धर्मवीर भारती की 27वीं पुण्यतिथि
धर्मयुग के मुकदमे में जीत
आलोक श्रीवास्तवउस दिन मुंबई में बारिश हो रही थी। मैं दिल्ली में धर्मयुग के केस का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लेकर एक दिन पहले ही वापस मुंबई पहुंचा था। और लोकल ट्रेन से मरीन लाइंस स्टेशन पर उतरकर बस ली थी डबल डेकर 65 नंबर, जो टाइम्स आफ इंडिया बिल्डिंग के पीछे की सड़क पर उतारती थी। बस में धर्मयुग की सहकर्मी उषा माखीजा बैठी दिखीं। बस में भीड़ थी। स्टाॅप पर उतरते ही उन्होंने कहा, एक बुरी खबर है। भारती जी नहीं रहे कल रात। यह 4 सितंबर 1997 था।

हमारी जिंदगियां अभी मोबाइल आदि से बहुत दूर थीं। मेरी भारती जी से आखिरी मुलाकात एक साल पहले उनके घर पर अगस्त, 1996 में हुई थी। उसके बाद का पूरा साल धर्मयुग के मुकदमे में मुंबई-दिल्ली की अदालतों में बीता था और आज जिस दिन अदालती चक्करों से मुक्ति का मुंबई में पहला दिन था, उसी दिन भारती जी गुजर गए थे। उनकी आखिरी प्रतीक्षाओं में मैं भी था। उन्होंने बहुत से लोगों से एक दिन पहले ही फोन पर धर्मयुग के मुकदमे में हमारी जीत पर अत्यधिक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मेरे दिल्ली से लौटने पर नए-पुराने सभी धर्मयुग के लोगों को अपने घर इस जीत की खुशी में पार्टी देने का प्रस्ताव रखा था।
मैं फरवरी, 1990 में पहली बार मुंबई पहुंचा था। मार्च में भारती जी से धर्मयुग के संपादकीय विभाग के कर्मचारियों के साथ उनके घर पर एक औपचारिक मुलाकात हुई। उन्हें धर्मयुग से रिटायर हुए डेढ़ साल हो चुके थे। लिहाजा उनसे आफिसयल कोई संबंध बनता नहीं था। और साहित्य की जिस प्रगतिशील किस्म की दुनिया से मैं आया था, वहां भारती जी दुश्मन थे। मुक्तिबोध ने उन्हें शायद ‘समझदार दुश्मन’ लिखा था।
सो, इस औपचारिक मुलाकात के बाद दोबारा मिलने की कोई जरूरत या बात न थी। पर सिलसिला कई कारणों से ऐसा बना कि 1990 से 1997 तक उनके घर पर उनसे सैकड़ों बड़ी लंबी-लंबी मुलाकातें हुईं, पूरी बराबरी से। उम्र, साहित्यिक वरिष्ठता ही नहीं जिस धर्मयुग में वे 27 साल संपादक रहे थे, उसमें मैं सबसे जूनियर 21 साल का उपसंपादक था। इन सबका कोई लिहाज नहीं। यह सब मेरे स्वाभाविक गठन के कारण तो था ही, पर उनका मैत्रीपूर्ण सरल स्वभाव इसके पीछे था।
उनके बारे में जेएनयू में माॅस कम्युनिकेशन के क्लास में नामवर सिंह से सुनी दुष्प्रचारात्मक बातें, हंस में छपा जगदीश गुप्त का ईष्र्या-द्वेष से भरा लेख, और जाने कितनी ही तरह की अफवाहें झर गईं। आज मेरा मानना है कि भारती जी के बारे में उनके विरोधियों द्वारा फैलाई गई बातें झूठ न भी हों तो भी उनकी कड़ी तस्दीक और तथ्यों की रोशनी में समीक्षा की जरूरत है। वे एकतरफा आरोपपत्र की तरह हिंदी के सार्वजनिक क्षेत्र में घूमती रही हैं।
खैर यह सब बड़ा विस्तार का विषय है - धर्मवीर भारती को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए ही नहीं बल्कि उस भाषा और उसमें अपनी अवस्थिति को सही ढंग से समझने के लिए भी जिसका अधिकांश हिस्सा झूठे आदर्शों, अफवाहों, दुष्प्रचारों, तरह तरह की शक्ति-संरचनाओं से घिरा हुआ है। भारती जी लोगों से मुकाबला करते थे, उन्हें जवाब देते थे, साहित्यिक मोर्चे पर चालाकियों के उत्तर में शायद उनकी चालाकियां भी होती रही होंगी।
