आरक्षण के वर्गीकरण के खतरे और देश की असली समस्या
AI इतना स्वचलित मशीनीकरण कर देगा कि इंसान की जरूरत ही नहीं पड़ेगी
निखिल सबलानियाआज जो जरूरी मुद्दे हैं, जिनसे न केवल SC/ST, बल्कि सभी भारतीयों पर बुरा असर पड़ रहा है, वे हैं: नौकरियों में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लाना, निजीकरण करना, लघु उद्योगों का खत्म होना, निर्माण में कच्चे माल को प्लास्टिक, स्टील, लोहे आदि में तब्दील करना और अन्धाधुन्ध मशीनीकरण और डिजिटल सिस्टम लाना। नौकरियां SC/ST वर्ग की ही नहीं बल्कि किसी के लिए भी नहीं निकल रही हैं। कॉन्ट्रैक्ट की मार सभी पर पड़ रही है। और आने वाली भयंकर समस्या, तथाकथित, डिजिटल क्रांति है। AI (एआई. - आर्टिफिशल इंटेलिजंसी) कितना बड़ा नुकसान करने वाली है, लोगों को इसका अंदाज़ भी नहीं है। ऊलटे वे इसमें अपना भविष्य खोज रहे हैं।

हम सरकारी नौकरी मिलने वाले पुराने दशकों को देख रहे हैं। आज का समय बहुत बदल चुका है। भविष्य और भी भयानक है। देश पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में जा रहा है। साठ हजार वाली नौकरी के बारह हजार भी मुश्किल से मिलेंगे। सरकारी नौकरियां नब्बे प्रतिशत तक खत्म हो जाएंगी। तब, न तो आरक्षण वालों को ही कुछ मिलेगा, और न ही, बिना आरक्षण वालों को। पहले कितने दलित जूते और चप्पलों के कुटीर उद्योगों में लगे थे, पर पूंजीपतियों ने मशीनीकरण और कच्चे माल को बदल कर उनके काम बंद कर दिए।
कुम्हार, बढ़ई, लोहार, दर्जी, मोची, तेली, जुलाहे, बुनकर, और न जाने कितने काम चौपट हो गए। कांग्रेस ने, न गांधी के चरखे की महत्त्वता को समझ कर, गैर स्वचलित मशीनी उद्योगों पर ध्यान दिया, और न ही बीजेपी ने अपने स्वदेशी के नारे का वायदा पूरा किया। एक तरफ गांधी जहां यह समझना चाहते थे, कि हमें अपने परंपरागत उद्योगों के सरल साधनों को ही विकसित करना है, वहीं बीजेपी को तो स्वदेशी का मतलब ही समझ नहीं आया।
पतंजलि या श्री श्री रविशंकर का उत्पादन कोई स्वदेशी पद्धति का नहीं है। यह व्यवसाय का औपनिवेशिक पूंजीपति माॅडल है, जो मशीनों से अत्याधिक उत्पादन करके, न सिर्फ अत्याधिक मुनाफा बनाते हैं, बल्कि बाजारों में सेंधमारी भी करते हैं। अमूल, ब्रिटेनिया, हलदिराम, पारले, फाॅरचयून, आदि कहने को तो देशी हैं, पर इनका माॅडल औपनिवेशिक है। यह आम बाजारों में सेंधमारी करके एक तरफ हुनर और लघु उद्योग खत्म करते हैं, वहीं दूसरी तरफ, लोगों को निष्क्रिय बना कर बेरोजगारी बढ़ाते हैं।
एक और मुद्दा है, भारत में श्रम का सही मूल्य नहीं समझने का। यह बकवास की बात है कि सफाई का काम दो घंटे का होता है। कर्मी को जल्दी सुबह तैयार हो कर निकलना होता है, पूरे दिन दफ्तर की देखरेख करनी होती है या धूल भरी गंदी सड़कें, गलियां, नालियां, सामुहिक शौचालय साफ करने होते हैं। उसका काम सिर्फ शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक भी होता है। पर यह हमारी विकृत सोच की वजह से है, कि हम उसके काम का सही मोल नहीं लगाते। ऐसे ही कई काम हैं जिन्हें कम महत्व का या शारीरिक मात्र माना जाता है।
