बैंको के निजीकरण

गिरीश मालवीय

 

अच्छी सर्विस मिलना ही उनका इस मुद्दे पर सरकार का समर्थन करने का एकमात्र क्राइटेरिया है, बहुत से लोग अच्छी सर्विस के लिए वह ज्यादा पैसे खर्च करने को भी तैयार है उन्हें उसमे भी कोई आपत्ति नही है.

अब मैं मेरा पर्सनल एक्सपीरियंस आपके सामने शेयर करता हू एक दोपहर में एसबीआई की ब्रांच में था सर्विस मैनेजर की टेबल के आगे भीड़ थी, सबसे आगे लगा व्यक्ति सर्विस मैनेजर से पूछ रहा था कि मेरा खाता यहाँ बन्द हो गया है क्या मेरे खाते में पैसा जमा हो जाएगा?

क्या अजीब सा सवाल था पर यह बात वह बार बार जोर जोर से दोहरा दोहरा कर पूछ रहा था,  सर्विस मैनेजर भी परेशान हो गया और लाइन में खड़े हम लोग पहले हँसे फिर अपनी बारी में देर होने पर झुंझलाने लगे कि यह क्या आदमी है.

आप यदि एसबीआई ब्रांच में जाते रहते हैं तो आप पाएंगे कि वहाँ ब्रांच समाज के निचले वर्ग के लोग बड़ी संख्या में मौजूद रहते हैं, ठेला खोमचा लगाने वाले छोटी मोटी नोकरी करने वाले लोग, पेंशनर्स, बूढ़ी महिलाएं. आदि आदि.

इसके विपरीत यदि आप प्राइवेट बैंक की ब्रांच में जाएंगे तो वहाँ आप बड़ी संख्या में सूटेड बूटेड पढ़े लिखे अपर मिडिल क्लास के लोगो को बैंकिंग व्यहवार करता हुआ पाएंगे.

बस यही फर्क है जो हमे ठीक से समझने की जरूरत है दरअसल हुआ यह है कि हमने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पूरी तरह से भुला दिया है बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह थी कि आम गरीब लोग भी बैंक जा पाए वहाँ पैसे जमा कर पाए वहाँ से लोन ले पाए और बैंको से जुड़ी तमाम सुविधाओं का लाभ ले पाए. किसी बुजुर्ग से पूछिएगा कि राष्ट्रीयकरण के पहले बैंक कैसे थे क्या थे? एक पूरी पीढ़ी गुजर गई है 90 के दशक में जन्मी पीढ़ी यह बात समझ ही नही सकती.

कुछ साल पहले देश के प्रधानमंत्री मोदी ने जन धन खाता योजना शुरू की थी बहुत बड़ी जनधन खाता वैसे लोगों को खुलवाया गया था जो आर्थिक रूप से काफी कमजोर थे जिनका बैंक से कोई लेना देना नहीं था, जन-धन योजना का मकसद समाज के उस हिस्से को जोड़ने का था जो आर्थिक विपन्नता के चलते बैंकों में खाते नहीं खोल पाया 
नीमच जिले के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ ने सूचना के अधिकार के तहत वित्त मंत्रालय से प्रधानमंत्री जनधन योजना का ब्योरा मांगा तो पता चला कि 17 जुलाई, 2019 तक की स्थिति के अनुसार इस योजना के तहत 36.25 करोड़ खाते खुले हैं.

अब आप बताइए कि कितने प्राइवेट बैंको ने जनधन खाते की सुविधा लोगो को दी? कितने जनधन खाते निजी बैंको में खोले गए? प्राइवेट बैंक में खाता खुलवाने के लिए न्यूनतम 5 से 10 हजार रुपए लगते है, जबकि सरकारी बैंकों में जनधन खाते के जरिए जीरो बैलेंस पर खाता खोला जाता है.

आपने 36 करोड़ नए खाते लोगो के खुलवा दिए इन लोगो को सर्विसेज देने के लिए आपने बैंको में कितने नए लोगो की नियुक्ति की? एक भी नही बल्कि आपने कई लोगो को निकाल दिया जो कर्मचारी रिटायर हो गए उनकी जगह भी आपने नयी नियुक्तियां नही की.

36 करोड़ जनधन खाताधारकों की यही भीड़ आज सरकारी बैंकों की ब्रांच में बढ़ती जा रही है और आम खाताधारक की बैंकिंग व्यहवार में परेशानी भी बढ़ रही है.

अब आप बताइये की जब सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण होगा तो बैंकों की यह सामाजिक जिम्मेदारी को कौन निभाएगा? सरकारी बैंक जिस तरह के ग्राहकों के साथ जिस तरह से बैंकिंग कर रही है, वह निजी क्षेत्र के बैंक दे ही नही पाएंगे.

एक बार फिर से जनता साहूकारों के चंगुल में फसेंगी इसके लिए नई तरह की फिनटेक कंपनियों ने कमर कस ली है एप्प से लोन देने वाली कंपनियों जमके ब्याज वसूलेगी, सब तैयारी कर ली गयी है.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले भारत की पूरी पूंजी बड़े उद्योगपतियों और औद्योगिक घरानों के ज़रिए ही नियंत्रित होती थी, अब एक बार फिर से वही निजीकरण का दौर लौटने को है. विडम्बना यह है कि जो लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं वही लोग इसके समर्थन में खड़े हुए है.


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