संस्कारधानी में मनाई गई भव्य अनागारिक-पेरियार जयंती समारोह

कार्यक्रम में राजनांदगांव की नामी-गिरामी महिलाएं शामिल हुई

सुशान्त कुमार

 

बताया जाता है कि 17 सितम्बर 1864 को सिरिलंका में जन्मे महान सपूत अनागारिक धम्मपाल भारत के जीर्ण शीर्ण बौद्ध तीर्थों का जीर्णोद्धार किया था। उन्होंने ही सिकागो में आयोजित विश्व धम्म सम्मेलन में भारत की ओर से विश्व के बौद्धों का प्रतिनिधित्व किया था। स्मरण रहे इसी सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद जी को अनागारिक धम्मपाल जी ने अपने मिले हुए समय में से तीन मिनट का समय देकर स्वामी जी के भाषण पूर्ण करने मदद की। आश्चर्य का विषय यह भी है कि दोनों की वेशभूषा को देखकर अमेरिकावासी दंग रह गए थे। ऐसे महापुरूष की 170वीं जयंती मनाई गई। 

ईवी रामास्वामी परियार को किया याद

वहीं इस कार्यक्रम में संयुक्त रूप से ईवी रामास्वामी पेरियार की 145वीं जयंती भी मनाई गई। उन्होंने सच्ची रामायण और महिलाओं को गुलाम क्यों बनाई? जैसे पुस्तकों की रचना की। जिस पर न्यायालय में मामले चलाई गई और हिन्दी अनुवाद के बाद लल्लई सिंह पर भी मामले चलाए गए। उन्होंने संविधान को जलाया बावजूद डॉ. भीमराव आम्बेडकर उनके प्रिय मित्रों में से एक थे। महिलाओं को पुरूष गुलामी से मुक्ति का रास्ता दिखाने के लिए मंगलसूत्र का त्याग करने का अभियान चलाया।

उन्होंने ताउम्र मनुवाद, बाह्मणवाद, कू्रर सनातनी जाति व्यवस्था, अंधविशवास और धार्मिक कर्मकांड के खिलाफ समता, समानता, रूत्री मुक्ति और एक तर्कशील भारत के नवनिर्माण के लिए संघर्ष करते रहे। जाति विहीन, वैज्ञानिक चेतना के लिए कार्य, शोषण के परे समाज के निर्माण के लिए इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी योद्धा को याद किया गया। 

कार्यक्रम की गतिविधि

संघ की अध्यक्ष बुद्धमित्रा वासनिक ‘दक्षिण कोसल’ से कहती हैं कि कार्यक्रम में राजनांदगांव में अनागारिक धर्मपाल के जयंती आयोजन के जनक कन्हैयालाल खोब्रागढ़े को साल, पौधा तथा प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में सभी क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं का सम्मान के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए ‘दक्षिण कोसल’ के सम्पादक सुशान्त कुमार को प्रशंसा पत्र तथा पौधा देकर सम्मानित किया गया। 

रविता लकड़ा ने ‘दक्षिण कोसल’ को बताया कि वह इस कार्यक्रम का संचालन कर रही थी। पूरे कार्यक्रम की महती जिम्मेदारी सामाजिक कार्यकर्ता और महिला सशक्तिकरण संघ के जिला अध्यक्ष बुद्धिमित्रा वासनिक ने संभाला। कार्यक्रम में पूर्व डीईओ जानकी रंगारी, बेबीनंदा जागृत, प्रोफेसर दिग्विजय कॉलेज, अर्चना रंगारी, डॉयरेक्टर शुक्ला मल्टी स्पेशलिस्ट अस्पताल।

सुजाता वासनिक, डायरेक्टर  व गायकनोलॉजी श्रीराम हॉस्पिटल, नंदा मेश्राम, प्रदेश उपाध्यक्ष महिला सशक्तिकरण संघ, पूनम कोल्हाटकर, मधुकर मेश्राम, सुनीता ईलमकर, हर्षिका गजभिए, माया खोब्रागढ़े, मीना खोब्रागढ़े, सरिता रामटेके, सविता जामुलकर, शिल्पा कोल्हाटकर,  राहुल नगर अध्यक्ष प्रभा कुटारे, उपाध्यक्ष सुभाष गड़पायले, डॉ. संध्या दामले, मीनाक्षी मेश्राम, वंदना बोरकर, अनिता बोरकर, आशा जामुलकर, आशा गड़पायले, वीना वासनिक, सुभाष गजभिए, मोहन डोंगरे, रेणुका भोईर, माया गजभिए, ज्योत्षना भोईर, शीला रंगारी, शामिल थी। 

