बौद्ध धम्म, वर्षावास (चार्तुमास) और देशना
धम्म यात्रा में भदंत धम्मतप और कन्हैयालाल खोब्रागढ़े थे शामिल
सुशान्त कुमारतीन दिन के बौद्ध धम्म यात्रा के बाद महादान के रूप में बुद्ध की प्रतिमा भेंट में मिली। समझ का अनिश्वरवादी होने के कारण हाथ जोडक़र वंदन (प्रव्रज्या) त्रि-शरण और पंचशील के साथ पारमिता और रटी-रटाई देशना और गाथाओं को सुनना हैरत तो करता ही है। तीन दिन तक राजनांदगांव से लेकर बिलासपुर और भिलाई तक धम्मयात्रा में कई विहारों और उपासकों से मुलाकात की। इस दौरान वरिष्ठ भदंत शीलरत्न और भदंत महेन्द्र से भी मुलाकात संभव हो पाई।

आपको बताता चलूं कि भदंत शीलरत्न शिक्षा में डॉक्टेरेट की उपाधि प्राप्त हैं। वह बिरबिरा में विपश्यना केन्द्र का संचालन साल में तीन बार करते हैं। भदंत धम्मतप का बौद्धिक धम्म विचार और मार्ग से अवगत हुआ। सबसे युवा भदंत में इनकी गिनती होती है। आप प्रतिवर्ष राजनांदगांव के मोहरा में राज्य स्तरीय बौद्ध सम्मेलन का आयोजन करते हैं।
पूरे यात्रा के दौरान उनका वात्सल्य मिलता रहा। यहां यह भी उल्लेख कर दूं कि इस धम्म और तमाम भदंतों को लेकर मेरा व्यक्तिगत स्वतंत्र विचार और मतभेद के साथ अंतरविरोध भी है। बौद्ध धम्म के करीब आने का मुख्य कारण मेरा ‘दर्शन’ प्रेमी होना है। जहां भी जाता था बौद्ध दर्शन और उसके व्यवहार को परखने की कोशिश करता रहा हूँ।
हिन्दू धर्म में पले बड़े होने के कारण आर्य/सनातन रीतिरिवाजों के अनुसार बौद्ध समाज और हिन्दू समाज में कुछ गहरी समानता भी देख पाता हूं। भदंत या ब्राह्मनों को आदर सत्कार और सिर झुकाकर वंदन किया जाता है। हिन्दू धर्म में जिस प्रकार कथा का वाचन होता है, उसी तरह यहां भी देशना होता है। सत्यनारायण के पूजा के जगह यहां परित्राण पाठ किया जाता है।
जैसे ब्राह्मण मौली धागा बांधते हैं, उसी तरह भदंत सफेद धागों को एक दूसरे को बांधकर परित्राण पाठ का वाचन करते हैं। लंबे समय तक बौद्ध समाज के करीब होने के कारण त्रि-शरण, पंचशील, चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग, 10 पारमिता से अवगत हूं।
दर्शन का विद्यार्थी होने के कारण दु:ख और उसकी उत्पत्ति के साथ उसके कारणों का निवारण करते हुए ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ का दार्शनिक सिद्धांत मेरा प्रिय विषय रहा है। दु:ख के निवारण के लिए आर्य अष्टांगिक मार्ग से सहमत भी हूं। जब कोई भदंत मुझे मिलता है, इस पर चर्चा करने की कोशिश करता हूं। लेकिन दर्शन को लेकर बौद्ध भदंतों में ज्ञान की कमी मुझे व्यक्तिगत रूप से नजर आता है।
भदंत धम्मतप और भदंत शीलरत्न ने विशेषकर वर्षवास, बौद्ध धम्म और दान पारमिता पर विस्तार से बात की है। इसी पारमिता के अर्थ आधार पर ‘दक्षिण कोसल’ मीडिया हाउस का संचालन जारी है। बरसात के दिनों में इधर-उधर घूमकर भिक्षु हरी घास को कुचलते थे, जिससे कई छोटे-छोटे कीड़ों का नाश होता था, इसलिए लोग उस पर टीका-टिप्पणी करने लगे।
