नेहरू मोह से आगे बढ़ें...

मेरी नज़र में नेहरू...

मोहन मुक्त

 

जनचौक में अभी नेहरू पर एक टिप्पणी देखी... पहली नज़र में तार्किक लगने के बावजूद बारीक तौर पर समस्याग्रस्त लगी. तो नेहरू पर अपना नज़रिया एक बार फिर साझा कर देता हूं... जो मुझे लगभग हर साल नेहरू के जन्मदिन पर ना चाहते हुए भी साझा करना पड़ता है-

अपने आधुनिक, प्रगतिशील विचारों और धर्म निरपेक्ष प्रतिबद्धता के चलते नेहरू आज भी दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहते हैं और उनके बारे में सोशल मीडिया में अनर्गल सामग्री और झूठा प्रोपेगेंडा बहुत अधिक प्रचारित किया जाता है. इस तरह का दुष्प्रचार दक्षिणपंथी विचारधारा का विश्वव्यापी चरित्र है.

इस दुष्प्रचार के इतर क्या नेहरू प्रगतिशीलता ,वैज्ञानिक चेतना धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद में विश्वास करने वालों के प्रतीक पुरूष के रूप में आदर्श हो सकते हैं जिनकी आलोचना नही हो सकती?

मेरा मानना है कि नेहरू में बहुत अंतरविरोध हैं जो स्वतंत्रता आन्दोलन और लम्बे समय तक विकल्पविहीन और विपक्षविहीन सरकार चलाने के दौरान भी कई अवसरों पर स्पष्ट होते हैं.

ये अंतरविरोध इतने अधिक और इतने स्पष्ट हैं कि मेरे लिये नेहरू को किसी रोल मॉडल की तरह देखना संभव नही है .कुछ उदाहरण उनके जीवन लेखन प्रतिक्रियाओं/ अप्रतिक्रियाओं से दे रहा हूँ.

1. एक लेखक के नाते नेहरू बेहद मोहक हैं, मुझे प्रिय हैं...अगर वे पेशेवर पूर्ण कालिक इतिहासकार या लेखक होते तो निश्चित ही असाधारण होते और अच्छा लेखन पढ़ने के इच्छुक लोगों के लिए ये बहुत ही शानदार बात होती... उनकी 'ग्लिम्स ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री' मुझे पसंद है, Discovery of india केवल लेखन की दृष्टि से एक महान रचना है लेकिन इसमें जाति संगठन पर आधारित भारतीय समाज के अंतरविरोधों पर कोई ध्यान नही दिया गया है बल्कि कुछ जगहों पर इसकी अप्रत्यक्ष प्रशंसा की गई है.

2. नेहरू की नज़र में दलितों के अलग राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे की खास अहमियत नही थी. इस मुद्दे पर गांधी के अनशन और सक्रियता को उन्होने गैर राजनीतिक मानते हुए संत महात्माओं का काम बताया .

3. समाजवाद के सवाल पर नेहरू धोखेबाज़ साबित हुए. कांग्रेस के भीतर CSP से दूरी बनाये रखी. वामपंथी और गांधी के ख़ास एक साथ बने रहे. उन्होंने त्रिपुरी अधिवेशन से पहले अध्यक्ष चुने गये सुभाष चन्द्र बोस द्वारा कांग्रेस के अनुदार नेताओं की आलोचना करने पर बोस से नाराजगी जताई जबकि वैचारिक रूप से उन्हें बोस के साथ होना चाहिये था.

असल में नेहरू, गांधी, वामपंथियों कांग्रेस के अनुदार खेमे और समाजवादी खेमे सभी के साथ संतुलन बना पाये. ये काम कोई आदर्शवादी क्रांतिकारी नही कर सकता इसके लिये जो चालाकी चाहिये वो नेहरू में पर्याप्त थी. दक्षिणपंथी गोविन्द बल्लभ पंत के साथ नेहरू की जुगलबंदी भी इसका उदाहरण है.

