आरएसएस के 100 वर्ष बनाम संविधान के 75 वर्ष

आरएसएस की सोच को पराजित करने की अनिवार्य शर्ते क्या हैं?

सिद्धार्थ रामू

 

भारतीय संविधान के भी 75 वर्ष कामयाबी के रहे हैं। हालांकि उसके सामने शुरू से चुनौतियां रही हैं। इस चुनौती को सबसे कम शब्दों में डॉ. आंबेडकर ने इस रूप में सूत्रबद्ध किया था। उन्होंने कहा था कि हम बुनियादी तौर पर अलोकतांत्रिक समाज में लोकतंत्र स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।

आरएसएस घोषित तौर पर संविधान के आदर्श, दश्न, विचार, मूल्यों और संवैधानिक आचरण का विरोधी रहा है। लेकिन संविधान की पैरौकार शक्तियों ने लोकतांत्रिक संघर्ष को सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र तक सीमित रखा, समाज और अर्थव्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाने के लिए निर्णायक संघर्ष नहीं किया।

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने भारतीय समाज के सभी कभी के अधीनस्थ समुदायों को इस चेतना से संपन्न बना दिया है कि जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर कोई इंसान किसी दूसरे इंसान से कमतर या श्रेष्ठ नहीं हैं। कोई किसी की अधीनता-वर्चस्व में जीने के लिए पैदा नही हुआ है।

समता और स्वतंत्रता की यह भावना भारतीय संविधान की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिसकी स्वीकृति और घोषणा भारतीय संविधान का मूल तत्व रहा हैं। हालांकि की बंधुता की भावना से आज भी भारतीय समाज कोसो दूर हैं।

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था ने एक हद तक व्यवहार में भी भारतीय समाज को समतामूलक बनाया। जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की समानता और स्वतंत्रता की आकांक्षा-चाहत और उसे व्यवहार में उतारने की उनकी दिख रही कोशिश भी एक बड़ी उपलब्धि है, जिसे भारतीय संविधान स्वीकृति देता है।

आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के बुनियादी तत्व निम्न हैं-

1-हिंदू इस देश में पहले दर्जे के नागरिक हैं। अन्य धार्मिक समुदाय मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन आदि दोयम दर्जे के हैं।

2-वर्ण-जाति व्यवस्था भारतीय समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके सबसे घृणास्पद नतीजों, जैसे छूत-अछूत आदि को तो वे सिद्धांत रूप में स्वीकार नहीं करते, लेकिन वर्ण-जाति व्यवस्था के मूल दर्शन, विचार, मूल्य और व्यवस्था को पूरी तरह स्वीकार करते हैं। आज भी समता की कभी बात नहीं करते, समरसता की बात करते हैं।

समरसता का मतलब वर्ण-जाति और पितृसत्ता बनी रहे, लोग इसे सहज तौर पर स्वीकार करें। कोई समता की मांग कर इस समरता को तोड़ने की कोशिश न करे। तय है कि वर्चस्वशाली समुदाय तो समरता को भंग करने को क्यों सोचेंगे, वंचित-अधीनस्थ समूह ही समता और स्वतंत्रता की मांग करके, उसे व्यवहार में लागू करने की कोशिश करके समरता को तोड़ते हैं।

3- पितृसत्ता आरएसएस का एक अन्य बुनियादी मूल्य हैं। स्त्री-पुरूष के बीच जीवन के सभी क्षेत्रों में समता कायम हो और स्त्री से पुरूष किसी तरह की अधीनता की स्वीकृति की उम्मीद न करे यह आरएसएस कभी भी स्वीकार नहीं किया है। स्त्री-पुरूष के बीच समरता और सामंजस्य हो वह यह कहता है।

यह समरता तभी बनी रह सकती है, जब स्त्री पुरूष के वर्चस्व को स्वीकार करे, उसकी अधीनता को स्वीकार करे। आरएसएस स्त्री-पुरूष के बीच समता के आधार पर प्रेम और सामंजस्य हो सकता है, इसकी कल्पना नहीं कर पाता।

4- नरेंद्र मोदी परिघटना के बाद आरएसएस खुले तौर पर कार्पोरेट और पूंजी के मालिकों के पक्ष में खड़ा हो गया है। मेहनतकशों और उनके मालिकों के बीच में उसने मालिको का पक्ष खुलकर चुन लिया है। हालांकि सामंती राजा-महाराजाओं और जमींदारों से उसका शुरू से गठजोड़ रहा है। लेकिन पूंजी के बड़े मालिकों-कार्पोरेट के प्रति हिचक दिखाता रहा है, लेकिन 2014 के बाद खुलकर उनके साथ गलबहियां डाल लिया।