अत: सास्ता अर्थात गोतम बुद्ध ने यह नियम बनाया कि आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन प्रथम वर्षावास शुरू हो और उससे एक माह बाद दूसरा वर्षावास। वर्षावास शुरू होने के बाद भिक्षु को तीन महीने तक एक ही स्थान पर रहना चाहिए।
कई पुस्तकालयों में गए। पुस्तकें खरीदी। बौद्ध दर्शन पर उनसे चर्चा की है। इस दौरान वरिष्ठ धम्म प्रचारक कन्हैयालाल खोबरागड़े हमारे साथ थे। उन्हें भी बौद्ध धम्म और कथाओं की अच्छी जानकारी है।
उन्होंने नागार्जुन बौद्ध विहार के ई-लाईब्रेरी के अतिथि रजिस्टर में लिखा कि -‘यदि बाबा साहेब आंबेडकर जीवित होते और यहां पहुंचते तो जरूर यहां कुछ पल रूक कर पुस्तकों का अध्ययन किए होते।’ टिकरापारा ‘पंचशील विहार’ के अलावा कीर्ति नगर में स्थित ‘करूणा बौद्ध विहार’ और मगरपारा में ‘नागार्जुन विहार’ में देशना दिया और प्रवास किया गया।
‘एवं मे सुतं।’ यह वाक्य बहुत ही अनुकरणीय
भिक्षु धम्मतप ने ‘दक्षिण कोसल’ से बताया कि छत्तीसगढ़ के 33 जिलों में सधम्म की वाणी जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से द्वितीय चरण में भ्रमण में उपदेशित त्रिपिटक के बौद्ध साहित्य की व्याख्या में ‘एवं में सुतं।’ पर चर्चाएं की। ऐसे वाक्य का अर्थ ऐसा मैंने सुना है बताया है।
उन्होंने इस वाक्य से पर्दा उठाते हुए कहानी के माध्यम से उपदेशित करते हुए कहते हैं कि सास्ता की धम्म स्थली सभा में उनके मुखाग्र से उपदेश सुनने के लिए हजारों एवं सैकड़ों की संख्या में रोजाना जन समुदाय उपस्थित होते थे। उनमें से ऐसे भी लोग होते थे, जो नियमित रूप से उपदेशों को श्रवण करते थे।
उन्होंने बताया कि एक दिन सास्ता की धम्म स्थली सभा में एक व्यभिचारिणी महिला एवं चोर भी उपस्थित हुआ, भगवान बुद्ध प्रतिदिन की भांति उस दिन भी आए धम्म सभा में उपासक-उपासिकाओं को उपदेशित करने के पश्चात भगवान ने रोजाना की तरह एक वाक्य कहा - जाओं अपना-अपना काम करों।
इस वाक्य को सुनकर व्यभिचारिणी महिला एवं चोर चौंक गए और हक्का-बक्का रह गए। वो दोनों सोचने लगे रात्रि का दूसरा-तीसरा पहर हैं उस पहर मैं व्यभिचार का कार्य करती हूं, उसी तरह चोर भी समझ गया।
मैं तो इस पहर में चोरी का कार्य करता हूं, भगवान कैसे कह रहे हैं,- 'जाओ अपना-अपना काम करों' भगवान इतने लोगों के बीच में सब कुछ जान गए और लोग ना समझे इस तरह का वाक्य कह रहे हैं, लेकिन भगवान बुद्ध की देशना सुनने रोजाना आने वाले उपासक-उपासिकाओं ने भगवान बुद्ध के कथन को भलीभांति जानते थे जाओं अपना-अपना काम करों का तात्पर्य होता था कि रात्रि के दूसरे-तीसरे पहर है, यह पहर ध्यान के लिए अनुकुलित है।
जाओ ध्यान करो, ऐसा भगवान का कहना था, लेकिन व्यभिचारिणी महिला एवं चोर ने उसका अर्थ ही अलग निकाल लिया। इसलिए भगवान बुद्ध के उपदेश के प्रारंभ ग्रथों में एवं मे सुतं। में लिखा है उसका अर्थ ऐसा मैंने सुना है। ऐसा कहना होता था।
