दक्षिण कोसल पत्रिका की 10वीं वर्षगांठ का जश्न 

लोकतंत्र में पत्रकारिता का दायित्व

शशि गणवीर

 

माननीय अतिथिगण, सहयोगीगण, और हमारे प्रिय पाठकगण,

आज, इस मंच से, हम उन सभी का आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने इस यात्रा में हमारे साथ कदम मिलाए, और उन पाठकों का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने हमारी आवाज़ को अपनी आवाज़ बनाया। आइए, इस अवसर पर पीछे मुडक़र देखें कि हमने क्या हासिल किया है और आने वाले समय में किस दिशा में आगे बढ़ेंगे।

प्रेस की स्वतंत्रता के बिना लोगों का तंत्र स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि अगर प्रेस स्वतंत्र नहीं है तो इसका मतलब लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी भी नहीं हैं और यदि लोगों के पास विचारों के सामूहिक आदान-प्रदान का माध्यम नहीं है, चर्चा का माध्यम नहीं है, और यदि सत्ता और प्रशासन ने किसी बहाने से अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित कर रखा है (मसलन आज की तारीख में इंटरनेट बंद है, किसी खास खबर की छापने पर रोक है, प्रसारण पर पाबंदी है) तो वह एक दूसरे से किस माध्यम से चर्चा एवं वार्तालाप, विचार विमर्श करेंगे? बिना वार्तालाप बिना विचार विमर्श बिना विचारों के आदान-प्रदान के सहमति कैसे बनेगी? 

1. लोकतंत्र में पत्रकारिता का दायित्व

शासितों की सहमति/शासन में सहभागिता/सहमति से शासन, सहमति के लिए समीक्षा व अवलोकन, समीक्षा के लिए जानकारी तथा जानकारी का विश्वसनीय स्रोत-पत्रकार, मास-मीडिया, प्रेस।

2. पत्रकारिता का इतिहास

अशोक के शिलालेखों से शुरू होकर कोटवारों की मुनादि और कथा वाचकों की कथा प्रवचन, गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस, अंग्रेजी राज में बंगाल गजट की शुरुआत और उस पर बैन से होता हुआ जन संचार माध्यम की यात्रा यहां तक पहुंची है-जहां यह माध्यम आदर्श रूप से स्वतंत्र है। 

आज की जनसंचार माध्यम में मास मीडिया ने एक गंभीर पत्रकार को हर प्रकार के चंगुल से मुक्त कर दिया है उसके ऊपर कोई कंपनी का मालिक नहीं बैठा है, समाचार पत्र का मालिक नहीं बैठा है, कोई संपादक नहीं बैठा है, कोई सेंसर बोर्ड नहीं बैठा है, वह है और उसका श्रोता। 

एक जर्नलिस्ट को अपने श्रोता तक समाज तक देश तक अपनी बात अपने मत अपनी समीक्षा पहुंचाने के लिए लाखों रुपए के साजों समान यंत्र खरीदने की आवश्यकता नहीं है, वह अपने कमरे में बैठकर चाय पीते हुए अपनी बातों को राय को रिकॉर्ड करके या लाइव स्ट्रीम से लोगों तक पहुंचा सकते हैं।

 तो सिर्फ उसे अपनी मानवीय क्षमता व्यक्तिगत क्षमता व्यक्तिगत ज्ञान बढ़ाने एकत्रित करने की समीक्षा करने, उस पर सोचने की गहन चिंतन की, गहन अध्ययन और उसे भाषा में प्रस्तुत करने की जिसे एक आम आदमी, किसान, मजदूर, कूड़ा धोने वाला सफाई कर्मी न सिर्फ उसकी भाषा ही समझ सके बल्कि वह जो कह रहा है उसे अपने आप को जुड़ाव महसूस कर सकें।

3. पत्रकारिता का महत्व

News papers are the first draft of history -Philip L. Graham, the former president and publisher of the Washington Post

