बोधगया को उरुवेला होना चाहिए
ब्राह्मणों-तुर्कों के विरोध के कारण तमाम बौद्ध ग्रन्थ और विद्वान भारत से बाहर चले गए
प्रेमकुमार मणिबौद्धों और ब्राह्मणों के बीच सांप-नेवले जैसी लड़ाई चलती थी. ब्राह्मणों ने बंगाल के राजा शशांक को उकसा कर बोधिवृक्ष को जड़मूल से नष्ट करवा दिया था. वृक्ष को तो काट ही दिया गया उसकी जड़ों को भी आग के हवाले कर दिया गया. कहते हैं कालान्तर में वहां कोई पीपल का गाछ उग आया, जो 1876 की एक भयावह आंधी तूफ़ान में उखड़ कर नष्ट हो गया. इसके चार साल बाद 1880 में ब्रिटिश अधिकारी कनिंघम के प्रयास से श्रीलंका स्थित अनुराधापुर के उस पीपल गाछ की टहनी को कलम कर मंगवाया गया जिसे कभी अशोक के ज़माने में संघमित्रा और महेंद्र ने मूल बोधिवृक्ष की टहनी को वहां जा कर लगाया था.

जिसे हम बोधगया के नाम से जानते हैं, वह दरअसल उरुवेला है. उस ज़माने के किसी भी आख्यान या ग्रन्थ में गया नाम नहीं आया है. हालांकि पुरातत्वविदों का यह काम है कि आधिकारिक तौर पर कुछ कहें, लेकिन मेरा अनुमान है, बुद्ध के ज़माने के बहुत समय बाद तक भी गया अस्तित्व में नहीं था.
सतपथ ब्राह्मण में गया की चर्चा है, लेकिन वह बुद्ध के बहुत बाद का आख्यान है. यह तो अनेक लोगों ने बताया है कि गया का विष्णुपद मंदिर अपने मूल में बौद्ध अवशेष है. वह विष्णु का पदचिह्न नहीं, बुद्ध का पदचिह्न है. इस विवाद को किनारे भी लगा दें, तो इस में किसी को आपत्ति नहीं है कि बोधगया अपने मूल में उरुवेला है और आज भी यह गाँव उरेला ही कहा जाता है.
हमारी सांस्कृतिक चेतना कितनी दयनीय है कि हमने उस जगह को बोधगया नाम ही रहने दिया. यह नाम बौद्ध विरोधी उन लोगों ने तय किया जो बुद्ध और उनके विचारों का उपहास करते थे. दशकों पूर्व नालंदा स्थित पालि संस्थान जो अब डीम्ड युनिवर्सिटी का रूप ले चुका है, के एक भिक्षु ने बताया था, बौद्धों ने जब उरुवेला को ज्ञानभूमि कहना शुरू किया तो खिल्ली उड़ाते हुए ब्राह्मणों ने कहा यह वह जगह है जहाँ बोध गया; यानी जहाँ से बोध ( प्रज्ञा ) चला गया.
यानि ज्ञानरहित अथवा प्रज्ञारहित भूमि. यह बौद्धों पर कट्टर ब्राह्मणों का बड़ा उपहास और सांस्कृतिक आक्रमण था. सब जानते हैं कि बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच सांप-नेवले जैसी लड़ाई चलती थी. ब्राह्मणों ने बंगाल के राजा शशांक को उकसा कर बोधिवृक्ष को जड़मूल से नष्ट करवा दिया था. वृक्ष को तो काट ही दिया गया उसकी जड़ों को भी आग के हवाले कर दिया गया. कहते हैं कालान्तर में वहां कोई पीपल का गाछ उग आया, जो 1876 की एक भयावह आंधी तूफ़ान में उखड़ कर नष्ट हो गया.
इसके चार साल बाद 1880 में ब्रिटिश अधिकारी कनिंघम के प्रयास से श्रीलंका स्थित अनुराधापुर के उस पीपल गाछ की टहनी को कलम कर मंगवाया गया जिसे कभी अशोक के ज़माने में संघमित्रा और महेंद्र ने मूल बोधिवृक्ष की टहनी को वहां जा कर लगाया था. इस तरह वर्तमान बोधिवृक्ष उस वृक्ष के अंश से तैयार किया गया जो अशोक के ज़माने में श्रीलंका भेजा गया था.
बुद्ध ने अपने समय में और बाद में भी काफी विरोध झेले. सम्मान भी खूब मिला. कट्टर ब्राह्मणों और तुर्कों के लगातार विरोध के कारण तमाम बौद्ध ग्रन्थ और विद्वान भारत से बाहर चले गए. जैसे उस्मानियों की फतह से तबाह कुस्तुन्तुनिया के विद्वान भाग कर यूरोपीय देशों में चले गए.
भारत से बाहर दो बौद्ध ध्रुव बन गए. तिब्बत में महायानियों ने डेरा डाला और अंततः लामावाद को विकसित किया. हीनयानी समूह ने श्रीलंका में डेरा डाला और पूरबी देशों में बौद्ध मत का प्रसार करते रहे.
उन पुरानी बातों में न जा कर मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि भारत और बिहार सरकार बोधगया का नामकरण उरुवेला करने का अध्यादेश जारी करे. ऐसा न करना हमारा सांस्कृतिक अपराध होगा. उरुवेला, लुम्बिनी, मृगदाव आदि अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के स्थान हैं. इससे बौद्धों की भावनाएं तो जुडी हुई हैं ही, हमारी सांस्कृतिक चेतना भी जुडी है.
उम्मीद करता हूँ संस्कृति-पसंद लोग इस विचार को अधिक सार्वजनिक और सशक्त करना चाहेंगे ताकि सरकार इसे स्वीकार कर सके.
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