भारतीय संविधान और आरएसएस

भारतीय संविधान का दर्शन, विचार, मूल्य और संवैधानिक-कानूनी व्यवस्था आरएसएस के हिंदू राज की इन बुनियादी प्रतिद्धताओं के खिलाफ है। भारतीय संविधान सर्वस्वीकृत एक दस्तावेज के रूप में आरएसएस के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहा है।

आरएसएस और उसके आनुषांगिक संगठनों ने लंबे समय तक तो संविधान को स्वीकार नहीं किया, उसे अस्वीकृत और खारिज करते रहे हैं। अब उन्होंने अपनी रणनीति और कार्यनीति बदल ली है। वे भारतीय संविधान को औपचारिक और सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार करके उसकी बुनियाद पर हमला कर रहे हैं।

इसके कुछ साफ उदाहरण हैं-

1-संविधान और कानून की धज्जिजां उड़ाते हुए बाबरी मस्जिद तोड़कर उन्होंने यह घोषणा कर दिया था कि बहुमत के नाम पर वे जो चाहें, वह कर सकते हैं। कोई संविधान और कानून उनके मार्ग में रोड़ा नहीं बन सकता है। अपनी विचारधारा और ताकत का इस्तेमाल करके संविधान के न केवल पैरोकारों को, उसके सबसे बड़े संरक्षक सुप्रीकोर्ट को अपने चरणों में लोटने के लिए तैयार या बाध्य कर सकते हैं।

2- मुसलमानों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से करीब-करीब वंचित करके उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे जिसको चाहें राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित कर सकते हैं।

4-आर्थिक आधार पर गैर एससी-एसटी और ओबीसी को आरक्षण ( EWS) देखकर उन्होंने संविधान की धज्जियां उड़ा दीं। संविधान को उलट दिया। आरक्षण की आंबेडकर की पूरी अवधारणा की ऐसी की तैसी कर दी।

5- संवैधानिक संस्थाओं को उन्होंने संविधान के पूरी तरह खिलाफ खड़ा कर दिया। संविधान संस्थाएं और उनके प्रमुख आरएसएस के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं। सुप्रीकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश भगवान से निर्देश लेकर साक्ष्य और कानूनों की किनारे करके बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि घोषित कर देता है और अन्य साथी जजों के साथ मिलकर इसका जश्न पांच सितारा होटल में मनाता है।

राजनीतिक लोकतंत्र का सबसे गारंटर चुनाव आयोग उनकी जेब में है

5- लोकतंत्र की चौथा खंभा आरएसएस की पूरी तरह चाकरी कर रहा है। उनके चरणों में लोट रहा है।

ऐसे जो लोग संविधान के पैरोकार हैं, उनकी जिम्मेदारी क्या है?

भारत में संविधान के दर्शन, विचार, मूल्य और संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देने वाली सबसे बड़ी ऐतिहासिक शक्ति आरएसएस को संविधान के आधार पर न केवल चुनौती दी जा सकती है, बल्कि उसे इतिहास के पटल से हटाया भी जा सकता है।

लेकिन ये बुनियादी ऐतिहासिक कार्यभार हाथ में लेना पड़ेगा-

राजनीतिक लोकतंत्र के साथ समाज को लोकतांत्रिक बनाया जाए-

जैसा आंबेडकर ने कहा था कि संविधान के मार्ग में सबसे चुनौती भारतीय समाज का अलोकतांत्रिक होना है। इस अलोकतांत्रिक समाज के चलते बहुलांश भारतीय अपने दर्शन, चिंतन, मूल्यों और आचरण में अलोकतांत्रिक हैं। भारत में आरएसएस जैसी शक्ति के फलने-फूलने की यह सबसे बड़ी जमीन हैं।

भारतीय समाज लोकतांत्रिक बनाने बुनियादी शर्तें-

वर्ण-जाति श्रेणीक्रम की पूर्ण स्वीकृति-

1-वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम की पूर्ण अस्वीकृति। यह सबके ऊपर लागू होती हैं। जिस तरह ब्राह्मण का यह सोचना की वह सबसे श्रेष्ठ है, एक अलोकतांत्रिक मूल्य है, उसी तरह किसी यादव, जाट, मराठा, कुर्मी, कुशवाहा, पटेल आदि का भी किसी दूसरे के संदर्भ यह सोचना और उसके आधार पर व्यवहार भी अलोकतांत्रिक मूल्य है।