प्रभावशाली वर्ग लोग बनाम मास मीडिया का द्वंद्व

क्या मुझे कोई देख रहा है? क्या मुझ पर नजर रखे हुए हैं? - अगर कोई नहीं देख रहा है और किसी को पता नहीं चलेगा तो आप जो चाहे वह मनमानी करेंगे -प्रेस और प्रेस ही स्वतंत्रता, शासन प्रशासन को इसी मनोदशा में जाने से रोकते हैं, उनमें आम जनता को मालूम चल जाने का और दिख जाने का डर बना रहता है। 

भारत में प्रबोधन युग की शुरुआत अभी भी नहीं हुई है -

प्रबोधन युग की शुरुआत रविंद्र नाथ टैगोर के साथ हुई पर इस पर बहस नहीं हुई चर्चाएं नहीं हुई या यूं कहें कि हमारे प्रबोधन युग को सही प्रचार प्रसार नहीं मिला लोगों के बीच नहीं पहुंचा, विचार तो किसी के व्यक्तिगत रहे, पर यह विचार सामूहिक रूप नहीं ले सका -तब हमारा मीडिया राष्ट्रवाद की तरफ स्वतंत्रता की तरफ ज्यादा उन्मुक्त था, पर प्रबोधन आने के बाद स्वतंत्रता का आना शायद ज्यादा मायने रखता ज्यादा अर्थपूर्ण होता, सशक्त होता।

पत्रकारिता का संक्रमण काल -

क्योंकि आज हर व्यक्ति अपने विचार अपने जीवन शैली, खबरें आदि को असंख्य लोगों तक एक सेकंड में पहुंचा सकता हैं इसलिए वास्तविक रूप से हर एक व्यक्ति शौकिया पत्रकार है। पत्रकारिता उस संक्रमण काल से गुजर रही है, जहां सोशल मीडिया के रहते आम जनता पर यह जिम्मेदारी आ गई है कि वह स्वयं इस संक्रमण काल का अनुभव करें, इससे गुजरे और उसके बाद अपने लिए तय करें कि किस तरह के सोशल मीडिया हस्तियों को विश्वसनीय मानना है, और इसके लिए अब उसे स्वयं ही छानबीन करनी है, स्वयं ही राजनीति और जीवन शैली दोनों के ही सिद्धांतों का पुनरावलोकन करना है।

आज जब बिना प्रशिक्षण के, बिना औपचारिक शिक्षा के, बिना, नैतिक ज्ञान की सोशल मीडिया में लोग पोस्ट कर रहे हैं तब यह जिम्मेदारी जनता ने स्वयं अपने ऊपर ले ली है कि वह अपने अंदर यह क्षमता विकसित करें, इस काबिल बने कि इन स्वतंत्र सोशल मीडिया के पत्रकारों का अवलोकन कर सकें। इस अवलोकन के लिए एक मानक की आवश्यकता है और यह मानक पारंपरिक पत्रकारों के अलावा और कोई दिखाइ नहीं देता, इसलिए आज पारंपरिक पत्रकारों की यह जिम्मेदारी है कि अपने आप को उस मुकाम पर स्थापित करें जहां उन्हें मानक मानकर सोशल मीडिया के शौकिया पत्रकारों का अवलोकन हो। पारंपरिक पत्रकारों की छवि एक ऐसा आदर्श स्थापित करे जिससे वह बाकी सोशल मीडिया के हस्तियों पर लागू की जाए।

4. सूचना प्रसारण युग -  सोशल मीडिया

आपकी हथेली में एक छोटा सा यंत्र है जो करोड़ों के स्टूडियों की ही तरह आपकी खबर और विचार दोनों का प्रसारण कर सकता है और इस यंत्र से अर्बन लोगों के द्वारा खबर और विमर्श दोनों को प्राप्त किया जा सकता है, आज जिसकी भी हाथ में यह यंत्र है वह खुद ही प्रस्तोता भी है और खुद ही श्रोता भी है । इतनी शक्ति आम आदमी के हाथ में मानव जाति की इतिहास में कभी नहीं रही, और इन शक्तियों का क्या उपयोग किया जा सकता है या आने वाला समय ही बताएगा।   विडंबना यह है कि इस अस्त्र की शक्ति को जाने बिना साधारण व्यक्ति ने इसे पकड़ रखा है-और इसका दुष्परिणाम हमें कई बार देखने को मिला है, दंगों के रूप में, अफवाहों के रूप में, सुनियोजित अपराधों के रूप में, जासूसी यंत्र के रूप में, आदि आदि... 

