दर्शन और दार्शनिक उद्विकास

दर्शन व धर्म के क्षेत्र में भौतिकवाद और भौतिक आयामों की उपेक्षा

संजय श्रमण

 

यह दर्शन और दार्शनिक उद्विकास में रूचि रखने वाले मित्रों के लिए है. इसका उद्देश्य सिर्फ इतना है कि मित्रों को भारतीय दर्शन के इतिहास में खो गए अध्यायों की तरफ थोड़ी सी रूचि जागृत हो जाए. इस तरह वे भारत के ऐतिहासिक पतन को भी समझ सकेंगे.

यह देखकर अक्सर ही दुःख होता है कि इस विशाल देश के हजारों साल के इतने लंबे इतिहास में भी वह सब हासिल नहीं किया जा सका जो पश्चिम ने पिछले चार सौ साल में हासिल कर लिया है. इसका मौलिक कारण ढूँढने की कोशिश करें तो एक ही कारण नजर आता है. वो है दर्शन व धर्म के क्षेत्र में भौतिकवाद और भौतिक आयामों की उपेक्षा.

सामान्यतया यह मान लिया जाता है कि भारतीय और समस्त पूर्वीय दर्शन भाववादी या आध्यात्मिक ही हैं और भौतिकवादी दर्शनों को एक बचकानी पहल बताकर निरस्त कर दिया गया है. ऐसा जतलाते हुए अक्सर यह मान लिया जाता है कि आत्मा परमात्मा बड़ी महान चीजें हैं और शरीर व उसके सुखा निंदनीय हैं.

लेकिन लोकायत आजीवक और जनजातीय व श्रमजीवी समाज की आरंभिक स्थापनाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि बहुत शुरुआत में भारतीय दर्शन ने और विशेष रूप से मातृसत्तात्मक जनजातीय व श्रमजीवी समाज ने भौतिकवाद को जिस तरह से अपने विचार की धुरी बनाया था वह एक बहुत ही वैज्ञानिक और ईमानदार शुरुआत थी.

वे लोग भौतिक शरीर के सुखों और भौतिक आवश्यकताओं से संचालित जीवन और उसके मनोविज्ञान का सम्मान करते थे और बहुत शुरुआत से ही एक किस्म के ईमानदार कार्य कारण नियम पर निर्भर होने लगे थे.

हालाँकि उनके अंधविश्वास और कर्मकांड भी थे, लेकिन उन्हें भी गौर से देखा जाए तो उनके पीछे जो मान्यताएं या व्याख्याएं हैं वे ऐसे ओब्जर्वेशन पर आधारित हैं जिनमे बहुत भौतिक प्रकृति का कार्यकारण संबंध छुपा होता है. वे आजकल के ज्योतिषीय अंधविश्वास जैसे नहीं थे कि लाल कपड़ा बाँध लो तो लाल गृह शांत हो जाएगा. उनके कर्मकांडों के पीछे एक नितांत भौतिक और वैज्ञानिक प्रेक्षण था.

जैसे कि फसल बोते समय स्त्री पुरुष के शारीरिक संसर्ग से जुड़े हुए कर्मकांड जो पूरी दुनिया में एक जैसे फैले हुए हैं. इसके मूल में यह मान्यता या ओब्जर्वेशन है कि स्त्री की उर्वरता और प्रकृति की उर्वरता एकदूसरे को बढाती और प्रेरित करती है. इसीलिये बाँझ स्त्री को ज़िंदा खेत या ज़िंदा कुवें के पास लाना और रजस्वला स्त्री को खेत में बुआई के समय पूजना या उससे जुड़े कुछ कर्मकांड करना यह दुनिया भर में एक चलन रहा है.

पहले भारत में भी यह बहुत हद तक प्रचलित रहे हैं और आज भी कहीं कहीं हैं. यह पहली ईमानदार भौतिकवादी और मात्रसत्तात्म्क जीवन व्यवस्था थी जो सार्वभौमिक थी. इसी से पूरी दुनिया में तन्त्र, रसायन और चिकित्सा सहित स्वयं धर्म का जन्म हुआ है.

भारत में आज भी जनजातीय व श्रमिक जातियों में तांत्रिक अनुष्ठानों और विश्वासों का जो स्वरुप है वो बहुत हद तक स्त्री व भूमि की उर्वरता और उससे जुड़े सौन्दर्स्यशास्त्र को केंद्र में रखता है.

इस तरह देखें तो आरंभिक भौतिकवादी दर्शन जैसे लोकायत, चार्वाक और आजीवक न केवल तांत्रिक दर्शनों के विकास के लिए जमीन बनाते हैं बल्कि इन्ही ने शुरुआती वैज्ञानिक चिंतन को आकार दिया है.

सांख्य और योग सहित अन्त्य दर्शन भी इन्ही की मान्यताओं पर खड़े हैं. भौतिक शरीर के सुख को स्वीकार करते हुए उस सुख को बढाने या बचाने के लिए जिस रसायन का विकास हुआ वह आगे चलकर आयुर्वेद बन जाता है.

स्त्री और भूमि की उर्वरता में जो संबंध जोड़ा गया वही पिंड और ब्रह्माण्ड की नैसर्गिक एकता का दर्शन बन जाता है और आगे खगोल और ज्योतिष के आधार रखता है.

