चर्च ने जो उत्पात मचाया है उसकी लम्बी कहानी है. कार्ल मार्क्स जब मरे तब उनके साथ गिनती भर लोग थे. उनकी बातों को पागलपन भरे विचार कहा गया. उन्हें पागलों का पैगम्बर तक कहा गया. उनकी मूर्तियां तब बनने लगीं जब स्टालिन सत्ता में आये. और यहीं से मार्क्सवाद की विकृति शुरू हुई. उनके नाम पर जो उत्पात हुए उसे रूस के कम्युनिस्ट अधिक जानते होंगे, जिन्होंने पर्जिंग अभियान के दौरान अपना बलिदान दिया. यही होता आया है.

लेकिन सिलसिला रुकता नहीं है. बुद्ध, क्राइस्ट, ब्रूनो, मार्क्स लगातार नये नये स्वरूप में पैदा होंगे. हमारे जमाने ने देखा गाँधी को गोली मार दी गई और आंबेडकर को मुख्य धारा से अलग-थलग कर दिया गया. लेकिन जो जितना था उसे समझने से दुनिया को कोई रोक नहीं सका. गाँधी की पूजा जिन लोगों ने की, मूर्तियां जिन लोगों ने गढ़ी, उन लोगों ने ही उन्हें विकृत किया.

आंबेडकर को विकृत करने वाले भी वही हैँ, जो उनकी मूर्तियां स्थापित कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं. सुकरात और ब्रूनो की पूजा नहीं हुई. उन्हें आत्मसात किया गया. सुकरात के विचारों ने ज़माने की वैचारिकी को चुपचाप बदल दिया. ब्रूनो के बाद उससे प्रभावित हो, यूरोप में विज्ञान और तकनीक का जमाना आया.

औद्योगिक क्रांति हुई, फ्रांसीसी क्रांति हुई. सबके पीछे एक मौन ब्रूनो था. एक जिद थी. वह गैलेलियो और वाल्तेयर के रूप में जन्मा. मार्क्स और डार्विन के रूप में उभरा. ब्रूनो क्राइस्ट से एक कदम आगे था. और आज का कोई विचारक ब्रूनो और उनकी संततियों से आगे होगा.

ब्रूनो डरते नहीं, बस होते हैं. उन्हें मारा नहीं जा सकता. अपमानित नहीं किया जा सकता. न कोई आग उन्हें जला सकती है, न कोई हवा उन्हें सुखा सकती है. मान-अपमान से वे परे होते हैं. वे जयकारों में नहीं, चिन्तन में जीते हैं. वे अपने पीछे भक्त नहीं, विचारक छोड़ते हैं. यही उनकी परंपरा है.

क्राइस्ट के जन्मदिन की पूर्वबेला पर मैं ब्रूनो को सलाम करता हूँ, क्योंकि उसमें कुछ बड़ा और समृद्ध क्राइस्ट मुझे दीखता है.

मेरी क्रिसमस ...


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  • 25/12/2024 KUMAR LAHARE

    बहुत अच्छा प्रेरणादायक उद्धरण.

    Reply on 12/04/2025
    जी, शुक्रिया