हर व्यक्ति पत्रकार हो चला है यह जन पत्रकारिता का दौर है - मीडिया हाउस मीडिया कंपनी से लोगों का भरोसा उठ चुका है, अब यह स्वतंत्र पत्रकारिता मंजे हुए पत्रकारों का अपना चैनल स्थापित करने का दौर है, जहां वह किसी पर निर्भर नहीं होंगे जहां उनकी खबरें किसी के स्वीकृति का मोहताज नहीं होगी - खबर यह देखकर नहीं चलाया जाएगा कि कोई खबर मीडिया कंपनी के मालिक के खिलाफ तो नहीं है। 

5. प्रबोधन का दूसरा चरण

प्रबोधन कल प्रिंटिंग प्रेस के साथ शुरू हुआ था यह प्रबोधन कल स्मार्टफोन के साथ शुरू हो रहा है।
क्रांति और आंदोलन वैचारिक परिवर्तन, प्रचलित मूल्य के परिवर्तन की स्वीकारिता से पल्लवित होता है -और इसका प्रसार पत्रकारिता के अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता। 

That I have not joined in the worship of the goddess nation with a glass of alcohol in my hand has angered everyone. The people of this country believe that I either seek a title or am afraid of the police, while the police believe that I have evil intentions, which is why I appear to be harmless. But still I walk this path of mistrust and humiliation.

For I say that those who do not feel motivated to serve their country when they think of their nation as nothing but their nation and respect people as nothing but people, who need to be hypnotised with shrieking invocations to a mother or a deity, do not love their country so much as they love passion. The attempt to maintain a stronger infatuation with something over and above the truth is a symptom of our instilled sense of slavery.

—'The country isn’t the earth beneath our feet, it’s the people'

The above-mentioned excerpt, from the 1916 novel The Home and the World, written by Rabindranath Tagore is part of the Renaissance that happened in India. Does this seem to talk about individualism or is it about following the bandwagon?

‘इस देश को देवी बनाकर पूजा करने में मैंने हाथ में शराब का गिलास लेकर शामिल नहीं हुआ, इस बात से सभी नाराज़ हैं। देश के लोग मानते हैं कि मैं या तो किसी उपाधि की चाह रखता हूँ या पुलिस से डरता हूँ, जबकि पुलिस मानती है कि मेरे इरादे खराब हैं और इसी कारण मैं निर्बल, अशक्त, प्रतीत होता हूं। लेकिन फिर भी मैं इस अविश्वास और अपमान के रास्ते पर चलता हूं।

क्योंकि मैं कहता हूं कि जो लोग अपने देश की सेवा के लिए प्रेरित नहीं होते, जब वे अपने राष्ट्र को केवल एक राष्ट्र और लोगों को केवल लोग मानकर उनके उत्थान के लिए प्रेरित नहीं होते, बल्की जिन्हें धर्म, पंथ और जाति के शोर-शराबे से प्रेरित किया जाना पड़ता है, वे अपने देश से इतना प्रेम नहीं करते जितना वे धर्म, पंथ और जातीय जुनून से प्रेम करते हैं। सत्य से परे किसी चीज़ के प्रति जुनूनी मोह बनाए रखने का प्रयास हमारे अंदर बसी हुई गुलामी की मानसिकता का संकेत है।’

- ‘देश हमारे पैरों के नीचे की धरती नहीं, यह लोग हैं।’

उपरोक्त अंश, 1916 के उपन्यास ‘द होम एंड द वर्ल्ड’ से लिया गया है, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, और यह भारत में हुई पुनर्जागरण का हिस्सा है। क्या यह अंश व्यक्तिवाद के बारे में बात करता है या फिर भीड़ का अनुसरण करने की?