हालांकि, उनमें उतना ही मानसिक श्रम भी शामिल होता है, पर उसकी गिनती ही नहीं होती। ड्राईवर, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, माली, चपड़ासी, आदि सभी कम वेतन के कामों में अधिक शारीरिक और मानसिक श्रम होता है। पर आजतक हमने इनका सही मूल्यांकन भी नहीं किया है। और आज जब लगभग सभी नौकरियां कांट्रैक्ट पर लग रही है, जिसकी मार प्रत्येक भारतीय पर पड़ रही है, ऐसे में तो किसी के काम का भी सही मूल्यांकन नहीं लग रहा है। निजीकरण एक विशाल दैत्य है, तो मशीनीकरण उस दैत्य की आत्मा है।
ऐसे में समस्या क्या है, इसका अंदाज़ा आप स्वयं ही लगाएं। रही बात आरक्षण में वर्गीकरण और क्रीमी लेयर की, तो यह तब सही होता जब कंपनियां सरकारी होती और पक्की नौकरियां मिल रही होती। अभी तक सही से नौकरियां भरी ही नहीं गई और आगे वर्गीकरण करके कैसे भर जाएंगी? आपमें से बहुत से लोग शायद यह नहीं जानते कि कानून या अधिनियम तो संसद बनाती है पर उसे किस प्रकार लागू करना है, इसे कहते हैं विनियमन या रेग्युलेशन। यह वह नियम होते हैं जो यह निर्धारित करते हैं कि कैसे किसी अधिनियम (एक्ट) को चलाया जाए।
यह नियम सरकार में बैठे अफसर बनाते हैं। किसी भी कानून को कैसे चलने देना है या नहीं, यह काम और उसकी शक्ति अफसरों के हाथों में होती है। आज तक यह हालात है कि आरक्षित सीटों को भरा ही नहीं जाता। यदि वर्गीकरण हुआ तो कौनसे अफसर इन नियमों पर निगरानी रखेंगे? जो जातियां अलग हो जाएंगी, क्या उनको बाकि जातियों का समर्थन आगे मिलेगा? क्या निजीकरण और कांट्रैक्ट सिस्टम के विरूद्ध एक आंदोलित शक्ति विभाजित नहीं होगी?
जो लोग कई पीढ़ियों से सरकार में बैठे हैं, क्या वे मजबूती से सभी के हकों को नहीं देखेंगे या वे जो नए-नए सरकार में घुसेंगे? क्या बाकी हिंदू, सिख और मुस्लिम कई पीढ़ियों से सरकारों में नहीं बैठे? वे तो वर्गीकरण की बात नहीं कर रहे। वे निजीकरण और कांट्रैक्ट सिस्टम पर भी खामोश हैं। पर इनकी मार उन पर भी पड़ रही है। क्या हमें आगे की लड़ाई सबको मिलकर नहीं लड़नी? आज कुछ हिंदू हमसे आरक्षण की वजह से नाराज हैं। वह हमारे साथ नहीं आते। पर हम उनका तो हर मुद्दे पर साथ देते हैं। तो यदि हम खुद को ही आपस में बांट लेंगे तो कैसे मिलकर और कैसे उन हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों के साथ मिलकर आगे की लड़ाई लड़ेंगे? हम यह नहीं कह सकते कि आरक्षण अलग करके हमें कुछ मिल जाएगा।
आने वाले समय में किसी को कुछ नहीं मिलेगा। भारत से कूच करते व्यापारी और छात्र इसकी पुष्टि करते हैं कि भारत में सभी का भविष्य कितना खतरे में है। हालांकि, मैं यह भी स्पष्ट कर दूं, कि भारत के बाहर भी लोगों को कुछ नहीं मिलेगा, बल्कि और गुलामी ही मिलेगी। क्योंकि सारी दुनिया आज यूरोपीय देशों की स्वचालित मशीनों के अत्याधिक उत्पादन से जूझ रही है और AI इतना स्वचलित मशीनीकरण कर देगा कि किसी काम में इंसान की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। तब कौनसे देश और कौनसे विदेश में रोजगार मिलेगा?
