राजनांदगांव में प्रखर संवैधानिक वक्ता सुरेश माने को जाने?
यह गधों के समझ में नहीं आती और कुत्तों को हजम नहीं होती
सुशान्त कुमारतारीख 8 दिसम्बर को बौद्धधानी राजनांदगांव में अधिवक्ता डॉक्टर सुरेश माने, संस्थापक राष्ट्रीय अध्यक्ष बहुजन रिपब्लिकन सोशलिस्ट पार्टी का आगमन हो रहा है। उनको सुनने से पहले सिर्फ यहां यानी 'दक्षिण कोसल' के खबर पेज पर उनके विचारो से रू-ब-रू होइए। सुरेश माने संविधान विशेषज्ञ तथा पूर्व विभागाध्यक्ष विधि विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय हैं। आप मुंबई हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में अधिवक्ता का कार्य करते हैं।

वे कहते हैं कि कांग्रेस के पास अपनी कोई विचारधारा नहीं है जो बीजेपी से लडऩे के लिए, और ये ताकत अंबेडकरवादी लोगों के पास में हैं और इनको कांग्रेस कभी भी इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं बीजेपी के खिलाफ इसलिए इस बात को गंभीरता पूर्वक समझना होगा। वह कांशीराम के साथ काम किया हैं। 2015 तक बहुजन समाज पार्टी में विभिन्न पदों में कार्यरत रहे हैं। मायावती से विवादों के बाद अपनी पार्टी बीआरएसपी से लोकसभा के चुनाव लड़ा है।
उनका कहना है कि आज भारत के संविधान का 75वां साल शुरू हो गया है। संविधानकर्ताओं के अथक प्रयास महान अनुभव प्रखर बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए यह मकसद था कि भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पुनर्रचना हो। वह सवाल करते हैं कि 75वें साल में प्रवेश करते वक्त क्या हम लोगों ने ये मकसद पूरे हासिल किए? कहां तक सफल कहां तक असफल?
विशेषकर उसमें सरकारों का रोल, राजनैतिक दलों का रोल, राजनैतिक संस्कृति की भूमिका, ये जब हम देखते हैं तो हाल ही में महाराष्ट्र में जो चुनाव हुआ या कई राज्यों में हुए देखा जा सकता है लोकतंत्र में चुनाव महत्वपूर्ण हिस्सा है। और लोकतंत्र लोगों के वोटों के आधार पर चलना चाहिए लोकतंत्र का बुनियाद है सिद्धांत है।
उनका कहना है कि हम पिछले कई सालों से देख रहे हैं लोकतंत्र यह ‘मनीतंत्र’ का गुलाम हो चुका है। लोकतंत्र यह सरकारों के गलत नीतियों का गुलाम हो चुका है। और इसका पूरा परिणाम देखिए-तो महाराष्ट्र के अभी सम्पन्न हुए चुनाव में कई-कई जगह में एक-एक वोट की कीमत 5 हजार 10 हजार करोड़ों रुपए की बौछार क्या इसे हम लोकतंत्र कह सकते हैं?
संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग क्या इसको रोकने में सफल हैं? पांच साल पहले किसी एमएलए की प्रापर्टी 25 करोड़ हैं और 2024 में 225 करोड़ है। क्या है ये मायने अलग हैं- जनता के ज्वलंत मुद्दे महंगाई, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, लेकिन जिस देश में वोटों की लूट हैं चाहे फंडिंग के माध्यम से चाहे मशीन की माध्यम से, क्या यह लोकतंत्र हैं।
क्या इसको लोकतंत्र कहा जाएगा?और उसमें भी अगर कोई कार्पोरेट पूरी की पूरी किसी विशेष राजनैतिक दल को फंडिंग करती है चुनाव जीतने के लिए और चुनाव जीतने के बाद वह पार्टी सरकार लोगों के लिए चलाने के बजाय उसी कार्पोरेट के लिए चलाती है तो यह कौन सा लोकतंत्र हैं? क्या यह भारतीय संविधान द्वारा दिया लोकतंत्र हैं?
