कबीर की दुनिया
उनके बारे में आज भी व्यापक शोध की जरूरत है
प्रेमकुमार मणिकबीरपंथी प्रायः पिछड़े-दलित परिवारों के लोग ही होते थे. हमारे गांव के कई चमार परिवार कबीरपंथी थे. वे मांस-मदिरा का सेवन बिलकुल नहीं करते थे. पासी, कहार, कुम्हार, कुशवाहा, यादव परिवारों से कई लोग कबीरपंथी थे. लेकिन मेरे जानते, किसी तथाकथित ऊँची जाति का कोई आदमी कबीरपंथी नहीं था. लोहार परिवार से आने वाले एक साधु थे, जिन्हे देखने से गुरु नानक की याद हो आती थी.

कबीर जेठ की पूनो (पूर्णिमा ) को प्रगट हुए थे, यह किंवदंती है. इस में कुछ गलत भी नहीं है. इसलिए कि लोकमान्यता यही है कि वह काशी के लहरतारा तालाब के पास पाए गए थे, जिसे एक जुलाहा दम्पति ने अपने घर लाया और उनकी परवरिश हुई. जन्म देने वाली माँ ने उन्हें किसी कारण त्याग दिया था. इसलिए उनका जन्म कब हुआ यह कैसे कहा जा सकता है. लहरतारा के किनारे उनका देखा जाना प्रगट होना ही तो था. कबीर ऐसे ही प्रगट हुए थे. जेठ पूर्णिमा के रोज. उनके जन्म और जीवन के बारे में जितनी कथा है शायद ही किसी के बारे में हो.
कौन जानता है उन्हें जन्म देने वाली माँ कौन और कैसी थीं. इसका केवल अनुमान ही किया गया है. युवा काल में मैंने एक कविता लिखी थी - 'कबीर की माँ का स्वप्न '. कल्पना करने की कोशिश की थी कि कबीर जब गर्भ में होंगे, उनकी भयग्रस्त माँ को कैसे स्वप्न आते होंगे. तब गुरुजनों द्वारा हमें यही बतलाया गया था कि वह एक विधवा के पुत्र थे. लोकलाज के कारण उनकी माँ ने उन्हें लहरतारा सरोवर के किनारे रख दिया था. कमल-पात पर. अनेक देवता ऐसे ही प्रगट हुए बताये गये हैं.
कबीर अथवा उनके किसी अनुयायी ने इस अनजान माँ के बारे में लिखा है -
' कबीर धनी वा सुंदरी, जिन जाया वैष्णो पूत
राम सुमिर निर्भय हुआ सब जग गया अऊत .'
( धन्य है वह माँ ,जिसने कबीर जैसे वैष्णव-पुत्र को जन्म दिया. राम का नाम सुमिरन कर वह निर्भय बन गया, जब कि सारी दुनिया ऊब चुकी थी. )
कबीर के बारे में बहुत तरह की किंवदंतियां हैं. हमलोगों को बताया गया था कि कबीर को बहुत लम्बा जीवन ( 120 साल ) मिला था, किन्तु आधुनिक विद्वानों के अनुसार उनका जीवन ( 1398 '448 ) बहुत संक्षिप्त था. उन्होंने इस अल्प-जीवन में भी दुनिया को गहरे प्रभावित किया. उनके बारे में आज भी व्यापक शोध की जरूरत है. अपने परिवर्तनकारी विचारों के लिए बौद्ध-साहित्य को देश से वर्चस्व प्राप्त लोगों द्वारा तड़ीपार कर दिया गया था, लेकिन कबीर के साहित्य का इसी भारत में गला घोंट देने की पूरी कोशिश की गयी. यह अच्छी बात है कि इस ज़माने में बुद्ध और कबीर दोनों एक बार फिर अपने विचारों के साथ हमारे बीच हैं.
बचपन से कबीरहे साधुओं को देखता आया हूँ. वे मुझे बहुत भले लगते थे. कुछ अजूबे दीखते थे. वे भगवा वस्त्र नहीं पहनते थे. बगुलों की तरह स्वच्छ-सफेद-धवल वस्त्र होते थे उनके. लेकिन वे बगुला-भगत नहीं होते थे. मैंने कभी किसी कबीरहे साधु पर लांछन लगते नहीं सुना. यह संयोग भी हो सकता है. रेणु के उपन्यास 'मैला आँचल ' का तो आरम्भ ही कबीर मठ में लछमिन कोठारिन के यौन-शोषण प्रसंग से होता है. लेकिन इस विषय पर यहाँ अधिक नहीं जाऊँगा.
कबीरपंथी प्रायः पिछड़े-दलित परिवारों के लोग ही होते थे. हमारे गांव के कई चमार परिवार कबीरपंथी थे. वे मांस-मदिरा का सेवन बिलकुल नहीं करते थे. पासी, कहार, कुम्हार, कुशवाहा, यादव परिवारों से कई लोग कबीरपंथी थे. लेकिन मेरे जानते, किसी तथाकथित ऊँची जाति का कोई आदमी कबीरपंथी नहीं था. लोहार परिवार से आने वाले एक साधु थे, जिन्हे देखने से गुरु नानक की याद हो आती थी. खूब लम्बे, गोरे और सौम्य दिखने वाले उन साधु का कोई और नाम था या नहीं, मैं नहीं जानता. हम सभी बच्चे उन्हें साधु जी कहते थे.
