ब्राह्मणवाद और कॉलेजियम के बीच अधर में फंसता छत्तीसगढ़ मानवाधिकार
सुधा जेल में रहने के बाद भी छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की महासचिव बनी रही?
सुशान्त कुमारप्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता डिग्री प्रसाद चौहान ने छत्तीसगढ़ पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) के भीतर घट रहे घटनाओं में अपनी गंभीर आपत्ति और नाराजगी जाहिर की है और 6 एवं 7 नवंबर को हुए चुनाव को सिरे से ब्राह्मणवादी वर्चस्व करार दिया है। उन्होंने आरोप लगाया है कि सुधा भारद्वाज जेल में रहने के बाद भी छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की महासचिव बनी रही। उन्होंने कहा कि सुधा के जेल जाने के बाद सभी समर्थक और पीयूसीएल सदस्य सांगठनिक कार्यो से विमुख होने लगे और व्हाट्सएप तथा फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में दलित-आदिवासी नेतृत्व को बदनाम और ट्रॉल करने के काम में जुट गए और इस नेतृत्व के खिलाफ गुटबंदी कर इसे उखाड़ फेंकने का काम किया।

उन्होंने इसे सांगठनिक कार्यशैली में एड्हाक और कालेजियम प्रणाली का पोषक करार दिया है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि साजिशन और जबरन बलौदाबाजार प्रेसवार्ता को रोका गया।
भारत जैसे बहु विविधता वाले देश - समाज में जहां हजारों सालों से एक ही श्रेष्ठी वर्ग - जाति के लोग सर्वोच्च शिखर पर रहते आये हो, उस जैसे देश में आजादी और संविधान को अंगीकार करने के पश्चात सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांत को व्यावहारिक अर्थों में उस कथित श्रेष्ठ वर्ग के हितबद्ध समूह द्वारा स्वीकार कर पाना अत्यंत ही दुष्कर कार्य हैं इसलिए इस ब्राह्मणवादी आधिपत्य के काल में उनका वर्चस्व और विशेषाधिकार बिना किसी संवैधानिक आरक्षण के भी सभी जगह व्याप्त है।
चौहान ने ‘दक्षिण कोसल’ से कहा कि तमाम प्रगतिशील संस्थानों में स्थानीय मूलवासी नेतृत्व को ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ कहकर दरकिनार कर सिरे से खारिज कर दिया जाता है। ऐसा ही एक वाकिया देश में नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाली पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई की 6 एवं 7 नवंबर 2024 को रायपुर में संपन्न हुए राज्य अधिवेशन में उभरकर सामने आया है।
चौहान ने बताया कि छत्तीसगढ़ पीयूसीएल में सर्वाधिक लम्बे समय की महासचिव सुधा भारद्वाज साल 2017 में दिल्ली में जाकर बस गयीं और तब भी वो छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की महासचिव थीं। साल 2018 में जब छत्तीसगढ़ पीयूसीएल में नेतृत्व परिवर्तन अवश्यम्भावी होना था तब तक सुधा भारद्वाज शनिवारवाडा मामला, जिसे भीमा कोरेगांव केस के रूप में बहु प्रचारित किया गया है, के मामले में गिरफ्तार हो गई। सुधा ने जेल में रहते हुए सन्देश भेजा कि उनके अनुपस्थिति में आसन्न कार्यकाल के लिए शालिनी गेरा को महासचिव मनोनीत किया जावें?