गंभीर विचार करने की जरूरत हैं। सोचने की जरूरत हैं। क्या और इसलिए 75 साल में संविधान द्वारा प्रस्थापित लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा कहीं हम लोगों ने उखाड़ के तो नहीं फेंक दिया। इसके बावजूद आज 75वें दिवस के मौके पर सरकारें, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, संविधान का महिमामंडन करेंगे पूजन करेंगे, कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया है कि हम संविधान का मंदिर ही बना देंगे। क्या इससे संविधान की गरिमा रहेगी।
क्या संविधान को शत-प्रतिशत लागू करके संविधान की विचाारधारा को लागू करके इस देश में संविधान का सम्मान होगा। यह सोचने की जरूरत है। और जो लोग संविधान के साथ अपना इमोशनल रिश्ता रखते हैं वो इमोशनल के आधार पर संविधान की सच्चाई को नहीं देख पाएंगे। उनको भी जब तक इस देश की बागडोर अपनी हाथ में लिए बगैर संविधान को सचमुच जमीन पर उतारना संभव नहीं होगा। क्या इस दिशा में हम सोचेंगे नहीं? आप जरूर सोचना?
महाराष्ट्र चुनाव के दौरान सुरेश माने ने कहा कि 26 जनवरी 1950 इस ऐतिहासिक दिन पर भारत एक संवैधानिक लोकतांत्रिक कल्याणकारी देश जरूर बना लेकिन 1950 से लेकर 2024 तक दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में वर्तमान में लोकतंत्र के नाम पर इलेक्ट्रोल ऑटोक्रेसी शुरू है और भारत भी उसका अपवाद नहीं है।
आज दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र का चेहरा बिल्कुल बदल गया है। उदारीकरण एवं ग्लोबलाइजेशन के दौर में बढ़ते कॉरपोरेट कल्चर के साथ-साथ दुनिया और अपने भारत देश में भी लोकतंत्र का भी कॉरपोरेटाइजेशन हो चुका है जिसके कारण सरकारें सरकार कम चलाती है और कॉर्पोरेट ज्यादा चलाते हैं।
इन देशों के राजनीतिक दल एवं नेताओं ने केवल चुनाव के लिए ही लोकतंत्र कबूल किया है और चुनाव होने के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने हुए नेता हुकुमशाह बनते जा रहे हैं। इस तरह लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक दल एवं नेता यह सारे तानाशाह अथवा हुकुमशाह बनने में लगे हैं। जो चुनाव दरम्यान तो लोकतांत्रिक नजर आते हैं लेकिन चुनाव उपरांत उनका व्यवहार और नीतियां तानाशाह जैसी ही होती है।
इसी के चलते ही हमारे देश में नेता और उनकी सरकार का प्रतीक बुलडोजर जैसे विध्वंसक सिंबल बने हैं। कुल मिलाकर भारत देश समेत अन्य देशों में लोकतंत्र की यात्रा प्रथम चरण में शुद्ध अविकसित लोकतंत्र बाद में लोकतंत्र से लोकतांत्रिक ऑटोक्रेसी और अब लोकतांत्रिक ऑटोक्रेसी से लोकतांत्रिक डिक्टेटरशिप यहां तक पहुंच चुके हैं। डिक्टेटरशिप की मात्रा कम ज्यादा जरूर है।
बिल्कुल इसी तर्ज पर 1950 में पैदा हुआ भारत का समाजवादी प्रजासत्ताक संविधान के मुताबिक कल्याणकारी स्टेट जरूर है संवैधानिक प्रावधान भी बहुत सारे हैं फिर भी वर्तमान में पिछले 8-9 साल से यह कल्याणकारी केपीटलाइज्म बन चुका है। इसी के कारण देश में बिलेनियर और ट्रिलिनियर की संख्या बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है और देश की कुल संपत्ति कुछ चंद धन्नासेठ की प्रॉपर्टी बन चुकी है।
अब इसके आगे का दौर जो है वह हम कई देशों को देखकर समझ सकते हैं जैसा की रसिया जहां दिखावे के लिए चुनाव तो होते हैं लेकिन एक ही राजकीय नेता अध्यक्ष बना रहे इसके लिए भी संविधान में बदलाव किए गए हैं। और यही खतरा भारत में आता हुआ नजर आ रहा है और उसके लिए पूरा संविधान बदलने की जरूरत नहीं है इस बात को आप अच्छी तरह से समझ ले।
