फ़टी जींस के बहाने
ममता यादव, सम्पादक मल्हार मीडियाजीन्स मेरे नियमित पहनावे में साल 2005-2006 से शामिल हुआ। उसके पहले मैं सिर्फ सलवार सूट दुपट्टा पहनती थी। दरअसल मेरी एक दोस्त ने मुझे जीन्स तोहफे में दी थी। मैंने पहनी सबने कहा सूट करती है पहना करो। पर पत्रकारिता में जो माल-ए-हाल हैं यानि कि आर्थिक स्थिति तो मुझे कुछ समय में महसूस हुआ कि जींस कम पैसे वाले लोगों का बड़ा साथी है।

सूट हमेशा ज्यादा चाहिये फिर धोने-धाने की भी टेंशन। सबसे बड़ी सहूलियत नियमित धोने की टेंशन नहीं। कभी जल्दी भागना पड़े तो जीन्स डालो शर्ट डालो औऱ भाग निकलो। जींस में सबसे बड़ी सहूलियत थी कि दो जींस और 2-4 शर्ट टीशर्ट पर्याप्त साल दो साल के लिये।
फिर पता चला ब्रांडेड सीजन सेल का। ये सेल इतनी किफायती लगीं कि एक बार की खरीदारी में आप दो तीन साल के लिये फुर्सत।
अब सवाल यह कि मैंने जींस के साथ शर्ट क्यों चुनी?
जो कि पिछले कुछ सालों से मेरी पहचान और सिग्नेचर स्टाईल बन चुका है। दरअसल पत्रकारिता की फील्ड में काम करते हुए महसूस किया कि सलवार सूट वैसे तो बहुत शालीन परिधान है मगर जरा सा दुपटटा इधर-उधर गया कि पुरुषों की नजरें अटकी और इशारे होने लगे।
आमतौर पर मैंने कुछ ऐसे अखबारों में काम किया जहां सम्पादकीय विभाग में लड़की एक मैं ही होती थी। सिटी में रात में काम करने से कभी गुरेज नहीं किया।
एक लाइन मैं अपने एक साथी के द्वारा कही गई कभी नहीं भूलती उसने कहा देखो कैसे घटिया लोग हैं क्या-क्या बोलते रहते हैं।
मैंने कहा क्या हुआ उस समय उनके एक साथी को उस अखबार में मैंने जुड़वाया था तो उन्होंने बताया कि ममता जी कम्प्यूटर के पास टेबल पर झुककर पेज चेक कर रही थीं जल्दी में तो सामने बैठे लोग उन्हीं को देखकर इशारे करने लगे।
ये बात बहुत दिन तक मुझे परेशान करती रही।
फील्ड में भी यही महसूस हुआ। तो आखिर को शर्ट और कॉलर वाली टीशर्ट को मैंने चुना। क्योंकि शर्ट में ये समस्या नहीं रहती कहाँ से क्या झांक रहा है।
विधानसभा से मंत्रालय और तमाम जगह की फील्ड में मैंने घूमते हुए महसूस किया कि इसमें भी ताड़ने वाला लड़की के शरीर को कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे ताड़ता है।
वो नजरें लड़की कभी भूलती नहीं न ही कभी सहज हो पाती है याद आने पर। खैर शर्ट और जीन्स मुझे सहज तो लगती ही।
बैग पर्स से भी मुक्ति मिली। कहीं कोई चैकिंग वगैरह का झंझट नहीं कि मैडम बैग खोलो ये दिखाओ वो दिखाओ।
आईडी मेरे मोबाइल में और बाकी पैसा वगैरह जीन्स की पॉकेट में। तो एक जीन्स ने मेरी बहुत सारी समस्याओं का हल दिया मुझे। कभी खराब आर्थिक हालात में ये सबसे बड़ा जेवर होता गया मेरा।
मैंने सोशल मीडिया पर बराबर ध्यान रखा कि कभी कोई ऐसी फ़ोटो न डल जाए कि शरीर के किसी हिस्से पर किसी का ध्यान जाए।
एक समय बाद मुझे लगने लगा कि लोगों की ऐसी नज़रों को नजरअंदाज कर दिया जाए कहीं जब सीमा पार हो गई तो वहीं के वहीं लताड़ा भी।
मेरे इस पहनावे की तारीफ कई महिलाओं पुरुषों ने की ओर एक सवाल कभी मजाकिया अंदाज तो कभी मजाक उड़ाने के अंदाज में हमेशा मेरे इर्द-गिर्द घूमता रहा लड़कियों जैसे कपड़े नहीं पहनती हो क्यों? उनसे मैं यही कहती क्या आप नहीं जानते कि लड़कियों के जीन्स शर्ट टीशर्ट अलग होते हैं।
खैर ये जीन्स कथा लम्बी हो रही है तो फ़टी जीन्स तो मुझे बिल्कुल नहीं पसन्द पर कोई पहने तो मुझे क्या?
पर कल उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की हरकत ने पता नहीं ऐसी कितनी ही ताड़ती नजरें मेरे सामने ला दीं फिर से।
कभी-कभी तो लगता है आंखों से ही लड़की के कपड़े फाड़ देंगे। तो साहब लड़की कुछ भी पहने लम्पट घटिया मानसिकता का आप कुछ नहीं कर सकते। शुरू हो जाती है संस्कारों की दुहाई।
कल एक पत्रकार की पोस्ट पर एक टीवी पत्रकार ने बेहयाई से मेरे कमेंट के रिप्लाई में कहा कि देवीजी आप ही बता दीजिए कि कहां से देखना शुरू करें।
उनको वहीं निपटाया और सोचा कि ये कौन सा अलिखित अधिकार पुरुषों को मिला हुआ है और महिला को सँस्कार के नाम पर सिर्फ सीख मिलती आई है।
कपड़े सँस्कार तय करते तो 60 साल की वृद्धा और 6 माह की बच्ची के बलात्कार नहीं होते।
लड़की कपड़े चाहे कैसे भी पहने पर ताड़ना भी उसे ही झेलनी है ताने भी और जमाने भर की लांछना भी। कभी कोई पुरूष बदचलन या वेश्या नहीं कहलाता चाहे कुछ भी हो जाये। महिलाओं के कपड़ों से ही उन्हें चरित्र प्रमाणपत्र दे दिए जाते हैं।
तो साहब आखिर को हमने तय कर लिया भाड़ में जाये दुनिया अपन जैसे हैं वैसे ही रहेंगे। जीन्स तो अब न छूटने वाली।
बहुत सारे लोगों को यहां लिखीं बहुत सारी बातें न तो पसंद आएंगी न ही हजम होंगी पर आईना दिखाना तो बनता ही है न सर जी फ़टी जींस के बहाने ही सही।
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