आप किसका उपदेश किस ढंग लेते हैं, उसे कैसे श्रवण करते हैं, किस तरह से सुन कर चलते हैं, सुनकर किस ढंग से रखते हों। ये आपका मामला होता है। इसलिए भगवान बुद्ध की वाणी उपदेश को कोई गलत तरीके से रखे या समझे वो उसका मामला है इसलिए ‘एवं मे सुतं।’ का अर्थ ही होता है ऐसा मैंने सुना है। उन्होंने बताया कि हम सब संसार में देखते हैं कोई अच्छा भी बोलता है, उसे वाणी को तोड़-मरोड़ कर बोलते हैं और कहते हैं उसने ऐसा कहा है, उसने ऐसा ही बोला है।
मैंने ऐसा ही सुना हैं। इस वाक्य को इसलिए धम्म ग्रथों के प्रारंभ में लिया गया है, ताकि कोई यह ना कह सके कि भगवान बुद्ध ने ऐसा कहा है। आप अपनी समझ से किसी के वाक्य को जैसा है वैसा नहीं रखकर तोड़-मरोड़ कर उन पर थोप ना दे इसलिए भगवान बुद्ध के धम्म ग्रथों में ‘एवं मे सुतं।’ यह वाक्य बहुत ही अनुकरणीय उपदेश है।
सभी विहारों में भव्य स्वागत के साथ अंत में भदंत और सहयात्रियों को भोजनदान, धम्म दान और स्मृति चिह्न भेंट कर सभी धम्म यात्रा में शामिल सदस्यों का स्वागत किया गया। नागार्जुन विहार में उपासक हरीश वाहने, सुखनंदन मेश्राम, अशोक वाहने, नारायण हुमने, नरेन्द्र रामटेके, संस्कृति रामटेके, सत्यभामा नंदा गौरी, श्यामा हुमने और शिक्षक लोकेश पूजा उके ने बुद्ध की मूर्ति और टी-शर्ट स्मृति के तौर पर भेंट की। यहां विशेषकर बच्चों की भूमिका काबिल-ऐ-तारीफ रही।
अंतिम पड़ाव भिलाई में समाप्त हुआ जहां भिक्षु संघ से मुलाकात हुई। महिलाओं ने बुद्ध धम्म पर चर्चा की। और अपने-अपने घरों से भिक्षुओं के लिए भोजन का इंतजाम किया था। सभी ने भिक्षुओं को भोजन करवाकर पहले देशना सुना और उपोसण पर गंभीर चर्चा की। उसके बाद भोजन ग्रहण किया। भिक्षुओं को सामूहिक रूप से दान किया गया।
तिपिटक (त्रिपिटक)
पालि वांग्मय में तिपिटक (त्रिपिटक) नाम का जो ग्रंथ समुदाय प्रमुख है, उसके तीन भेद हैं- ‘सुत्तपिटक, विनयपिटक और अधिधम्मपिटक। सुत्तपिटक में प्रधानतया बुद्ध और उनके अग्रशिष्यों के उपदेश का संग्रह है। विनयपिटक में भिक्षुओं के आचरण के संंबंध में बुद्ध द्वारा बनाए गए नियमों, उनके बनाने के कारणों, समय समय पर उनमें किए गए परिवर्तनों और उनकी टीकाओं का संग्रह है। अधिधम्मपिटक में सात अध्याय हैं। उनमें बुद्ध के उपदेश में आई हुई बातों का सम्यक विवेचन किया गया है।
चारिका का महत्व
चारिका यानी यात्रा या भ्रमण। यह चारिका दो प्रकार की होती है- शीघ्र चारिका और धीमी (सावकाश) चारिका। इस संबंध में ‘अंगुत्तरनिकाय’ के पंचम निपात के तीसरे वग्ग के प्रारम्भ में यह सुत्त है-
भगवान कहते हैं, ‘भिक्षुओं, शीघ्र चारिका में ये पांच दोष हैं। वे कौन-से हैं? पहले जो धर्मवाक्य न सुना हो वह नहीं सुना जा सकता और जो सुना हो उसका संशोधन (छानबीन) नहीं हो सकता। कुछ बातों का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं मिलता। कभी कभी उसे भयंकर बीमारी हो जाती है और मित्र नहीं मिलते। भिक्षुओं, शीघ्र चारिका में ये पांच दोष हैं।