संविधान के रहते यह सब कुछ किया जा सकता है यह दुनिया के देशों से समझ लो। मतलब रिकॉर्ड पर लोकतंत्र और संविधान रहेगा लेकिन व्यवहार में यह दोनों के नाम पर तानाशाह व्यक्ति तथा परिवार राज करेंगे और इस तानाशाही का चेहरा भी कभी-कभी कल्याणकारी तानाशाह का होगा जो उनके भक्तों की जरूरत को पूरा करेगा, जैसा की मंदिर और मुफ्त में राशन का बंटवारा करना।
ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में व्यक्ति को आगे बढ़ाया जाता है और राजनीतिक व्यवस्था को कम किया जाता है कमजोर किया जाता है जो हम वर्तमान में भारत की संवैधानिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में बड़े पैमाने में देख रहे हैं। क्योंकि तानाशाह अथवा हुकुमशाह कोई व्यवस्था के दायरे में अपने आप को बांधकर रखना पसंद नहीं करते उनके लिए यह सारी चीजें जंजीरों के समान है।
मैंने यहां जिन बातों का जिक्र किया है ऊन तमाम बातों का दु:ख और दर्द आपके भी दिलों दिमाग में जरूर है। लेकिन हम सॉल्यूशन और समाधान कहां ढूंढ़ रहे हैं। एक से बचने के लिए दूसरे का सहारा लेने जा रहे हैं। क्या यह स्थाई समाधान है? मेरी नजर से बिल्कुल नहीं।
क्योंकि इसके पहले भी हम कई दौर देख चुके हैं। यह टेंपररी पेन किलर के बजाए क्यों ना हम सारे संविधानवादी लोकतंत्रवादी सिर्फ राजनीतिक बदलाव के लिए नहीं बल्कि असलियत में स्ट्रक्चरल सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव को मानने वाले, स्वीकृत करके अमल करनेवाले, सचमुच देश के सभी संसाधनों का सभी लोगों के लिए उपयोग करनेवाले क्यों ना हम अपनी परिवर्तन वादी राजनीति जिसका नाम अंबेडकरवाद और अंबेडकरवाद की राजनीति है उसको मजबूत करें।
अंबेडकरवाद की राजनीति, सरंजामी, जातिवादी, ब्राह्मणवादी किसी भी शोषण को मजबूत करने वाली, राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ कर, समता, स्वतंत्रता, बंधुता एवं न्याय आधारित संविधानात्मक राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का नाम है जिसको मशहूर शायर राहत इंदौरी के शब्दों में कहा जाए तो ‘यह गधों के समझ में नहीं आती और कुत्तों को हजम नहीं होती’, इसके अलावा हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि पिछले 75 साल में कई दौर आ चुके हैं और गुजर भी चुके हैं।
इसलिए आप ऐसी सरकार चुनिए जो इन सारे चीजों से मुक्ति दे सकती है और अगर यह ताकत किसी में भी नहीं है क्योंकि वह भी इन लिखे सारे बीमारियों के शिकार हैं तो क्यों न खुद की ताकत पैदा करें, खुद के शक्ति पर भरोसा करें, खुद पर विश्वास रखें, जो एक मजबूत समाधान की नींव बन सकती हैं।
वह कहते हैं कि महाराष्ट्र में डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर का आंदोलन जन-जन तक पहुंचने वाले मशहूर कवि गायक शायर वामन दादा कर्डक इन्होंने अपनी एक हिंदी कविता में इसी नजर से लिखते हुए कहा हैं-
‘हम भी मतदाता है/चुन कर देने वाले/क्यू ना यहां हमारी सरकार बने’
बाकी आप सब समझदार हैं। हमें उनको जरूर सुनना चाहिए।
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10/12/2024
Gautam Kashinathji Jambhulkar
very nice article
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