कौन थे अनागारिक धम्मपाल

अनागारिक धर्मपाल को भगवान बुद्ध के मार्ग का उद्धारक माना जाता है। उन्हें बुद्ध मार्ग के प्रति अगाध प्रेम व धर्म के प्रचार-प्रसार आदि के कृत्यों के कारण कई बौद्ध ग्रंथों में ‘धर्मदूत’ की संज्ञा दी गई है।

 

 

भगवान बुद्ध द्वारा खोजी गयी दु:ख मुक्ति के मार्ग को, जब प्रच्छन्न बौद्ध (शंकराचार्य) के अनुयायियों ने खत्म कर दिया था और भगवान बुद्ध की ज्ञान स्थली (महाबोधि स्थल) को अपने कब्जे मे कर लिया था, तो उस मार्ग (बौद्ध धर्म) को जीवंत रखने के लिए मई 1891 में भारत, श्रीलंका व अन्य देशों में महाबोधि सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की और महाबोधि मंदिर को आदि शंकराचार्य मठ के कब्जे से मुक्त कराने में अहम योगदान दिया।

देश ही नहीं अपितु विदेशों में स्थित महाबोधि सोसाइटी आफ इंडिया का स्थापना दिवस अनागारिक धर्मपाल की जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष उनका 170वीं जयंती सोसाइटी के सभी शाखाओं में धूमधाम से मनाई जा रही है।

उनकी पढ़ाई लिखाई

अनागारिक का शाब्दिक अर्थ ‘बिना घर का’ (होम लेस) होता है। इनका बचपन का नाम डान डेविड हेवाविर्तने था। उनका शैक्षणिक जीवन ईसाई विद्यालय से प्रारंभ हुआ। अध्ययन के क्रम में भारत स्थित बौद्ध तीर्थस्थलों की ओर ध्यान तब आकृष्ट हुआ। जब उन्होंने ‘लाइट आफ एशिया’ के लेखक सर एडविन अर्नाल्ड के 1885 में छपे एक लेख में महाबोधि मंदिर की दयनीय दशा को पढ़ा। उस लेख में मंदिर की दशा और इसे नष्ट होने से बचाने का आह्वान भी किया गया था।

जनवरी 1891 में अनागारिक धर्मपाल भारत भ्रमण के दौरान बोधगया आए। तब उन्होंने अक्टूबर माह में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन का अयोजन बोधगया में कराया और महाबोधि मंदिर की मठ के कब्जे से मुक्ति के लिए बिहार प्रांतीय कांग्रेस में मामले को रखा और अधीनस्थ न्यायालय से लेकर प्रीवी काउंसिल तक कानूनी लड़ाई भी लड़ी। उसके बाद इसका सर्वमान्य हल के लिए बिहार हिन्दू सभा की बैठक बुलाई गई।

धर्मपाल के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण उनके निधनोपरांत तत्कालीन आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के हाथों महाबोधि मंदिर को वैशाख पूर्णिमा, संवत 2012 अर्थात 6 मई, सन 1955 को धर्म विद्वेसी से मुक्त करते हुए बौद्धों को दे दिया गया।

परंतु यह आंशिक मुक्ति है, पूर्ण मुक्ति की लड़ाई अभी जारी रखे। अभी भी महाबोधि समिति में धर्म विद्वेसी को सदस्य के तौर पर शामिल करना अनिवार्य नियम है।
13 जुलाई, 1931 को अनागारिक धर्मपाल ने प्रवज्या ली और उनका नाम ‘देवमित धर्मपाल’ हुआ।

1933 की 16 जनवरी को प्रव्रज्या पूर्ण हुई और उन्होंने उपसंपदा ग्रहण की, तब उनका नाम पड़ा ‘भिक्षु श्री देवमित धर्मपाल’।

29 अप्रैल, 1933 को 69 वर्ष की आयु में अनागारिक धर्मपाल का परिनिर्वाण हो गया। उनकी अस्थियां आज भी पत्थर के एक छोटे-से स्तूप में ‘मूलगंध कुटी विहार’ (सारनाथ) के पास रखी हुई है।

 

 

सन् 1875 के दौरान मैडम मैरी ब्लावस्टस्की और कर्नल हेनरी अलकोट ने अमेरिका के न्यूयॉर्क में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की थी। इन दोनों ने बौद्ध धर्म का काफी अध्ययन किया था मगर 1880 में ये श्रीलंका आए तो इन्होंने वहां न केवल स्वयं को बौद्ध घोषित किया बल्कि भिक्षु का रूप धारण किया।