अब मैं थोड़ा सीधी बात लिखूंगा ताकि कुछ और पहलू स्पष्ट हों और समाज में वैमनस्य न बढ़े और न ही किसी को कोई संदेह रहे कि एक या कुछ जातियां सारा आरक्षण खा रही हैं। मौजूदा कोर्ट के याचिकाकर्ता वाल्मीकि समुदाय से आते हैं। इन्होंने पहले भी यह प्रयास किया है। इन्हें लगता है कि चमार या कुछ और जातियों के लोग, सारा आरक्षण खा रहे हैं।
मैं एक सीधा और स्पष्ट प्रश्न करता हूँ, और वाल्मीकि समुदाय के भाईयों और बहनों से पूछता हूँ। क्या सरकार में कभी मोची, सड़े हुए चमड़े की बनाई या रंगाई, जूते बनाने, जूते बेचने के काम की सरकारी नौकरियां निकाली गई हैं? यदि समस्या धोबी समुदाय से है, तो कितनी नौकरियां कपड़े धोने या प्रैस करने की सरकार में निकलती है? यदि समस्या खटिक समाज से है तो सरकार में कैसी नौकरियां मांस काटने की लगती है?
जिन्हें जरा भी सरकारी नौकरियों का इल्म है वे जानते हैं कि इन कामों की कोई नौकरी सरकार में नहीं होती, या न के बराबर होगी, और वह भी सिर्फ कपड़ों की सफाई से संबंधित। अब इस बात का ठंडे दिमाग से जवाब दीजिए, कि डाॅ. आंबेडकर जी द्वारा 1954 में सफाई कर्मियों का संगठन बनाने के बाद, आज तक, कितनी सरकारी नौकरियां वाल्मीकि समुदाय को मिली होंगी? कुछ वर्ष पहले आए कांट्रैक्ट सिस्टम को हटा दें तो म्युनिसिपालटि से लेकर सभी सरकारी संस्थाओं में सफाई के काम की जरूरत रही और पक्की सरकारी नौकरियां सबसे ज्यादा इसी काम की मिली।
वाल्मीकि समुदाय की जनसँख्या बढ़ने का प्रमुख कारण ही यह है, कि शहरीकरण के साथ सफाई के काम की जरुरत भी बढ़ गई इसलिए लोग रोजगार के लिए सफाई के काम से जुड़ते गए और नए समूहों का सफाईकर्मी वर्ग का सदस्य बनने से वे सब एक जाति में तब्दील हो गए। पहले नौकरियां सरकारी रहीं तो आमदनी अच्छी रही। पर कुछ दशकों पहले कांट्रैक्ट सिस्टम लागू होने लगा और पक्की और अधिक आय की नौकरियां जाने लगी। फिर आज यह शिकायत इस बात पर होनी चाहिए कि नौकरियां पक्की की जाएं या कोई और आरक्षण खा रहा है? मैंने जैसा ऊपर लिखा, कि सफाई के काम का सही मूल्यांकन हम अभी तक नहीं लगा पाएं हैं। और इसलिए सरकार को कांट्रैक्ट सिस्टम सभी नौकरियों से हटाना होगा।
एक और बात मैं अपने अनुभव से कहूंगा। और मुझे इस बात का दुख है, कि वाल्मीकि समुदाय पर यह बात आरोप की तरह कही जाती है, कि क्योंकि उन्हें सरकारी नौकरियां मिल गई, इसलिए उन्होंने इसे आसान काम समझ कर अपना लिया। यह भी बकवास की बात है। सुबह-सुबह उठ कर देश को स्वच्छ रखने के लिए रोज-रोज जाना एक कठिन और शरीर और दिमाग तोड़ देने वाला श्रम है। साथ ही समाज में पुरस्कृत होने कि जगह उपेक्षित होना, केवल उनकी मानसिक वेदना को ही नहीं बताता, बल्कि उनकी मानसिक विकृति को बताता है, जो उनके काम का महत्व समझते हुए भी अंजान बनते हैं और उनका सामाजिक बहिष्कार करते हैं।