इस बीच इलाहाबाद में पीयूसीएल का राष्ट्रीय महाधिवेशन हुआ जहां पर छत्तीसगढ़ पीयूसीएल के प्रतिनिधियों ने सुधा भारद्वाज के इस रीति से उत्तराधिकारी थोपने की कोशिश का निंदा किया गया। छत्तीसगढ़ पीयूसीएल में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और सुधा भारद्वाज द्वारा उत्तराधिकारी मनोनीत करने का उनका मंशा असफल हो गया। हालांकि नए राज्य कमेटी ने राजकीय दमन के विरुद्ध सुधा भारद्वाज के प्रति एकजुटता प्रगट करते हुए उन्हें पीयूसीएल के महासचिव के रूप में तब भी मनोनीत किया था।
उन्होंने आरोपों का फेहरिस्त खोलते हुए कहा कि इसके पश्चात छत्तीसगढ़ पीयूसीएल में सुधा भारद्वाज के अनन्य समर्थक धड़े ने नए नेतृत्व को निशाने में लेना आरम्भ किया। नवगठित कार्यकारिणी के गतिविधियों, उनके द्वारा चिन्हित मुद्दों, उनके कार्यों और लेखन शैली को विशेष लक्ष्य करते हुए उन्हें निशाना बनाया जाने लगा। उनके नेतृत्व को अस्वीकार करते हुए एक-एक करके सुधा भारद्वाज के सभी समर्थक पीयूसीएल सदस्य सांगठनिक कार्यो से विमुख होने लगे और व्हाट्सएप तथा फेसबुक जैसे सोसल मीडिया में दलित-आदिवासी नेतृत्व को बदनाम और ट्रॉल करने के काम में जुट गए। जो लोग बच गए वे छत्तीसगढ़ में दलित-आदिवासी नेतृत्व के प्रति असहयोग का रुख अपनाया।
चौहान ने आरोप लगाया कि पूर्व संगठन सचिव अजय टीजी द्वारा एक मनगढंत पत्र लिखकर आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का मुद्दा उठाने की कोशिश की गई। नतीजतन पीयूसीएल के राष्ट्रीय महासचिव वी सुरेश, मिहिर देसाई और हिमांशु कुमार को रायपुर आना पड़ा और सामंजस्य की कोशिश की गई। साल 2021 में पीयूसीएल के राज्य अधिवेशन ने पुन: इस दलित-आदिवासी नेतृत्व टीम को आगामी कार्यकाल के लिए चयनित किया। और इसके बाद स्वभाविक जान पड़ता है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह सवर्ण गुट बेचैन हो उठा।
उनके पास पीयूसीएल में पैठ बनाने के लिए एक ही तरीका बच गया था, छत्तीसगढ़ में सुधा भारद्वाज के कार्यों और उसके प्रति लोगों के भावनात्मक लगाव को औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाना। उन लोगों ने ठीक वैसा ही किया, देश के विभिन्न नामचीन सिविल सोसाइटी समूहों और भिन्न-भिन्न सम्मेलनों में यह झूठा नेरेटिव फैलाया गया कि सुधा भारद्वाज को छत्तीसगढ़ पीयूसीएल से निष्कासित कर दिया गया है। जबकि हकीकत इसके विपरीत था, वास्तविकता यह है कि सुधा भारद्वाज साल 2024 तक लगातार सर्वाधिक लम्बे समय की महासचिव के पद पर बने रहीं।
यह स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ पीयूसीएल में सुधा भारद्वाज का नेतृत्व अपने सांगठनिक कार्यशैली में एड्हाक और कालेजियम प्रणाली का पोषक रहा है। जो धीरे से जन आंदोलनों के मध्य अपना पैठ बनाता है और एक योजना के मुताबिक छोटे-छोटे समूहों को मिलाकर एक सांझा मंच तैयार करता है और फिर एकाएक उन सब का स्वयंभू प्रतिनिधि बन कर अपना एजेंडा थोप देता है। इस तरह से भोले-भाले स्थानीय समुदायों के मध्य अपना आयातित एजेंडा स्थापित करने में सफल हो जाता है। श्रेणीबद्ध असमानता, अलोकतांत्रिक परंपरा और संस्कृति, यथास्थितिवाद और बर्बर ग्रामीण सामंती सामाजिक व्यवस्था की तरह यह नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के रूप में इस गुट का रहस्यमयी चुप्पी हतप्रभ कर देता है।