इन्होनें श्रीलंका में 300 के दशक के ऊपरी स्कूल के जहाज़ और बौद्ध धर्म की शिक्षा पर भारी काम किया गया। डेविड डेफिनेट काफी प्रभावित हुए। बालक डेविड को पाली सीखने की प्रेरणा से प्रेरणा मिली। यह वह समय था जब डेविड ने अपना नाम बदल कर भारत में बौद्ध धम्म और बौद्ध तीर्थ-स्थलों की दुर्दशा देखकर अनाग्रिक धम्मपाल को अत्यंत दुख हुआ।

बौद्ध धर्म स्थानों के लिए इन्होने विश्व के कई बौद्ध देशों को पत्र लिखा है। इन्होनें इसके लिए सन् 1891 में महाबोधि समाज की स्थापना की थी। महाबोधि सोसायटी की ओर से अनागारिक धम्मपाल ने एक सिविल सूत स्थापित किया था जिसमें मांग की गई थी कि महाबोधि विहार और अन्य तीन प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थों को बौद्धों को सुपुर्द किया जाए। इसी रीत का एक ही मतलब है कि आज महाबोधि विहार में बौद्ध जा सकते हैं।

स्वामी जी को अपने भाषण के समय में से तीन मिनट का समय दिया

शिकागो में रिचर्ड विश्व धर्म संसद गए जो 18 सितंबर 1893 में अनागरिक धम्मपाल के बौद्ध दर्शन पर भाषण देने वाले थे, वहां से दुनिया के विभिन्न धर्मों के विद्वान भौचक्के रह गए। स्वामी विवेकानन्द जी को कोई विशेष दस्तावेज नहीं था। अनागारिक धर्मपाल ने बुद्ध की भूमि से आये मित्र को शिष्यों से निवेदन कर अपने भाषण के समय से तीन मिनट के समय के लिए दिया था, धर्म-संसद में हिंदू दर्शन पर स्वामी विवेकानंद का भाषण हुआ था। 

अनागरिक धम्मपाल ने अपने जीवन के 40 वर्षों में भारत, श्रीलंका और विश्व के कई देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के बहुत से उपाय बताए। अनाग्रिक धम्मपाल बुद्धिष्ट जगत के एक प्रसिद्ध प्राप्त हस्ती बौद्ध धर्म के पुनर्उद्धारक भारत में बौद्ध धर्म के पतन के हजारो वर्ष बाद अनाग्रिक धम्मपाल ही वह व्यक्ति थे जो केवल इस देश में बौद्ध धर्म का पुन:ध्वज फहराया गया बल्कि एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में इसका प्रचार-प्रसार के लिए भारी काम किया।

कँवल भारती के अनुसार धर्मपाल जी की दस पारमिताएं 

जैसा कि सभी धम्मबंधु जानते हैं, एक बोधिसत्त्व वह होता है, जिसने दस पारमिताओं का पालन किया होता है। इनमें पहली पारमिता दान है, दान भी तीन तरह के हैं--वस्तु दान, शिक्षा दान और धम्म दान। ये तीनों दान धर्मपाल जी पर पूरी तरह चरितार्थ होते हैं। जब वह युवा थे तो उनके पिता उन्हें जो भी पैसा देते थे, उसे वह समाज पर खर्च कर देते थे। वह अपने ऊपर बहुत कम पैसा खर्च करते थे।

कभी कभी वह बिना खाने के रह जाते थे, और उस पैसे से डाक टिकट खरीद कर ग्राहकों को पत्रिका भेज देते थे। उनके प्रमुख शिष्य श्री देवप्रिय वालीसिन्हा कहते हैं कि इसी सारनाथ में जब वह मृत्यु शैया पर थे, तो उस वक्त भी वह दवाइयों पर पैसा बर्बाद करना पसंद नहीं करते थे, अपितु, उसे धम्मकार्य में खर्च करते थे। उन्होंने जिस शिक्षा संस्था की स्थापना की, जो आज भी उनकी स्मृति में चल रही है, उसके माध्यम से समाज को शिक्षा का दान दिया। इस प्रकार वह दान पारमिता के सजीव प्रतिमा थे।

 

 

पंचशील का पालन किया

दूसरी पारमिता शील की है। उनका पूरा जीवन बेदाग और पवित्र था। उन्हें अपने मार्ग से हटाने के लिए बहुत से प्रलोभन दिए गए, पर कोई भी प्रलोभन उन्हें उनके धर्म के मार्ग से नहीं हटा सका। उन्होंने जीवन भर पंचशील का पालन किया। प्राणी हिंसा से विरत रहे, बिना दान की वस्तु लेने से विरत रहे, मादक चीजों से विरत रहे, मिथ्या भाषण से विरत रहे, और व्यभिचार से विरत रहे। 