4. आजादी के बाद नेहरू ने समाजवाद के सवाल पर कहा था कि ग़रीबी का समाजवाद नही होता. ब्लित्ज को दिये गये उनके विस्तृत इंटरव्यू को देखें, किताब का नाम है 'नेहरू जी की मनोभूमि'(माइंड ऑफ मिस्टर नेहरू, करंजिया)

...अगर बारीकी से देखें तो नेहरू की आर्थिक नीति राज्य समाजवाद की नही वरन राज्य पूंजीवाद की थी. और पूंजीपतियों द्वारा बनाये गये 'बांबे प्लान' से प्रभावित थी. 'समाजवादी' नेहरू और ग्राम स्वराजी गांधी की पूंजीपति वर्ग पर निर्भरता इतनी अधिक थी कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही पूंजीपति वर्ग राष्ट्रीय नीतियों को तय करने की स्थिति में आ गया था.

5. धर्म परिवर्तित दलितों के आरक्षण को प्रेजीडेंशियल आर्डर द्वारा समाप्त किया गया और नेहरू ख़ामोश रहे. हिन्दू कोड बिल वो पास नही करा पाये. उन्होंने घोषणा की थी कि बिल के असफल होने की स्थिति में वो और उनकी सरकार इस्तीफ़ा दे देगी लेकिन वो ऐन मौके पर पीछे हट गए थे, पिछड़े वर्गों के लिये बने काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट पर उन्होने कहा था इस तरह तो सभी भारतीय पिछडे हो जायेंगे. यह उनकी सामाजिक मामलों पर कम समझ या अनदेखी को दिखाता है. सामाजिक न्याय के विषय में नेहरू को मूर्ख या धूर्त भी कह सकते हैं उनके एक पत्र को देखें-

1 जून 1961 को उन्होंने भारत के मुख्यमंत्रियों को आरक्षण के संदर्भ में एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने लिखा है कि-

“...आवश्यकता इस बात की है कि इस जाति या उस समूह के नाम पर जिए जा रहे आरक्षण तथा विशेष सुविधाएं देने की पुरानी आदत को छोड़ना होगा।...यह सच है कि हम अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए मदद देने के कुछ नियमों तथा परिपाटी से बंधे हुए हैं...फिर भी मैं किसी प्रकार के आरक्षण को नापसंद करता हूं, विशेष रूप से सेवाओं में आरक्षण को बिलकुल नापसंद करता हूं।

मैं हर उस बात का कड़ा विरोध करता हूं, जो अयोग्यता और द्वितीय श्रेणी के स्तर की ओर ले जाती हो।…यदि हम संप्रदाय और जाति के आधार पर आरक्षण देते हैं, तो हम प्रतिभाशाली तथा योग्य लोगों की उपेक्षा करेंगे तथा इस प्रकार सेकेंड रेट तथा थर्ड रेट रह जाएंगे। मुझे दुख है कि जाति के आधार पर आरक्षण अब तक चलता आ रहा है। मुझे इस बात पर भी आश्चर्य है कि प्रमोशन को भी जाति और समुदाय के आधार पर दिया जाता है। यह न केवल गलत रास्ता है, बल्कि बरबादी है।”

(स्रोत- मंडल कमीशन रिपोर्ट, संपादक, चंद्रभूषण सिंह यादव, पृ. 72-73, मूल स्रोत- जवाहरलाल नेहरू, लेटर्स ऑफ चीफ मीनिस्टर्स, 1947'964, वाल्यूम-5 आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989)

भारत के प्रधानमंत्री की प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर यह समझ विनाशकारी कही जा सकती है... आरक्षण विरोधी अपरकास्ट वामपंथी इतिहासकारों और बौद्धिकों को ये समझ और नेहरू बहुत प्रिय है इसमें कोई आश्चर्य नहीं

इस महत्वपूर्ण स्रोत को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने के लिये Siddharth Ramu सर का हार्दिक शुक्रिया

6. विभाजन के समय उनके रुख में सत्ता पाने की जल्दबाज़ी साफ़ दिखती है, राममनोहर लोहिया ने  'भारत विभाजन के गुनहगार' किताब में नेहरू को तार्किक तौर पर विभाजन के मुख्य गुनहगारों में एक साबित किया है. लोहिया की दक्षिणपंथियों के साथ समझदारी साझा करने की संदेहास्पद भूमिका और कई जगह उनके समझ में न आने वाले नेहरू विरोध के बावजूद विभाजन पर नेहरू की भूमिका को लेकर किये गए उनके दावे विश्वास लायक मालूम पड़ते हैं.