‘भिक्षुओं, धीमी चारिका में पांच गुण हैं। वे कौन-से हैं? पहले जो धर्मवाक्य न सुना हो वह सुना जा सकता है और जो सुना हो उसका संशोधन हो सकता है। कुछ बातों का सम्पूर्ण ज्ञान मिलता है। उसे कोई भयंकर रोग नहीं होता और मित्र मिल जाते हैं। भिक्षुओं, धीमी चारिका में ये पांच गुण होते हैं।’
दर्शन में प्रतीत्य समुत्पाद
वह प्रतीत्यसमुत्पाद संक्षेप में इस प्रकार है- अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नामरूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति (जन्म), और जाति से जरा, मरण, शोक, परिदेवन, दु:ख, दौर्मनस्य, उपायास उत्पन्न होते हैं।
दर्शन के विद्यार्थियों के लिए नागार्जुन का शून्यवाद, सौत्रान्तिक दर्शन, नीतिदर्शन, तर्कशास्त्र, आत्मवादी श्रमण, अक्रियवाद, नियतिवाद, उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद, विक्षेपवाद, चातुर्यामसंवरवाद, अक्रियवाद, सांख्य मत, न्याय-वैशेषिक दर्शन, तत्व तथा ज्ञान मीमांसा, अक्रियवाद और संसार शुद्धिवाद, अजित केसकम्बल का नास्तिकवाद, अन्योन्यवाद और वैशेषिक दर्शन, विक्षेपवाद और स्याद्वाद, निर्ग्रंथ और आजीवक, शाश्वतवाद और उच्छेदवाद, आत्मवाद, अनावयकवाद, ईश्वरवाद को जानना आवश्यक है।
धर्मचक्र प्रवर्तन
ऐसा मैंने सुना है। एक बार भगवान वाराणसी के ऋषिपत्तन में मृगवन में रहते थे। वहां सास्ता पंचवर्गीय भिक्षुओं से बोले, ‘भिक्षुओं, धार्मिक मनुष्य को (पब्बजितेन) इन दो अन्तों तक नहीं जाना चाहिए। ये दो अंत कौन से हैं? पहला है कामोपभोग में सुख मानना। यह अन्तहीन, ग्राम्य, सामान्य जनसेवित, अनार्य एवं अनर्थावह है।
दूसरा है देह-दंडन करना। यह अंत दु:खकारी, अनार्य एवं अनर्थावह है। इन दो अन्तों तक न जाकर तथागत ने ज्ञान चक्षु उत्पन्न करने वाला, उपशम प्रज्ञा, सम्बोध तथा निर्वाण का करण बनने वाला मध्यम मार्ग खोज निकाला है। वह कौन सा है? सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि ही अष्टांगिक मार्ग है।
संघ ही सबका नेता
बुद्ध भगवान ने अपने पश्चात किसी को संघ का नेता नियुक्त नहीं किया, और ना ही उत्तराधिकारी बनाया। बल्कि यह नियम बनाया कि सारे संघ को मिलकर संघ का कार्य करना चाहिए। एक सत्तात्मक शासन प्रणाली में पले हुए लोगों को बुद्ध की यह प्रणाली विचित्र मालूम हुई हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। कालांतर में यहीं से संगठन बनाने की शुरूआत हुई हैं।
अपदान सुत्त
अपदान का अर्थ सच्चरित्र। अर्थात महापदान का अर्थ हो गया महापुरूषों के सत् चरित्र। महापदानसुत्त में गोतम बुद्ध से पहले के छह बुद्धों और गोतम बुद्ध के चरित्र प्रारम्भ में संक्षेप में दिए हैं। गोतम बुद्ध से पहले सिखी, विपस्सी, वेस्सभू, ककुसंघ, कोणागमन और कस्सप ये छह बुद्ध हो गए। इसमें से पहले तीन क्षत्रिय और शेष ब्राह्मण थे।