इसी तरह के कार्य कारण संबंधों से न केवल उन्होंने अपने कर्मकांड रचे बल्कि आरंभिक विज्ञान तकनीक भी विक्सित की. तन्त्र के ग्रंथों में शरीर रचना की जैसी व्याख्या है वो अचंभित करती है. श्रमजीवी जातियां जो मृत शरीर को छूना पाप नहीं समझती थीं या जिनके लिए मृत शरीर भी अन्य भौतिक पदार्थों की तरह पवित्र माना जाता था उन्होंने मृत शरीर की चीरफाड़ से बहुत कुछ खोज लिया था.

आधुनिक यूरोप में भी नास्तिक व भौतिकवादी विचारकों ने मृत शरीर की चीरफाड़ से ही इस तरह का चिकित्सा और शल्य चिकित्सा विज्ञान पैदा किया है.

भारतीय इतिहास में खो गए ये भौतिकवादी न केवल गजब के वैज्ञानिक मानस के थे, बल्कि उनकी समाज रचना और जीवन शैली भी बहुत लोकतांत्रिक थी. सबसे सुंदर बात ये कि उनका समाज और परिवार मातृसत्तात्मक था जिसमे स्त्री को न केवल बराबरी का अधिकार था बल्कि जन्म देने की योग्यता के कारण वह पुरुष से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती थी.

इसी मान्यता ने स्त्री सृजनात्मकता को खुला आकाश दिया और सारी कलाएं जैसे गायन, वादन, चित्रकला, खेती, बागबानी, नृत्य और सब तरह की अन्य सृजनात्मक चीजें उन स्त्रीयों ने पैदा की हैं जो मातृसत्तात्मक और भौतिकवादी समाज का हिस्सा रही हैं. अभी भी भारत में इसके अवशेष बाकी हैं.

आसाम बंगाल और उड़ीसा के साथ दक्षिण में कई इलाकों में तन्त्र के साथ यह भौतिकवाद और मातृसत्ता अभी भी किन्ही अर्थो बची हुई है. अधिकाँश जनजाती समाज अभी भी मात्र-सत्तात्मक हैं.

इसीलिये इनमे पुरुष देवताओं की बजाय प्रकृति, वन देवी या दुर्गा काली जैसी स्त्री देविया पूजी जाती हैं. यही तथ्य इस बात की भी व्याख्या करता है कि बंगाली या दक्षिण भारतीय समाज में अन्य समाज की तुलना में साहित्य, नृत्य, गायन, वादन कला से प्रेम अधिक क्यों है.

यह एक बहुत गहरा सूत्र है. जिस समाज में भौतिकवाद होगा वहां विज्ञान भी होगा और निश्चित रूप से वहां स्त्रीयों की स्वतन्त्रता भी होगी. आज पूरा पश्चिम जिस भौतिकवाद को विक्सित कर रहा है वो इमानदार अर्थों में भले ही मात्रसत्तात्म्क समाज न बना रहा हो लेकिन एक समता की सुगंध वहां फ़ैल गई है.

स्त्री पुरुष समानता की बात वहां स्थापित हो गयी है और आश्चर्यजनक रूप से यह धर्म या भाववाद के कारण नहीं स्थापित हुई है बल्कि ठोस भौतिकवाद के कारण स्थापित हुई है.

इस भूमिका के बाद अब भारतीय दर्शन में भाववाद और आत्मा परमात्मा के बढ़ते हुए प्रभाव को देखना मजेदार बात है. हम देख पाते हैं कि जैसे जैसे भौतिकवाद और मातृसत्तात्मक व्यवस्था से भाववाद और पित्र सत्ता की तरफ यात्रा होती है वैसे वैसे समाज अवैज्ञानिक, कर्मकांडी, अन्धविश्वासी और परलोक वादी होता जाता है.

न सिर्फ इतना बल्कि प्रकृति में समानता और साम्य को केंद्र में रखकर जो बराबरी का समाज बुना गया था उसमे भी स्त्री पुरुष विभाजन सहित मनुष्यों की श्रेणियों के सैकड़ों विभाजन खड़े होने लगते हैं. यहीं से वर्ण और जाति की प्रेरणाएं आकार लेती हैं.

तो जो लोग वास्तव में इस देश की परम्पराओं और इतिहास पर गर्व करते हैं या करना चाहते हैं उन्हें भारतीय दर्शन के भौतिवाद का अध्ययन करना चाहिए. इस अध्ययन के बाद आप वास्तव में गर्व कर पायेंगे कि भारत में भी सच्चे अर्थों में भौतिकवादियों, श्रमजीवी समाजों और जनजातीय समाजों और स्त्रीयों ने ज्ञान विज्ञान और कला का पहला फूल खिलाया था.

हालाँकि बाडी में उन्हें मसल दिया गया और तथाकथित आध्यात्मवादी दर्शनों ने सब मटियामेट कर दिया.

इसीलिये स्त्री के सम्मान, भौतिकवाद, लोकतंत्र और विज्ञान के बीच एक सीधा संबंध है. इसी तरह पुरुष सत्ता, धर्मसत्ता, आत्मा परमात्मावाद, और अंधविश्वास के बीच एक सीधा संबंध है.

आज आप जिस भारत को देख रहे हैं उसमे स्त्री, भौतिकवाद, सामाजिक समानता और विज्ञान की जो हालत है उसे इस भूमिका के प्रकाश में रखकर देखिये, तब शायद आप भौतिकवाद के सौंदर्य को और भाववाद की असफलता को समझ सकेंगे.


इस विषय में जिन्हें रूचि है वे देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय के महान ग्रन्थ “लोकायत” का अध्ययन अवश्य करें.  


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