वह आगे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय पीयूसीएल को समय- समय पर अवगत नहीं कराया गया है। आज से ठीक तीन वर्ष पहले छत्तीसगढ़ पीयूसीएल के राज्य इकाई द्वारा राष्ट्रीय पीयूसीएल को लिखा गया है कि ‘आभास होता है कि जब से छत्तीसगढ़ पीयूसीएल व्यक्ति केन्द्रित और अनेक संगठनों के समुच्चय होने से आगे जन केन्द्रित होने की ओर अग्रसर हुआ है अथवा स्थानीय दलित - आदिवासी नेतृत्व और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को अपनाने की कोशिश हुई है तब से पीयूसीएल के भीतर एक गुटबंदी के तरह का वातावरण बन गया है और इस आतंरिक प्रभावी कारकों ने कार्यरत नेतृत्व को कार्य करने लगातार रोड़ा अटकाया है। इनका जोर बातचीत के तौर तरीकों और तहजीब, झूठे अफवाह और सोशल मीडिया में दुष्प्रचार, पृथक और समानांतर गतिविधियों का संचालन इत्यादि हैं।
राष्ट्रीय नेतृत्व के कुछ पदाधिकारियों ने प्रदेश के कुछ पदाधिकारियों को टारगेट करते हुए उनके विरुद्ध आर्थिक बैरिकेड की तरह रूढ़ीगत तरीका इस्तेमाल करने का बात भी सामने आया हैं। ऐसे समय में जबकि राजकीय दमन अपने चरम पर है, भारतीय समाज में परंपरागत वर्चस्वशाली ताकतें भी नागरिक अधिकारों के खिलाफ अपने पूरे जोर के साथ काम कर रही हैं इनका प्रसार और व्यापकता हर जगह हैं। एक समय तक ये ताकतें बहुत ही उदार और संयम के साथ काम कर रही थी लेकिन अब इनके साथ सीधे टकराव की परिस्थितियां निर्मित हो चुकी हैं, अफसोस कि छत्तीसगढ़ पीयूसीएल भी इससे अछूता नहीं रह गया है।
चौहान कहते हैं कि असल में गैर प्रांतीय तथा ब्राह्मणवादी ताकतों ने छत्तीसगढ़ में पीयूसीएल को मुख्यधारा बनाम बहिस्कृतों के दमन का प्रयोगशाला बनाने की कोशिश में है। सुधा भारद्वाज गुट ने दुर्ग भिलाई में संचालित जन मुक्ति मोर्चा और बिलासपुर में कार्यरत गुरुघासीदास सेवादार संघ के माध्यम से राज्य अधिवेशन में नियमों के विपरीत गैर पीयूसीएल सदस्यों को शामिल करने का जबरदस्ती दबाव बनाया और पीयूसीएल नियमावली के विपरीत सदस्यों के एक तिहाई उपस्थिति अनुपात के बिना मनमाने तरीके से कार्यकारिणी का चयन कर लिया गया।
उनका गंभीर आरोप है कि चुनाव के दरमियान तो ऐसा मंजर भी देखने को मिला कि अध्यक्ष प्रत्याशी ने स्वयं चुनाव लडऩे से मना कर दिया लेकिन उसे दबा दिया गया जिसे राष्ट्रीय आब्जर्वर ने नजरंदाज कर दिया, जब वोट हुए तो वहां भी प्रत्याशी द्वारा अपने निकट प्रतिद्वंदी को वोट किया गया। लेकिन इस पूरे प्रक्रिया में वहां उपस्थित बतौर राष्ट्रीय आब्जर्वर कविता श्रीवास्तव ने किसी तरह का कोई आक्षेप नहीं किया और इसे घटित होने दिया।
राष्ट्रीय आब्जर्वर ने इसी साल गत मार्च के अधिवेशन में सदस्यों के जिस उपस्थिति अनुपात नियमों का हवाला देकर राज्य अधिवेशन को स्थगित कर दिया था, परिस्थिति की पुनरावृति में राष्ट्रीय आब्जर्वर ने दोहरा नीति अपनाते हुए पक्षपात किया। निवर्तमान कार्यकारिणी द्वारा पीयूसीएल के नाम से समानांतर गतिविधियों की शिकायत पर उन्होंने कहा कि ‘इस बारे में राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व अध्यक्ष प्रभाकर सिन्हा से मशविरा किया गया जिस पर उन्होंने गैर सांगठनिक गतिविधियों वाले शब्द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए घोर आश्चर्य व्यक्त किया।’
उन्होंने खुलासा किया कि राज्य अधिवेशन में बलौदाबाजार अग्निकांड और सैकड़ों दलितों की गिरफ्तारी और लम्बे समय से सरकार द्वारा उन्हें जेल मे बंद रखने के राजकीय दमन के मुद्दे पर रायपुर में एक प्रेसवार्ता आयोजित किया जाना प्रस्तावित था। इस प्रस्ताव का जीएसएस ने विरोध किया। सवर्ण सामाजिक कार्यकर्ता और दलित-आदिवासियों में क्रीमीलेयर समुदायों के प्रतिनिधियों का यह समूह पीयूसीएल छत्तीसगढ़ के सांगठनिक, कार्यरत कमेटी तथा आदिवासी-दलित नेतृत्व को विशेष लक्ष्य करते हुए उन्हें नीचा दिखाने, उसके कार्यों में बाधा उत्पन्न करने, जानबूझकर असहयोग के अनुकूल माहौल के इंतजार में बेसब्री से ताक रहा था सो इस गुट ने इस मौका को लपक लिया।