अगर प्रेस, समाचार पत्र, या पत्रकार नहीं होते, तो इसका समाज, लोकतंत्र और सूचना के प्रवाह पर गंभीर प्रभाव पड़ता।

यहां कुछ संभावित परिणाम दिए गए हैं-

1. जवाबदेही की कमी-

वॉचडॉग फ़ंक्शन का अभाव- पत्रकार सरकारों, कंपनियों और अन्य शक्तिशाली संस्थानों को जवाबदेह बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके बिना भ्रष्टाचार, अनैतिक व्यवहार, और शक्ति का दुरुपयोग जांच से बाहर हो सकता है। वॉटरगेट जैसी घटनाएं शायद कभी सामने न आतीं।

बिना रोक-टोक की शक्ति- प्रेस के बिना, राजनीतिक नेता, कंपनियां, और अन्य प्रभावशाली व्यक्ति बिना किसी निगरानी के काम कर सकते हैं, जिससे आम जनता के हितों को नुकसान पहुँचाने वाले कार्य आसान हो जाते हैं।

2. गलत सूचना और प्रचार का बढऩा-

फर्जी खबरों का प्रसार-पेशेवर पत्रकारों के बिना, तथ्य जांचने वाला कोई नहीं होगा, जिससे अफवाहें और गलत जानकारी फैल सकती हैं। इससे गलत जानकारी फैलाने वाले लोग जनमत को आसानी से प्रभावित कर सकते हैं।

सोशल मीडिया पर निर्भरता- पारंपरिक पत्रकारिता के अभाव में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ही समाचार का मुख्य स्रोत बन सकते हैं। यह प्लेटफॉर्म सूचना साझा करने का मौका तो देते हैं, लेकिन बिना जांची-परखी सामग्री भी तेजी से फैलने की संभावना बढ़ाते हैं, जिससे जनता के लिए सच और झूठ में अंतर करना मुश्किल हो जाता है।

3. लोकतंत्र का क्षरण-

जन संवाद में कमी- पत्रकारिता लोगों को राजनीति और समाज के बारे में सूचित करने का कार्य करती है, जो कि लोकतंत्र की नींव है। इसके बिना, वोटर कम जानकारी या गलत जानकारी के आधार पर निर्णय लेंगे, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होगी।

जनता की आवाज का अभाव- पत्रकार आम लोगों की आवाज बनते हैं, उनके मुद्दों पर ध्यान खींचते हैं। उनके बिना, उपेक्षित समुदायों को अपनी बात सामने लाने में कठिनाई होगी।

4. कम जानकारी वाली जनता-

ज्ञान की कमी-अखबार, टीवी, रेडियो और ऑनलाइन पत्रकारिता राजनीति, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य, और शिक्षा जैसे विषयों पर जानकारी का मुख्य स्रोत हैं। इनके बिना, आम जनता जरूरी जानकारी से वंचित रह सकती है।

महत्वपूर्ण मुद्दों की अनदेखी-खोजी पत्रकारों के बिना, पर्यावरण, मानवाधिकार या स्वास्थ्य सेवाओं में होने वाले नुकसान जैसे कई मुद्दे रिपोर्ट नहीं हो पाएंगे, जिससे जनता को उन चीजों का ज्ञान नहीं होगा जो उन्हें सीधे प्रभावित करती हैं।

5. सांस्कृतिक और शैक्षिक कमी-

सांस्कृतिक कवरेज की कमी- पत्रकारिता कला, संस्कृति, खेल और विज्ञान को भी कवर करती है। इसके बिना, समाज को साहित्य, संगीत, फिल्म, और वैज्ञानिक खोजों की गहरी समझ नहीं मिलेगी, जिससे लोगों की सांस्कृतिक और बौद्धिक भागीदारी में कमी आएगी।

विचारशील नेतृत्व का अभाव-बिना सम्पादकीय और विचारशील लेखों के, सार्वजनिक बहस कम होगी, जिससे नागरिक जुड़ाव और समाज में तार्किक सोच में कमी आ जाएगी।