तन्हाई में रहकर पुस्तकों का अध्ययन का लाभ लिया

तीसरी पारमिता त्याग है, जिसके वह सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं। यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है, कि कोलम्बो के सम्मानित और धनाढ्य ईसाई परिवार के डेविड हेवावीतारने ने न केवल ईसाई धर्म त्यागा, बल्कि सांसारिक सुख और विलासिता के उन तमाम अवसरों का भी त्याग किया, जो उन्हें विरासत में मिले थे।

वह अपने पिता के पदचिन्हों पर चल कर एक प्रख्यात व्यापारी बन सकते थे, या सिविल सर्विस में जाकर, जिसके लिए उनके पिता ने उनपर दवाब भी बनाया था, सत्ता और प्रभाव का रुतबा हासिल कर सकते थे। वह वकील बन सकते थे, या अपने भाई की तरह डाक्टर भी बन सकते थे। किन्तु इसके विपरीत उन्हें तन्हाई में रहकर पुस्तकों का अध्ययन करने में ज्यादा आनंद आता था। पर, बाद में उन्होंने उसे भी छोड़ दिया।

अठारह वर्ष की उमर में उन्होंने सांसारिक जीवन में अनागरिक बनकर रहने का निर्णय लिया, जो एक साहसिक और बड़ा निर्णय था। अनागरिक का मतलब है, घर त्याग देना, नागरिकता त्याग देना। अब पूरा संसार उनका घर था और इसके पीछे सिर्फ एक ही विचार था और वह था बौद्धधर्म के द्वारा मानवता का कल्याण करना। यह निर्णय ठीक वैसा ही था, जैसे उनके शास्ता भगवान बुद्ध ने दरिद्रता के लिए धन-वैभव, कठिनाईयों के लिए विलासिता और परिश्रम के लिए आराम का त्याग किया था। उनके जीवन पर अनागरिक की ऐसी मुहर लगी कि वह जीवन पर्यंत अनागारिक नाम से ही जाने गए। हालांकि वह बाकायदा भिक्खु भी बने थे और भिक्खु संघ में शामिल भी हुए थे।

मिथक किंतु विसुद्धि-मग्ग से मोह

चौथी पारमिता प्रज्ञा है, जिसे उन्होंने जीवन भर धम्म के विद्यार्थी के रूप में अर्जित किया और उसकी नियमित साधना की। वह धर्म के मूल तत्वों में गहरी अंतर्दृष्टि रखते थे। वह अपने विनोदी मूड में अपने दोस्तों को बताते थे कि जब वह पहली बार पानी के जहाज से अमरीका गए, तो अपने बक्से में एक कॉपी ‘बाइबल’ की और एक कॉपी ‘विसुद्धि-मग्ग’ की रखकर ले गए थे। जब वह अमरीका पहुंचे, तो यह देखकर हैरान रह गए कि बाइबल तो फटी पड़ी है और विसुद्धि मग्ग सही सलामत है।

यह कहानी गलत हो सकती है, पर यह बुद्ध मार्ग के प्रति उनकी आस्था को दर्शाती है। वह अपने स्वीकार, अपने खंडन और अपने विचार में निर्भीक थे। एक बार मूलगंध कुटी विहार में कुछ लोग इस बात को लेकर हंगामा कर रहे थे कि बुद्ध की असली शिक्षा क्या है? धर्मपाल जी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने हवा में अपना हाथ हिलाया और उन लोगों को चिल्ला कर कहा बैठ जाओ। इस तरह उन्होंने उनके उपद्रव को नाकाम किया। 

बीमारी में दिमाग नहीं हुआ था कमजोर

पांचवी पारमिता वीर्य की है यानी ऊर्जा की। धर्मपाल जी में इतनी ऊर्जा थी कि वह सुबह से रात तक थकते नहीं थे, न ही वह कोई क्षण बर्बाद करते थे। यहां तक कि वृद्धावस्था में भी, जब उन्हें आराम करने की सलाह दी गई थी, वह आराम नहीं करते थे। बीमारी ने उनके शरीर को कृश कर दिया था, पर उनके दिमाग को कमजोर नहीं किया था। वह अपनी लड़ाई के अकेले नायक थे, एक ऐसे धर्म-योद्धा थे, जो केवल अधिकार के लिए लड़े, और अदम्य साहस के साथ लड़े।

 

 