चौहान ने ‘दक्षिण कोसल’ को बताया कि मेट्रोपोलिटन सिटी में बैठे सवर्ण सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा छत्तीसगढ़ के स्थानीय दलित आदिवासी और महिला नेतृत्व को हासिए में धकेलने के लिए मुक्ति मोर्चा और जीएसएस (जो कि ये दोनों संगठन अपने व्यावहारिक चरित्र में सवर्णन्मुख और दलीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा से परे नहीं हैं) का गठजोड़ एक सोची- समझी रणनीति के तहत दलित आदिवासी नेतृत्व को साजिशन पदच्युत करने का कार्य किया। अब छत्तीसगढ़ पीयूसीएल दीगर संगठनों का एक उपनिवेश बन कर रह गया है।
डिग्री चौहान का कहना है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के वेश में जन आंदोलनों के मध्य प्रतिक्रियावादियों का घुसपैठ हो चुका है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आदिवासी क्षेत्रों में गैर हिन्दू धर्मों पर पाबंदियों के फरमानों और आदिवासी ईसाईयों के मृत व दफन शवों को कब्रगाहों से निकालकर गांव की पारंपरिक सीमा से बाहर निकाल फेंकने की घटनाओं में परिलक्षित होता है।
चौहान विधान सभा चुनाव 2018 पर कहते हैं कि ‘हमने देखा कि साल 2018 के छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनावों में किस तरह से ये ताकतें एक राजनीतिक दल विशेष को जन आंदोलनों तथा जनसंघर्षों के मुद्दों को उस पार्टी विशेष के घोषणा पत्र बनाने के लिए कवायदें कर रहे थे। इनका विशेष जोर और मकसद केवल राज्य सत्ता के दमन के खिलाफ जन संघर्षों को एकजुट और संगठित करना है। हालांकि मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई संवैधानिक समस्या है लेकिन बहुसंख्यक धर्मसत्ता, जातिसत्ता, पितृसत्ता पर इनके मंशा और रहस्यमयी चुप्पी पर सवाल तो उठता ही है?
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22/11/2024
Sanjeet burman
आपके द्वारा किए गए पत्रकारिता से कुछ कुंठित मनुवादी विचारधारा पर चलने वालों को बेहद पीड़ा पहुंची है।आप ऐसे ही लेखन बनाए रखिए।देखिए ना कमेंट करने वाले कुंठित व्यक्ति दलित आदिवासी और वंचित का अगुवा बनाने के लिए किस तरह लगा हुआ है।कौन कह रहा है अपना घर द्वार शहर छोड़कर दलित आदिवासी और वंचित के हक की लड़ाई लड़ो।सच तो यह है कि यह लोग दलित आदिवासी और वंचित वर्ग के नेतृत्व करने की मंशा पाल कर एनजीओ चलाने के उद्देश्य से आते हैं।
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18/11/2024
Zulaikha Jabeen
चेहरा उठाकर आसमान पे थूकने की नाकाम कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं है.कहना सिर्फ़ यही है ज़िम्मेदारी के अभाव में भीतरी कुंठाग्रस्त, नफ़रत और साज़िश को छुपाने का बेहतरीन तरीक़ा है ढ़ोल ढ़माके के साथ ऊंची आवाज़ में झूठ बोलकर सहानुभूति जुटाई जाए........वैसे भी सत्य और तथ्याधारित पत्रकारिता के ज़माने जा चुके हैं- चटपटे ज़हरीले चाईनीज़ जंकफ़ूड वाली पीढ़ी के लिए
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13/11/2024
Deepak sahu
यह रिपोर्ट सही नहीं है कृपया पुनः अवलोकन कीजिये
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13/11/2024
धीरेन्द्र सिंह
सुधा भाराद्वाज ने छत्तीसगढ़ के दलितों, आदिवासियों और वंचित समुदायों के लिए जो कार्य किया है उसे यह आरोप लगाने वाले को अपने गीरेबान में झांक कर देखने की जरूरत है कि उनका अपना कद और योगदान क्या है। इस आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में सुधा दीदी द्वारा किया गया कार्य सराहनीय ही नहीं बल्कि वंदनीय है।
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