एक महाकाव्यात्मक दस्तावेज: संविधान सभा की 12 खंड़ों की बहस
वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों को समझने की अनिवार्य किताब
सिद्धार्थ रामूभले ही संविधान सभा में हथियारों से कोई युद्ध नहीं लड़ा गया, लेकिन वह एक साथ युद्ध और शान्ति दोनों का रणस्थल था। जहां सिर्फ भारत नामक देश के भविष्य का सिर्फ नहीं फैसला हो रहा था, बल्कि भारत के विभिन्न समुदायों- आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी, क्षेत्रीय और राजनीतिक-- के नियति का भी फैसला हो रहा था। एक शब्द में कहें तो भारतीय जनता की नियति का भी फैसला हो रहा था।

एक महाकाव्यत्मक दस्तावेज है: संविधान सभा की 12 खंड़ों की बहस - इस देश के अतीत, स्वतंत्रता आंदोलन, देश के वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों को समझने की अनिवार्य किताब
संविधान सभा की 12 खंड़ों की 4251 पृष्ठों के इस दस्तावेज की तुलना यदि भारत के किसी ग्रंथ से की जा सकती है, मेरी नजर में वह महाभारत है।
भले ही संविधान सभा में हथियारों से कोई युद्ध नहीं लड़ा गया, लेकिन वह एक साथ युद्ध और शान्ति दोनों का रणस्थल था। जहां सिर्फ भारत नामक देश के भविष्य का सिर्फ नहीं फैसला हो रहा था, बल्कि भारत के विभिन्न समुदायों- आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी, क्षेत्रीय और राजनीतिक-- के नियति का भी फैसला हो रहा था। एक शब्द में कहें तो भारतीय जनता की नियति का भी फैसला हो रहा था।
इसमें किसको क्या मिला? किसने क्या खोया? किसको किन-कारणों कुछ मिला, किसने किन कारणों जो मिला हुआ था, उसे भी खो दिया? इसका भी उत्तर उसमें मिलता है।
संविधान सभा में निर्णायक समूह और व्यक्ति कौन थे, कैसे उन्होंने भारत की नियति का फैसला किया, इसे भी यह किताब पढ़कर समझा जा सकता है
कैसे संविधान सभा की बैठकों की शुरुआत की कुछ महीनों बाद भारत का भारत-पाकिस्तान नामक दो देशों में बंटवारा हो गया। इस बंटवारे ने कैसे संविधान सभा की करीब-करीब पूरी दिशा बदल दी।
कैसे सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों ने सुनिश्चित प्रतिनिधित्व के अपने सारे अधिकार खो दिए, वे संवैधानिक तौर पर पूरी तरह बहुसंख्यकों की कृपा भरोस छोड़ दिए गए, जिसके परिणाम स्वरूप आज करीब राजनीतिक तौर पर प्रतिनिधित्वहीन हो गए हैं, इसका जवाब यह दस्तावेज देता है।
कैसे, किन परिस्थितियों और संघर्षों के चलते दलित प्रनिधिनिधियों ने अपने प्रतिनिधित्व और आरक्षण का अधिकार बचा लिया। कैसे उनका यह संघर्ष आदिवासियों और भविष्य में अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण का आधार बना इसका जवाब यह महाग्रंथ देता है।
यह महाग्रंथ भारतीय लोकतंत्र के सफलता और असफलता के कारणों को समझने के सारे बुनियादी सूत्र मुहैया करता है। भारतीय लोकतंत्र की सफलता के जश्न और उसकी असफलता हताशा की जिस चुनौती का सामना कर रहे हैं, उससे कैसे पार पाया जा सकता है, उसके बुनियादी सूत्र इसमें मौजूद हैं।
आज के भारत के समाने कोई भी संघर्ष और चुनौनितों का कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जो संविधान सभा के समाने उपस्थित न हुआ है। कुछ बीज रूप में है, तो कुछ विस्तृत पृष्ठों में हैं।
महाग्रंथ की तुलना करने के लिए मुझे महाभारत जैसे महाकाव्य ही क्यों सूझा? इसकी कई वजहें हैं- पहली तो यह कि महाभारत में जितने तरह के विषयों पर चर्चा, वाद-विवाद और संघर्ष हुआ है, वह बहुत ही व्यापक हैं, सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो जो महाभारत में न आया है। वैसा इस महाग्रंथ में भी दिखता है।