रही बात एक और बकवास की, कि आने वाली पीढ़ियों ने सफाई का पेशा ही ज्यादातर अपनाया, तो ऐसे लोगों को यह जानकारी नहीं है का भारत सरकार के कई अफसर वाल्मीकि समुदाय के रहे हैं, जिन्होंने पुश्तैनी काम नहीं अपनाया। शादियों में घोड़े, बग्गी और बैंड का व्यवसाय भी वाल्मीकि समुदाय के बहुत से लोग करते हैं। विदेशों में वाल्मीकि समुदाय की एक बड़ी, शिक्षित और संपन्न आबादी है जो दो या तीन पीढ़ियों से है। पुलिस, बी एस एफ, सी आर पी एफ आदि सुरक्षा बलों में भी वाल्मीकि समुदाय देश का नेतृत्व करने में आगे है।
हालांकि, सबको मिलकर सफाई के काम में कांट्रैक्ट सिस्टम का विरोध करना चाहिए था, पर फिर भी, वाल्मीकि समुदाय के लोग सरकारी कांट्रैक्टर बने और अपनी व्यवसायिक क्षमता से यह काम भी किया। मांस के काम में भी वाल्मीकि समुदाय ने अपनी व्यापारिक क्षमता का परिचय दिया है। मेरे सर्कल में कई वाल्मीकि समुदाय के लोग एवं मित्र हैं जिन्होंने विषमताओं में भी शिक्षा लेकर दूसरे अन्य पेशों को अपनाया। कई वर्ष पहले मैं एक ऐसे युवक से मिला था जो आय के लिए सुबह रोड़ की सफाई का काम करके काॅलेज में बी. काॅम. की पढ़ाई करने जाता था।
उसी समय मेरा एक भाई भी सुबह चार बजे उठ कर, आय के लिए, अखबार डालने जाता था। इसलिए यह नकारात्मक सोच है, कि वाल्मीकि समुदाय ने सिर्फ एक ही पेशा अपनाया। अंततः, मैं यही कहूंगा, कि ऊपर दिया मेरा एक तर्क काफी है, इस गलतफहमी को दूर करने के लिए कि वाल्मीकि समुदाय का आरक्षण कोई और जातियों के लोग खा गए। साथ ही, यह बात समझने की है, कि अब समस्या सबके सामने क्या है और कितनी बड़ी है।
निजीकरण, औपनिवेशिक औद्योगिक मशीनी पद्धति और डिजिटल सिस्टम, ऐसी भयंकर महामारियां हैं, जिनकी चपेट में सब आएंगे। पार्टीयां आपको बांटना चाहेंगी। यह उनकी नीति है। उनमें बैठे लोग पूंजीपतियों के साथ मिलकर मलाई लूट कर गायब हो जाएंगे और हमारे बच्चे उनकी आने वाली पीढ़ियों के गुलाम भर बन कर रह जाएंगे। इसलिए कोई ऐसी राह न पकड़े जो छोटे स्वार्थ के लिए हो। आनेवाले बड़े और निर्णायक युद्ध पर ध्यान केंद्रित करें जहां इंसान की जगह मशीनें ले लेंगी और साधन, सत्ता और राष्ट्रीय संपत्ति पूंजीपतियों के हाथ में।
मेरे द्वारा कुछ पुस्तकें लिखी गई हैं और कुछ पर काम चल रहा है। इनमें डॉ. आंबेडकर जी की जीवनी, उपन्यास: दलित की गली, बुद्ध का पथ, डॉ. आंबेडकर और बौद्ध धम्म, शामिल हैं। इनके अतिरिक्त, डाॅ. आंबेडकर जी की लिखित निम्न पुस्तकों का अनुवाद भी मैंने किया है: अछूत और ईसाई धर्म, एनाहिलेश ऑफ कास्ट (जाति का संहार), भारत में जातियाँ, शूद्र कौन थे और वे भारतीय आर्य समाज में चौथा वर्ण कैसे बने? (इसका प्रकाशन 2025 में होगा)। साथ ही कार्ल मार्क्स के बताए - श्रम का विभाजन - का अनुवाद और प्रथमतः उस पर भारत में टीका मेरे द्वारा किया जा रहा है और सितंबर 2024 में यह पुस्तक उपलब्ध होगी।