6. आर्थिक परिणाम-

स्थानीय समाचार का अभाव-स्थानीय अखबार और पत्रकार समुदाय-स्तर के मुद्दों पर कवरेज करते हैं। इनके बिना, छोटे शहरों और क्षेत्रों में स्थानीय समस्याओं, विकास या शासन से संबंधित समाचार अनदेखे रह सकते हैं।

रोजगार की हानि- पत्रकारिता उद्योग में रिपोर्टर से लेकर संपादक, फोटोग्राफर और डिजाइनर तक कई लोग काम करते हैं। इस उद्योग के बिना हजारों नौकरियां खो जाएंगी, जिससे अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा।

7. वैश्विक परिणाम-

अंतरराष्ट्रीय जागरूकता की कमी- पत्रकार संघर्ष क्षेत्रों, आपदा क्षेत्रों, और मानवाधिकारों के संकट वाली जगहों से रिपोर्ट करते हैं। उनके बिना, जनता को अंतरराष्ट्रीय संकटों की जानकारी कम मिलेगी, जिससे मानवीय सहायता या कूटनीतिक हस्तक्षेप में भी कमी आएगी।

सत्तावाद का उदय-जिन देशों में स्वतंत्र प्रेस नहीं होती, वहां अधिनायकवादी शासन का उदय अधिक होता है क्योंकि नेता सूचना के प्रवाह पर नियंत्रण कर सकते हैं। प्रेस के बिना, वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र के क्षरण का खतरा बढ़ जाएगा।

संक्षेप में, बिना प्रेस, समाचार पत्र, या पत्रकारों के समाज में गलत सूचना का प्रसार, लोकतांत्रिक जवाबदेही की कमी और जन जागरूकता में भारी गिरावट होगी। सत्ता का दुरुपयोग बढ़ेगा, जबकि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर चर्चा और सूचनाओं का प्रसार ठहर जाएगा।

लोकतंत्र में पत्रकारिता का दायित्व

लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखना-

पत्रकारिता भारत के लोकतंत्र की रीढ़ है, जो संविधान में निहित अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता के सिद्धांतों को बनाए रखती है। पत्रकार सरकार की नीतियों, राजनीतिक विकास, और सामाजिक मुद्दों के बारे में नागरिकों को सूचित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। निष्पक्ष रिपोर्टिंग और खोजी पत्रकारिता के माध्यम से वे वॉचडॉग के रूप में कार्य करते हैं, पारदर्शिता सुनिश्चित करते हैं और सत्ता में बैठे लोगों को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हैं।

जनता को सूचित और शिक्षित करना-

भारतीय जनता को जानकारी और ज्ञान प्रदान करने में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समाचारों से लेकर स्थानीय कहानियों तक, पत्रकारिता नागरिकों को उनके जीवन पर प्रभाव डालने वाली घटनाओं से अवगत रखती है। निष्पक्ष रिपोर्टिंग, विश्लेषण, और गहन कवरेज के माध्यम से पत्रकार जनता को निर्णय लेने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए सशक्त बनाते हैं।

सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए समर्थन-

भारतीय पत्रकारिता का सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की वकालत का एक मजबूत इतिहास रहा है। पत्रकार अक्सर हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं, सामाजिक असमानताओं और अन्यायों को उजागर करते हैं। उनकी रिपोर्ट गरीबी, लिंग असमानता, जाति-आधारित भेदभाव और पर्यावरणीय मुद्दों जैसी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करती है, सकारात्मक परिवर्तन और समावेशी विकास को प्रोत्साहित करती है।

सांस्कृतिक विविधता और एकता को बढ़ावा देना-

भारत एक विविध देश है जिसमें कई संस्कृतियां, भाषाएं और परंपराएं हैं। पत्रकारिता इस विविधता का जश्न मनाने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों, क्षेत्रीय उपलब्धियों, और मानवीय रुचि की कहानियों को उजागर करके पत्रकारिता राष्ट्र के ताने-बाने को मजबूत करती है और परस्पर समझ और सहिष्णुता को बढ़ावा देती है।