द्विज-सवर्णों से जीवन के सभी क्षेत्रों में पूर्ण बराबरी के चाह रखने वालों को खुद भी गैर-द्विजों दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के बीच पूरी बराबर कायम करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

हम ब्राह्मण की श्रेष्ठता नहीं स्वीकार करेंगे, लेकिन बाल्मीकि-मुसहर आदि की तुलना में खुद श्रेष्ठ मानेंगे और उसका बर्ताव करेंगे इस सोच और आचरण के साथ संविधान की रक्षा नहीं की जा सकती है और आरएसएस और उसनके आनुषांगिक संगठनों को चुनाती नहीं दी जा सकती है।

पितृसत्ता की पूर्ण अस्वीकृति-

हम वर्ण-जाति आधारित ऊंच-नीच की व्यवस्था को चुनौती देंगे, हर हर स्तर पर बराबरी के लिए संघर्ष करेंगे, लेकिन पुरूष के तौर पर महिलाओं को दोयम दर्जे का मानेंगे और वैसा ही व्यवहार करेंगे। यह सोच और आचरण पूरी तरह संविधान के खिलाफ हैं। यह एक अलोकतांत्रिक सोच है।

वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता दोनों मिलकर भारतीय समाज को सबसे ज्यादा अलोकतांत्रिक बनाते हैं। इन दोनों में किसी की स्वीकृति और उसके आधार पर आचरण आरएसएस को मजबूत करता है और संविधान के खिलाफ जाता है। अकारण नहीं है कि फुले, शाहू जी, आंबेडकर,पेरियार और सभी बहुजन-श्रमण नायक वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खिलाफ एक साथ समान संघर्ष कर रहे थे।

यह नहीं चलेगा कि हम पुरूष के रूप में हर स्तर अन्य पुरूषों से बराबरी चाहेंगे, उसके लिए संघर्ष करेंगे और दूसरी तरफ महिलाओं को दोयम दर्जे की स्थिति के खिलाफ मुंह नहीं खोलेंगे, बल्कि किसी न किसी बहाने उनके ऊपर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहेंगे।

धार्मिक अल्पसंख्यकों से घृणा का हर दर्शन, विचार, मूल्य और आचरण का त्याग-

भारतीय संविधान धर्म के आधार किसी तरह के गैर-बराबरी और असमानता के खिलाफ है। यदि हमसे कोई व्यक्ति धर्म के आधार पर किसी धार्मिक अल्पसंख्यक समूह को कमतर मानता है और उसके आधार पर आचरण करता है, तो आरएसएस को खाद-पानी देता है और संविधान के आदर्शों-मूल्यों और उसके प्रावधानों के खिलाफ काम करता है।

जिस तरह किसी भी तरह के वर्ण-जाति और पितृसत्तावादी वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष करना संविधान रक्षा की अनिवार्य शर्त है, उसी तरह धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हर तरह के भेदभाव और नाइंसाफी के खिलाफ संघर्ष करना भी संविधान के रक्षा की बुनियादी शर्त हैं। सिर्फ बातों में नहीं, सिर्फ कथनी में नहीं करनी में भी।

आरएसएस के दर्शन, वैचारिका, मूल्य, आदर्श और आचरण के खिलाफ संघर्ष की आज बुनियादी शर्त यह हो गई है कि भारतीय समाज के पूरी तरह लोकतांत्रिकरण के लिए संघर्ष की शुरूआत की जाए।

भाारतीय संविधान के वास्तुकार आंबेडकर की बात को लागू किया जाए कि राजनीतिक लोकतंत्र पूरी तरह अलोकतांत्रिक समाज में ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सकता है। वह तभी टिकेगा, सामाजिक और उसके साथ आर्थिक लोकतंत्र भी सामाज में कायम किया जाए।

आइए 26 नवंबर 2024 से लेकर 26 नवंबर 2025 तक संविधान का जश्न मनाया जाए और भारत समाज को लोकतंत्रिक बनाने के लिए संघर्ष की नए सिरे से शुरूआत की जाए। एक साल संविधान और संवैधानिक मूल्यों के लिए समर्पित कर दिया जाए।


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