पृथ्वी के भांति सबकुछ सहन किया

छठी पारमिता क्षान्ति यानी क्षमा की है। यद्यपि अनागरिक धर्मपाल जी बुद्ध और उनके धम्म पर कोई भी आघात और उसका अपमान सहन नहीं करते थे, पर अपने ऊपर लगे व्यक्तिगत हमलों की परवाह नहीं करते थे। ऐसे विरोध और हमलों की उपेक्षा करते थे। उन्होंने हमेशा अपने उन विरोधियों को क्षमा किया, जो उनको हानि पहुंचाते थे। पर वे लोग इतने दुष्ट थे कि उनसे क्षमा पाने के बाद भी फिर उनके खिलाफ हो जाते थे। उनके जीवन में ऐसे बहुत सी कटु घटनाएं हुई हैं, जिनसे उनका हृदय बहुत दुखी हुआ था, परन्तु इस सहनशील पृथ्वी की भांति उन्होंने सब कुछ सहन किया था।

धर्मपाल प्रज्ञावान थे 

सातवीं पारमिता सत्य बोलने की है। यह पारमिता वस्तुत: चौथे गुण प्रज्ञा का हिस्सा है। पर इसके महत्व पर जोर देने के लिए इसे पृथक पारमिता के रूप में माना जाता है। अनागरिक धर्मपाल जी, जार्ज वाशिंगटन की तरह, झूठ नहीं बोल सकते थे। लेकिन वह उस स्थिति में भी सच बोले, जब उनका सच बोलना एक महान अपराध हो सकता था। यहां तक कि वह अपने काम की खातिर एक बाल बराबर भी सच्चाई से विचलित नहीं हुए। 

 

 

संकल्प की सचाई को पहचाना 

आठवीं पारमिता अधिष्ठान है, जिसे हम संकल्प कहते हैं। अटल संकल्प के बिना वह उस महान कार्य को कभी नहीं कर सकते थे, जिसके लिए वह जाने जाते हैं। वास्तव में वह कार्य उस संकल्प के बिना संभव ही नहीं था, जो उन्होंने अ_ाईस वर्ष की युवा अवस्था में 22 जनवरी  1891 को बौद्ध जगत के पवित्र स्थान बोधगया के उद्धार के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया था। उनके द्वारा स्थापित महाबोधि सोसाइटी का इतिहास, और उनके द्वारा किया गया बौद्धधर्म का पुनरुद्धार अनागरिक धर्मपाल जी के युवा संकल्प की दो सबसे बड़ी सच्चाईयां हैं। सोने के धागे में पिरोये गए मोती के दानों की तरह उनके जीवन की गतिविधियां चमकती हैं।

दु:खों के प्रति करूणा से भरे थे 

नौवी पारमिता मैत्री है, यानी दया-प्रेम। अनागरिक धर्मपाल जी जीवन भर इसके प्रतीक रहे। प्रत्येक दिन वह भोर होने से पहले उठते, और बुद्धधर्म की परम शिक्षा मैत्री का प्रसार करना शुरू कर देते, पहले मातापिता, गुरुओं और हितैषियों के प्रति, और उसके बाद मित्रों और सहकर्मियों के प्रति। मैत्री के इस दायरे को धर्म, संप्रदाय और राष्ट्रीयता की परवाह किये वगैर, न केवल सम्पूर्ण मानव प्राणियों तक, बल्कि पशुओं तक विस्तार देते थे।

विशेष रूप से वह अपनी मैत्री अपनी महान आश्रयदात्री मिसेज मैरी ई. फोस्टर को भेजना नहीं भूलते, जिनसे वह केवल तीन बार मिले थे, और जिनका उदार दान उनके महान कार्य का मुख्य आधार था। भारतीय जनता के दुखों, विशेष रूप से अछूत समाज के दुखों के प्रति वह करुणा से भरे हुए थे। आगे चलकर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में भारत के अछूत समुदाय ने भी बौद्धधर्म को ही अपनी मुक्ति का पथ माना। पर वह उन्हें बुद्ध, धम्म और संघ की शरण में जाते हुए नहीं देख सके थे।

पूर्ण नहीं लेकिन पूर्णता के पथिक थे 

दसवीं पारमिता उपेक्षा है, जिसका अर्थ है समभाव। इस पारमिता का पालन संभवत: कठिन होता है, क्योंकि सभी के प्रति समभाव नहीं हो पाता है। यदि अपनी कमजोरी को जरा भी छिपाया या जाहिर किया, तो हम इस पारमिता में विफल हो जाते हैं। धर्मपाल जी के जीवनीकार महास्थविर संघरक्षित जी लिखते हैं कि धर्मपाल जी पूर्ण नहीं थे, बल्कि पूर्णता के पथ पर थे।


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment