जनक राव घरडे: एक साधारण आदमी का असाधारण जीवन

शिक्षाप्रेमी जनक राव घरडे की याद में विशेष

शशि गणवीर

 

पहली बार मिलने पर जनक राव घरडे जी इतने सामान्य और साधारण लगते थे कि दोबारा मिलने पर उनसे पहले हुई मुलाकात याद करने में कठिनाई होती, इतना सामान्य और आम आदमी की छवि थी जनकराव घरडे जी की। अक्सर वह अपनी ‘फेडोरा स्टाइल टोपी’ पहने रहते शायद उसी से लोग उन्हें पहचान लेते।

लेकिन उस टोपी के बिना यह प्रतीत हो सकता था कि कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण का आम आदमी अखबार के कॉलम से कूद कर आपके सामने आ गया हो। वही चेहरा मोहरा वही कद काठी और चेहरे पर आम आदमी की चिर परिचित चिंता की लकीरें, जैसे एक आम आदमी सरकार और समाज से असंतुष्ट हैं।

लेकिन जनक राव घरडे जी का आम आदमी की रूप सिर्फ बाहरी आवरण था, वह आम आदमी की तरह समस्या पर टिप्पणी कर, मन की टीस को बोलकर शांत कर देने वालों में से नहीं थे। 

घरडे जी से बातचीत में अक्सर यह मुद्दा होता था कि अच्छी शिक्षा के अवसर ना मिलने से बच्चों में लगन का अभाव व्याप्त हो चुका हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी स्कूली शिक्षा के लिए उत्साह कम होता जाएगा। एक साधारण से दिखने वाले बीमा अभिकर्ता के मुंह से यह सुनना काफी विरोधाभासी लगा करता था। परंतु कुछ समय में दिखाई देने लगा कि  बीमा अभिकर्ता की भूमिका उनके मिशन को आर्थिक आधार देने का साधन मात्र था।

मिशन, जरूरतमंद बच्चों को भविष्य बनाने का अवसर देने का, एक असाधारण मिशन जिसके लिए उन्होंने अपने जीवनशैली को ही ऐसे ढाल लिया कि वो स्वत: ही मिशन में बढ़ती रहे, जैसे की मिशन ही उनकी प्रकृति थी उनका निहित गुण था।जिन बालक बालिकाओं का उन्होंने जिम्मा लिया उनके लिए वह पिता समान ही रहे। उन बच्चों में शिक्षा के साथ साथ व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो, दुनिया देखने और समझने का नजरिया विकसित हो इसका विशेष ध्यान रखा।

बच्चों के प्रति भावनात्मक जुड़ाव को कभी छुपाने का प्रयास नहीं किया बल्कि अभिव्यक्त कर बच्चों के भावनात्मक नींव के विकास को सुनिश्चित भी किया। उनके विचारों और दृष्टिकोण का विस्तार हो सके इसलिए समाज और धम्म के कार्यक्रमों में, अच्छे वक्ताओं के भाषणों में अपने साथ उन बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित की, जिससे विचारों और धम्म के प्रति उनका दृष्टिकोण विकसित हो। बच्चों के सर्वांगीण विकास का इतनी बारीकी से इतनी गहराई से समझ होना उनके व्यक्तित्व का आश्चर्य जनक पहलू रहा। 

कम ही लोगो में यह असाधारण गुण होता है जिनसे कोई भी बच्चा उनसे स्नेह करने लगे और बातचीत या व्यवहार करते हुए अपने माता पिता जैसा सहज महसूस करने लगे। घरडे जी के मार्गदर्शन में रह रहे बालक बालिकाओं में उनके प्रति स्नेह अपने आप झलक जाया करता था। बच्चे सहजता से उनसे मांग कर सकते थे - चीजों की, घूमने की, नई कॉपी किताबों की; बच्चे उनसे रूठ सकते थे, उन्हें अनदेखा कर सकते थे और उनकी समझाइश की बातें सुनी अनसुनी कर सकते हैं।

जैसा कि कोई बच्चा अपने मां बाप के साथ करता है। उनका चिर संवाद होता था -‘पता नहीं कब समझ में आएगा इन बच्चों को, मैं अपनी जिम्मेदारी पूरा कर दे रहा हूं, बाकी यह जाने, हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा।’ घरडे जी यह बात अपने जिम्मे में लिए बच्चों के लिए सरलता से कह देते हैं। यह समर्पण उनका अपने मिशन के प्रति गहरी आसक्ति, गंभीरता को उभरता है।

घरडे जी से इतने समय तक जुड़े रहने के बावजूद उनके निजी जीवन के विषय में चर्चा नहीं हुई, उन्होंने कभी अपने निजी जीवन को वार्तालाप का विषय नहीं बनाया। सामान्य बातचीत भी कभी निजी समस्याओं के तरफ रास्ता नहीं बना सकी। उनकी बातचीत उनके मिशन पर केंद्रित रही। - होटल पर चाय पीते, या घर पर बैठे, उनका बातचीत का विषय शिक्षा, अपने देखरेख उनके जिम्मे लिए बच्चों का भविष्य, उनकी जरूरतें, और उनकी नासमझी पर चिंता जाहिर करने पर केंद्रित रही।

कभी चाय पीते हुए पूछ लिया की सर कोई किताब वगैरह तो नहीं चाहिए? सर फलां विज्ञापन निकल चुका बच्चों को भरवा दीजिए। सर फलां कंप्यूटर कोर्स करवा देते हैं बच्चों को। सर इस बार बीमा का कमीशन आते ही बच्चों के लिए कंप्यूटर और प्रिंटर लेना हैं। मुझ पर यह दबाव डालते हुए कि फलां बच्चा आपके पास यह पढऩे आएगा, फलां बच्ची को 2 महीने के लिए परीक्षा का मार्गदर्शन देंगे, 2 महीने बाद फलां परीक्षा है कुछ बच्चो को भेज रहा हूं आदि आदि पर केंद्रित रही। 

यदि कार्यशैली के नजरिए से देखा जाए तो क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि घरडे जी की कार्यशैली एक कट्टर मिशनरी की कार्यशैली से मेल खाती है? एक ऐसा कट्टर मिशनरी जिसे नाम, सम्मान, पहचान का मोह न हो बल्कि उनकी निस्वार्थता इतनी खालिस कि कर्म में आत्म संतुष्टि की चाह भी न रहे। घरडे जी यह कार्य इसलिए कर रहे थे क्योंकि उनके हिसाब से ऐसा ही करना चाहिए, यही सामान्य आचरण होना चाहिए।

किसी कार्य को करना क्योंकि उसे किया जाना है, उसे करने से कोई नाम, सम्मान, पहचान, आत्मसंतुष्टि हासिल नहीं होगी, बस उसका किया जाना उन बच्चों के भविष्य के लिए जरूरी है, उनका भविष्य उज्जवल हो जाएगा, अपने पैरों पर खड़े होंगे, किसी पर निर्भर नहीं होंगे। उनके अंदर सिर्फ उन बच्चों के प्रति दायित्व का भाव था, और उस दायित्व को पूरा करने की प्रबल इच्छाशक्ति।

अत्यधिक समर्पण को समाज स्वतंत्र दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न नहीं कर पाता है, उस समर्पण के पीछे कारण जानना चाहता है। या फिर उसे पूर्व परिभाषित समर्पण की श्रेणी में देखना चाहता है - जैसे भिक्खू, अनागरिक, सन्यासी, किसी संगठन संस्था का कार्यकर्ता आदि...। इनके बिना समाज उस समर्पण को समझने के लिए वैचारिक प्रयत्न नहीं करता, आशंकित रहता हैं।

घरडे जी भी इस सामाजिक मनस्थिति का शिकार हुए। कई बार समाज ही उनके उद्देश्य के सामने दीवार बन कर खड़ा हो गया। इसलिए शायद उन्होंने कोई संस्था या संगठन बनाना उचित नहीं समझा। यह सच है कि कुछ लोग होते हैं जो समर्पित होकर सामाजिक उत्थान के लिए कार्य करते हैं, लेकिन घरडे जी का स्थान उनमें सबसे अलग है।

उनके योगदान की कोई सीमा नहीं रही, चाहे वो आर्थिक रूप से हो या व्यक्तिगत उपस्थिति के रूप हो पैसे से या समय से, यहां तक कि अपना नुकसान करते हुए भी। और इस त्याग और समर्पण का कारण सिर्फ उनका व्यक्तित्व था जो स्वभाव से ऐसा ही था।

घरडे जी जिस प्रकार अपने असाधारण जीवन को साधारण बना कर चलते रहे जिस प्रकार प्रशंसा से दूर भागते रहे वह समर्पण की मिसाल है ही नहीं है बल्कि व्यक्तित्व की गहराई को भी बयान करती है।

जो छाप उन्होंने अपने सान्निध्य में रहे बच्चों के मन में छोड़ी है वो एक ऐसा प्रेरणास्रोत है, जो उन्हें भविष्य में इन बालक बालिकाओं को निरंतर प्रेरित करेगा कि वे नि:स्वार्थ किसी जरूरतमंद बच्चे के भविष्य को अच्छा बनाने की जिम्मेदारी ले, ऐसा प्रेरणास्रोत है जो यह विश्वास दिलाएगा की साधारण लोग असाधारण कार्य करते हैं और उस असाधारण कार्य को साधारण और सामान्य जीवन की आदत बना लेते हैं।

लेखक जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षक हैं।


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