7. भारत के संविधान का जो उद्देश्य संकल्प नेहरू ने संयुक्त संविधान सभा में प्रस्तुत किया उसमे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिये जो रक्षोपाय और प्रतिनिधित्व के प्रावधान थे वे विभाजन के बाद हटा लिये गये, पटेल ने कहा जिसे धार्मिक प्रतिनिधित्व चाहिए वो पाकिस्तान चला जाए, नेहरू ख़ामोश रहे, जिन मुस्लिमों ने अबुल कलाम आज़ाद की बात मानते हुए भारत में रहना चुना उनको संवैधानिक संरक्षण की और अधिक आवश्यकता थी क्योकि वे और अधिक वल्नरेबल हो गये थे...

जिन लोगों ने सचेत होकर आप पर विश्वास कर आपके साथ रहना चुना है उनके अधिक संकटग्रस्त हो चुके अस्तित्व को संवैधानिक संरक्षण देना बेहद ज़रूरी थाअगर नेहरू इस सिद्धांत में विश्वास करते तो उन्हें अपने द्वारा प्रस्तुत पूर्ववर्ती उद्देश्य संकल्प के साथ खड़ा होना चाहिए था लेकिन साबित हुआ कि उनका उद्देश्य संकल्प किसी स्टेट्समैन का सैद्धांतिक संकल्प ना होकर विभाजन टालने की सौदेबाज़ी थी.

इससे यह भी साबित कर पाने का पर्याप्त आधार मिल जाता है कि विभाजन समर्थकों का यह कहना सही था कि अलग हुए बिना मुस्लिमों को उनके अधिकार नहीं मिल सकते... नेहरू ने यहाँ जो रुख दिखाया उसका दुष्परिणाम भारत में मुस्लिमो और अन्य अल्पसंख्यकों को आज भोगना पड़ रहा है.

8. नेहरू का सत्तावादी अलोकतांत्रिक चरित्र तब चरम पर दिखता है जब वो केरल की चुनी हुई वाम सरकार को बर्खास्त कर देते हैं. कम्युनिस्टों का दमन तो उन्होने तेलंगाना में भी किया था लेकिन तब वे (कम्युनिस्ट) हथियार बन्द थे. चुनावी राजनीति में केवल कम्युनिस्ट नेहरू को ठोस और वास्तविक चुनौती दे पाये लेकिन अलोकतांत्रिक चरित्र दिखाते हुए चुनी हुई वाम सरकार के साथ उन्होंने जो व्यवहार किया वो उन्हें किसी तानाशाह से कम नही ठहराता.

वे केवल एक बार हारे और उस हार को बर्दाश्त नहीं कर पाये... अब उन्हें कैसे लोकतांत्रिक कहा जाये... शायद वे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा क्रमशः चांग काई शेक व राष्ट्रवादी दल को बेदखल किये जाने के विकास की परिघटना के कारण केवल कम्युनिस्ट ताक़तों से डरते थे...

इस बात को देखते हुए वर्तमान वामियों का नेहरू प्रेम उनकी (वामपंथी लोगों) अपनी समझ की कमी को स्पष्ट करता है.

9. नेहरू ने सार्वजनिक तौर पर अटल बिहारी के भविष्य में प्रधानमंत्री बनने की बात कही थी. नगन्य ताकत वाले जनसंघियों की कौन सी संभावना वो देख पा रहे थे कि भविष्य के भारत का वारिस उन्हें बताया था. इस परिणति को रोकने के लिये उन्होने ख़ुद क्या किया .कहने की ज़रुरत नहीं कि नेहरू की भविष्यवाणी सही साबित हुई.

ये और ऐसी कई बाते हैं जो मेरे लिये नेहरू को आदर्श नही रहने देती, लेकिन साथ ही मेरा यह भी मानना है कि अंग्रेजों के भारत से चले जाने के समय कांग्रेस में नेहरू से बेहतर दूसरा नेता भी नही था...और गाँधी के साथ, इस 'बेहतर 'नेता और आज़ादी के आंदोलन की वैचारिक सीमाओं का परिणाम ही हमारा आज का भारत है.
 


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