इसकी दूसरी वजह यह है कि महाभारत में जिनते तरह के विविध और जटिल चरित्रों वाले पात्र हैं, उतने ही पात्र संविधान सभा में दिखते हैं। सबकी अपनी धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि अलग-अलग है। बहुत सारी बोली-बानियों के लोग हैं। उनकी अलग-अलग भाषा है।
अलग-अलग चीजों के विशेषज्ञ हैं। अनके व्यक्तित्व का स्याह पक्ष है, तो बहुत उजला पक्ष भी है। सबके अपने-अपने व्यक्तित्व के अंतर्विरोध हैं। कोई आदर्शवादी है, तो कोई पूरी तरह भाववादी है। कोई वस्तुगत है तो कोई पूरी तरह आत्मगत।
चरित्रों की, विचारों की, संवेदनाओं की, आस्थाओं की और प्रतिबद्धताओं की इतनी विविधा है कि एक बड़ा सा कोलॉज सा बनता है
एक बड़ी बात की संविधान सभा में हिस्सेदारी की प्रक्रिया में सभी बदल रहे हैं। सभी कुछ अपना छोड़ रहे हैं, कुछ नया अपना रहे हैं। एक दूसरे को समझने की कोशिश करे हैं।
महाभारत की तरह यह भी सही है कि एक राजवंश के लोग बहुसंख्या में हैं, जैसे संविधान सभा में करीब 60 प्रतिशत से अधिक लोग एक जाति-ब्राह्मण जाति- के लोग हैं। लेकिन वहां एकलव्य और शंबूक के वंशज भी हैं और ताकतवर स्थिति में हैं, उनकी आवाज को कोई दबा नहीं सकता है। उनमें कुछ तो पूरी संविधान सभा को काफी हद तक दिशा दे रहे हैं, जैसे आंबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा आदि।
इस महाकाव्य के एक बड़े नायक आंबेडकर के व्यक्तित्व की विभिन्न पक्षों को भी इससे समझा जा सकता है। संविधान सभा के करीब सभी लोग,उनसे सहमत और असहमत दोनों उनकी नैतिकता, निष्पक्षता, वस्तुगतता, तार्किकता, दार्शनिकता, विद्वता, प्रतिभा,अध्यक्षन, संवैधानिक कानूनी मामलों की विशेषज्ञता, अथक परिश्रम करने की क्षमता, साहस और धैर्य के कायल हैं।
संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद की सभा के अध्यक्ष के रूप में निष्पक्षता पर संविधान सभा के किसी सदस्य ने शायद कभी सवाल उठाया हो। वे खुद के न्याय के कुर्सी पर बैठे न्यायाधीश के रूप में निष्पक्ष,पारदर्शी और तटस्थ व्यवहार का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
सरदार बल्लभभाई पटेल के व्यक्तित्व के विभिन्न रूप संविधान सभा में सामने आते हैं
लेकिन ये वे लोग हैं, जो चर्चित रहे हैं,लेकिन संविधान सभा में ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनकी भले ही उतनी चर्चा किन्हीं कारणों से न होती हो, लेकिन इस महाग्रंथ में उनकी भूमिका बहुत बड़ी है। जैसे तमिलनाडु के दलित प्रतिनिधि मुनिस्वामी पिल्ले,अदभुत, अद्वितीय और असाधारण चरित्र।
यह सच है कि महाभारत की तरह इस ग्रंथ में भी दलित-आदिवासी प्रतिनिधियों के छोड़ दिया जाए, तो मेहनतकश तबकों के बीच के लोग नहीं के बराबर हैं। ज्यादात्तर मध्यवर्गीय, उच्च मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय समूह के लोग हैं।
महिलाएं तो करीब 15 की संख्या में हैं, लेकिन उनकी स्वतंत्र आवाज बहुत कम सुनाई देती है। महाभारत जैसी दममदार महिला चरित्र अनुपस्थित हैं।
हिंदी,अंग्रेजी और कई अन्य भारतीय भाषाओं में यह किताब मुफ्त में ऑनलाइन पीडीए कॉपी उपलब्ध हैं। एक ऐसा महाग्रंथ है, जिसे संभव हो तो जरूरी पढ़ना चाहिए।
यह यह सिर्फ कानूनी किताब नहीं है। इस पढ़ते समय साहित्य का भी सुख मिलता है,यह खुद को पढ़ने के लिए बाध्य करती है। कानूनी शब्दावलियों की वोर करने वाली जगहें भी हैं। इसे आधुनिक काल के महाभारत की तरह पढ़ना चाहिए।
Add Comment