खोजी पत्रकारिता का पोषण करना-

खोजी पत्रकारिता का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव है, जो भ्रष्टाचार को उजागर करती है, घोटालों का पर्दाफाश करती है और छिपे हुए तथ्यों को सामने लाती है। खोजी पत्रकार कठिन मुद्दों में गहराई से जाते हैं, अक्सर व्यक्तिगत जोखिम उठाते हुए, ताकि वे जनता के संवाद और नीति-निर्माण को आकार देने वाले तथ्यों को सामने ला सकें।

आर्थिक प्रगति और व्यावसायिक पारदर्शिता का समर्थन करना-

व्यावसायिक और वित्तीय पत्रकारिता भारत की आर्थिक प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आर्थिक रुझानों, बाजार विश्लेषण और कॉर्पोरेट विकासों पर रिपोर्टिंग करके पत्रकार निवेशकों, उद्यमियों और नीति-निर्माताओं को सूचित निर्णय लेने में सहायता करते हैं। इसके अलावा, वित्तीय पत्रकारिता व्यवसाय की दुनिया में पारदर्शिता और जवाबदेही को भी बढ़ावा देती है।

निष्कर्ष-

भारत में पत्रकारिता का महत्व अत्यधिक है। यह सत्य का एक प्रकाशस्तंभ है, जो लोकतंत्र को बनाए रखती है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करती है। अपनी सूचनात्मक और खोजी भूमिका के माध्यम से पत्रकारिता नागरिकों को सशक्त बनाती है, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देती है और जवाबदेही की वकालत करती है। जैसे-जैसे भारतीय मीडिया परिदृश्य विकसित हो रहा है, यह महत्वपूर्ण है कि हम नैतिक पत्रकारिता के सिद्धांतों का समर्थन और रक्षा करें, ताकि यह महत्वपूर्ण संस्था सत्यनिष्ठा और समर्पण के साथ राष्ट्र की सेवा करती रहे।

मेरा तर्क है कि जिस मीडिया प्रणाली में मैं बड़ा हुआ, वह मुख्य रूप से शक्तिशाली संस्थानों के नियंत्रण में थी, जिनकी गहरी, कभी-कभी घुटन भरी संस्कृति होती थी। यह व्यवस्था बदलाव के लिए तैयार नहीं थी, जो हमारे जैसे नए और विद्रोही लोगों के लिए एक अवसर लेकर आई। यह अवसर खासतौर पर दक्षिण कोसल के लिए आकर्षक था, जिसने पत्रकारिता में कुछ नया करने का सोचा।

दक्षिण कोसल का मानना था कि खासकर राजनीति पर रिपोर्टिंग के तरीके में बदलाव की जरूरत है। पुराने तरीके की बजाय, संवादात्मक और खुली शैली में रिपोर्टिंग होनी चाहिए, जैसे कि लोग आपस में किसी विषय पर चर्चा कर रहे हों। इसका मतलब था कि नेताओं के बयानों के मायने को सामने लाना, और पत्रकारों को अपनी बात को अपनी शैली में रखने की आजादी देना, जिसमें हास्य, अनुभव, और असली अर्थ भी शामिल हो। इस सोच का आधार यह था कि डिजिटल युग में बड़ी संस्थाएं अपना एजेंडा तय करने की शक्ति खो रही थीं, जबकि व्यक्तिगत रुप में पत्रकार नई ताकत हासिल कर रहे थे। यही दक्षिण कोसल का मकसद था और यही सोच हाल के वर्षों में कई नए सोशल मीडिया समाचार चैनल को आगे बढ़ा रही है, जिसमें दक्षिण कोसल के कई सदस्य भी शामिल हैं।


26 अक्टूबर को दक्षिण कोसल की एक दशकीय स्वर्णिम पत्रकारिता उत्सव में उद्घोषणा के मंच से शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता शशि गणवीर का महत्वपूर्ण उद्बोधन।


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