पर उनका सारा व्यक्तित्व, सारा रचना-संसार, और सारे काम बहुत सावधानी से और समग्रता में देखे और मूल्यांकन किए जाने की वस्तु हैं, और तथ्यों व समुचित विश्लेषण की रोशनी में। हां, एक बात यह भी जरूरी है जहां उनके आधारहीन निंदकों की बड़ी कतार थी, वहीं उनके ऐसे भक्त भी बहुत थे, जो अपने पूजन के बहाने उनकी क्षति ही अधिक करते रहे।
भारती जी मध्यवर्ग के जिस स्तर से आए थे, और जिस मध्यवर्ग के जिस स्तर में रहे, उसे एक रचनाकार के रूप में अतिक्रमित करने की अपने युवाकाल में उन्होंने तेजस्वी चेष्टा की थी, अंततः वे पराजित हुए, क्योंकि मध्यवर्ग की नियति पराजय है, चाहे स्वार्थ की रणभूमि हो, चाहे आदर्श की। इससे मुक्ति सर्वप्रथम इसका अतिक्रमण करने में है, भौतिक रूप में, न कि मात्र वैचारिक। अंधायुग में उन्होंने स्वयं लिखा था, पक्ष चाहे सत्य का हो या असत्य का अंततः पराजय ही मिलती है। सात गीत वर्ष में उन्होंने पराजित पीढ़ी का गीत नाम से एक प्रसिद्ध कविता लिखी थी। प्रमथ्यु गाथा इसी पराजय-बोध का दुखांत है।
भारती जी सफल थे, एक लेखक के रूप में, एक संपादक के रूप में, सामाजिक संपर्कों की दुनिया में, उनकी सफलताओं के बहुत से आयाम थे। फिर भी वे पराजित थे। यह उनकी वैयक्तिक पराजय थी, पर इसके सिरे बहुत बड़ी चीजों से जुड़े थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में उपजे आदर्शों की पराजय से जुड़ी सामूहिक विडंबना का हिस्सा थे, और हम सब उसी विडंबना का विस्तार हैं। हमारी भाषा और हमारा साहित्य, हमारे सपने और हमारे विचार, हमारे संघर्ष और हमारी सफलताएं, सब के सब उसी विडंबना का विस्तार हैं।
यह भारती जी के अंतःकरण की ईमानदारी थी कि वे उस पराजय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में जो सुंदर भाषा और भावमय लोक है, उसे सम्मोहित होकर कितनी ही पीढि़यों ने पढ़ा है, पर गौर से देखिए, चाहे गुनाहों का देवता हो, सात गीत वर्ष हो, सूरज का सातवां घोड़ा हो, अंधायुग हो या कनुप्रिया.... सर्वत्र एक पराजय है, उनकी सारी कृतियां युगव्यापी पराजय की भूमि पर खड़ी हैं। प्रेम, आदर्श, भावनाएं, सपने, विचार, उनकी हर रचना में निष्कर्षतः पराजित होते हैं।
जब भारती जी पराजय की भावमय यह कथा लिख रहे थे, तब हिंदी में आगत क्रांति के अनेक मठ बन चुके थे, जहां झूठी आशाओं का संसार भी रचा गया, यह तो 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पता चला कि हमारी साहित्यिक उड़ानें जिन सपनों पर निर्भर थी, उन्हें अपनी धरती पर पराजित हुए तो आधी सदी हो चुकी थी। सोवियत विघटन तो मात्र उस पराजय आलेख पर लगा पूर्णविराम था। हिंदी साहित्य के उस शीतयुद्ध को यथार्थ और तथ्यों की रोशनी में परखे जाने की जरूरत है न कि पाॅलीमिक्स की घेरेबंदी में।
भारत में क्रांतिकारी परंपरा भगत सिंह के साथ खत्म हो गई थी। भारत की किसी भी साम्यवादी पार्टी ने भगत सिंह की बौद्धिक विरासत के साथ आगे बढ़ने की जरूरत नहीं समझी थी। खैर यह सब विषयांतर होगा। यहां कहना सिर्फ यह है कि भारती जी ही नहीं हिंदी साहित्य के समूचे युग को वस्तुपरक ढंग से पुनर्पाठ की दरकार है। पर अब किसके लिए? अब तो हिंदी के आखिरी शामियाने भी उजड़ने की राह पर हैं। भूतों की शादी में कनातों सी तनी जमातें जरूर बढ़ती गई हैं।
Add Comment