उनके गोत्र, आयु, उन वृक्षों के नाम (जिनके नीचे बैठकर वे बुद्ध हुए थे) उनके दो मुख्य शिष्य, उनके संघो की भिक्षु संख्या, उनके उपास्थयक (सेवक भिक्षु), माता-पिता, उस काल का राजा एवं राजधानी आदि के नाम आदि की जानकारी इस सुत्त के प्रारम्भ में दी गई हैं और फिर विपस्सी बुद्ध का चरित्र विस्तार के साथ दिया है।
इतिहास में दास और आर्य
दासों और आर्यों की इस संस्कृति का संबंध बुद्ध चरित्र के साथ बहुत कम आता है। उन दोनों संस्कृतियों के संघर्ष से उत्पन्न वैदिक संस्कृति बुद्ध के काल में प्रतिष्ठित हो गई थी। उपनिषद् ही नहीं बल्कि आरण्यक भी बुद्ध के बाद लिखे गए थे, ‘शतपथ ब्राह्मण’ और बृहदारण्यक उपनिषद में जो वंशावलि दी गई है, उससे ऐसा ज्ञात होता है कि बुद्ध के पश्चात 35 पीढिय़ों तक उनकी परम्परा चलती रही थी।
हेमचन्द्र राय चौधरी प्रत्येक पीढ़ी के लिए तीस वर्षों का समय मानते हैं। पर कम से कम पच्चीस वर्षों का समय मान लें तो भी कहना पड़ता है कि बुद्ध के पश्चात 875 वर्ष तक यह परंपरा चलती रही थी। अर्थात समुद्रगुप्त के काल तक परंपरा चालू थी और तब ब्राह्मण एवं उपनिषद स्थिर हो गए थे।
हो सकता है कि उनमें पहले यथोचित स्थानों में हेर-फेर हो गए हों। पालि वांग्मय की स्थिति भी ऐसी ही हो गई है। बुद्धघोष से लगभग दो सौ बरस पालि वांग्मय स्थिर हो गया और बुद्धघोष द्वारा टीका लिखी जाने के बाद उन पर अंतिम मुहर लग गई।
उपनिषदों की टीका तो शंकराचार्य जी ने नौवीं शताब्दी में लिखी। मुझे तो लगता है उन्होंने नागार्जुन के शून्यवाद को कॉपी कर लिया था। इसके पूर्व गौड़पाद की माण्डूक्य कारिकाएं लिखी गई थीं। उसमें तो सर्वत्र बुद्ध की स्तुति है। बहत दूर क्यों जाएं, अकबर के समय में लिखे गए अल्लोपनिषद का भी समावेश उपनिषदों में किया गया है।
बुद्ध धर्म आणि संघ पंचस्कन्ध
रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच पदार्थों को पंचस्कन्ध कहते हैं। पृथ्वी, अप्, तेज और वायु इन चार महाभूतों को और उनमें उत्पन्न पदार्थों को रूपस्कन्ध कहते हैं। सुखकारक वेदना, दु:खकारक वेदना, और अपेक्षा वेदना, इन तीन प्रकार की वेदनाओं को वेदनास्कन्ध कहतें हैं। घर, पेड़, गांव आदि विषयक कल्पनाओं को संज्ञा स्कन्ध कहते हैं। संस्कार यानी मानसिक संस्कार इसके तीन प्रकार हैं।
विज्ञान का अर्थ है जानना। विज्ञान छह हैं यक्षु विज्ञान, श्रोत्र विज्ञान, प्राण विज्ञान, जिह्वा विज्ञान, कार्य विज्ञान और मनोविज्ञान। अकुशल संस्कार अर्हत्पद की प्राप्ति के साथ ही पूर्णतया नष्ट होते हैं। बताया जाता है कि मृत्यु के समय अर्हतों के पंचस्कन्धों का विलय निर्वाण में होता है। अर्थात उनसे नये पंचस्कन्धों का उदय नहीं होता है।
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