आपसे अनुरोध है, कि डॉ. आंबेडकर जी की सचित्र कथा और कथन नामक पुस्तक की सौ प्रतियाँ मुझसे लें और लोगों में वितरित करें। इससे डॉ, आंबेडकर जी को और उनके मिशन को लोगों से जोड़ें। दलित की गली और बुद्ध का पथ भी आप वितरित कर सकते हैं। यह तीनों पुस्तकों की सौ-सौ प्रतियाँ (कुल 300 प्रतियां) आपको पंद्रह हजार रूपये में भेज दी जाएंगी।
डॉ. आंबेडकर जी की लिखित - एनाहिलेश ऑफ कास्ट (जाति का संहार) और भारत में जातियाँ, दोनों पुस्तकें एक ही पुस्तक में हैं और मात्र दस हजार रुपये में आपको इसकी सौ प्रतियां भेज दी जाएंगी।
और जैसा कि मैंने आने वाली समस्याओं के बारे में बताया है, तो आप चाहें किसी भी जाति या धर्म से हों, पुस्तक - श्रम का विभाजन - का वितरण करके आप लोगों में नई चेतना जगा सकते हैं। इस पुस्तक की सौ प्रतियां दस हजार रूपये में आपको भेज दी जाएंगी।
अंततः, उन निराशावादी और हर चीज में बुराई खोजने वाले लोगों के लिए यह संदेश है, जो कहेंगे कि मैं अपना धंधा जमा रहा हूँ। उन्हें न इस बात का पता है और न मैं किसी को बताना चाहता हूँ कि मैं किन कठिन परिस्थितियों में अध्ययन, ज्ञान का सृजन और वितरण करता हूँ। क्योंकि सारी शिक्षा ही पूंजीवादी स्वार्थ की मिलती है इसलिए इंसान दूसरे को तो क्या, बल्कि खुद को भी नहीं समझ सकता। मार-काट की इस दुनिया में कौन ऐसे व्यक्ति पर यकीन करेगा जो दृढ़ता से ललकाराता हुआ यह कह रहा हो, कि मैंने समाज के लिए जीवन लगा दिया।
बुद्ध, डॉ. आंबेडकर और कार्ल मार्क्स जैसे लोगों के प्रति भी, उनके समय में, स्वार्थी और स्वार्थ की शिक्षा की मानसिकता पाने वाले लोग, उनमें भी बुराईयां ही खोजते थे। मुझे यदि पैसै और पुरस्कार की चाह होती तो कुछ और करता। पर मैं जितनी दुनिया में सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा हूँ, और उन्हें देख रहा हूँ, तो मुझे बाकी सब उतने ही व्यर्थ की बातें लग रही हैं जो केवल लोगों को अपने में लपेटे और गुमराह करने वाली हैं।
मैं यह सब काम समस्याओं को जड़ से खत्म करने के लिए कर रहा हूं। धन तो सिर्फ साधन है, उद्देश्य नहीं। जीवन की यात्रा तो सबको पूरी करनी है। पर महत्वपूर्ण यह है कि यात्रा में आप दर्शक या मनोरंजन का पात्र बने रहे या आपने अपनी यात्रा को समझा और उसकी गहराई में गोते लगाए।
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