हर वर्ष वह भंडारा (सत्संग) का आयोजन करते थे, जिस में बहुत से साधु इकठ्ठा होते थे. साधुओं के इस मेले का मुझे इंतज़ार होता था. उनकी सफाई देखने लायक होती थी. वे नारेबाजी जैसा कुछ नहीं करते थे - जैसे हर-हर बम-बम या अल्ला हो अकबर या इसी तरह के और कुछ. वे सुमधुर संगीतबद्ध शबद-कीर्तन करते थे. एक दूसरे से मिलते तब साहेब बंदगी करते.
हमारे गांव के एक कबीरपंथी, खंजड़ी पर झूम-झूम कर कबीर के भजन गाते थे. उनसे सुने कुछ भजन तो कबीर रचनावली में भी नहीं मिले. अब वह इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन उनकी सुमधुर ध्वनि मेरे मन के अतल में सुरक्षित है. बानगी के तौर पर दो पंक्तियाँ आप भी देखिये.
पानी बाढ्यो नाव में, घर में बाढ्यो दाम ,
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम.
( नाव में पानी और घर में संपत्ति का बढ़ना संकट का कारण है. इसे दोनों हाथ से उलीचिये, फेंकिए, यही होशियारी है. )
सयाना होने पर बौद्धिक जगत में कबीर और तुलसी का संघर्ष देखा-सुना. यह झूठा संघर्ष था. विश्वविद्यालयी बौद्धिकों ने यह संघर्ष खड़ा किया था. इन दोनों का कोई मुक़ाबला ही नहीं हो सकता. कबीर की दुनिया अलग है, तुलसी की अलग. दोनों के समय भी अलग हैं. तुलसी दुनिया की व्याख्या करते हैं. उनका तय वर्णाश्रमी दिमाग है. वह यथास्थितिवादी-मर्यादावादी हैं. वह जिस समाज का प्रतिनिधित्व करते थे, उसके लिए यह यथास्थितिवाद सुखद था. इसका उच्छेद ही उनके सामाजिक स्वार्थों को ध्वस्त करता था. इसलिए वह अपनी जगह पर सही थे. वह अपने वर्ग या लोक की फ़िक्र कर रहे थे.
कबीर का लोक अलग था. वह मिहनतक़श किसानों और कारीगरों के तबके का प्रतिनिधित्व करते थे, जो वर्णाश्रम व्यवस्था में तथाकथित निम्न जाति-वर्ण के लोग थे. उनके लिए यथास्थिति का उच्छेद जरूरी था. इसलिए उनकी चिंता दुनिया को बदलने की थी, जैसे मार्क्स की थी. वह यथास्थिति को बलात तोड़ देना चाहते हैं. क्योंकि यह यथास्थितिवाद उनके सामूहिक स्वार्थों (कलेक्टिव इंटरेस्ट ) के विरुद्ध था. 'जो घर जारै आपने चले हमारे साथ ' जो 'व्यवस्थित-मार्यादित दुनिया ' को भस्मीभूत करने का साहस रखता है ,वही हमारे साथ चले.
कबीर रामराज के आकांक्षी नहीं हैं. उनका प्रस्तावित कल्पनालोक अमरदेस गो-द्विज हितकारी नहीं, जाति-वर्ण से मुक्त है. पूरा पाठ देखना बुरा नहीं होगा -
जहवाँ से आयो अमर वह देसवा
पानी न पान धरती अकसवा, चाँद न सूर न रैन दिवसवा.
बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा ,मुगल पठान न सैयद सेखवा.
आदि जोति नहि गौर-गनेसवा, ब्रह्मा-बिस्नु-महेस न सेसवा.
जोगी न जंगम मुनि दुर्बेसवा,आदि न अंत न काल कलेसवा.
दास कबीर ले आये संदेसवा, सारसब्द गहि चलो ओहि देसवा.
यह उनके जाति-वर्ण मुक्त प्रकाशमय अमरदेस का स्वरूप है. काश ! हमारे राष्ट्रीय नवजागरण में रामराज की जगह अमरदेस का उपयोग हुआ होता. गांधी ने रामराज को हमारा राजनीतिक आदर्श बना दिया. इससे बड़ा नुकसान हुआ. इन बिंदुओं पर हमारे समाज में बातें कम होती हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
अपने जीवन के आखिरी दौर में दुनिया के अन्य महत्वपूर्ण विचारकों-दार्शनिकों की तरह कबीर भी आत्मसंघर्ष कर रहे थे. अपने ही कुछ पुराने विचारों से जूझ रहे थे. तुलसी ने भी यह किया है, गांधी ने भी. कबीर अपने ईश्वर (हरि अथवा राम ) से संभवतः मुक्त हो रहे थे. तभी तो उन ने कहा -
भला हुआ हरि बिसरे, मन से टली बलाय
अच्छा हुआ ईश्वर को भूल गया, मन पर एक फालतू-सा बोझ (बलाय ) था. ख़त्म हो गया.
कबीर को समझने केलिए समय चाहिए.वह अनेक रूपों में हमारे बीच हैं. उनका हर रूप चित्ताकर्षक है. वह संत हैं, लेकिन उनकी वाणी को लोगों ने कविता के रूप में देखा. वह कवि कहे गए. लेकिन कैसे कवि हैं कबीर ! उनकी कविता हाय-हाय वाली नहीं है. अपनी कविता में वह जीवन का रोना नहीं रोते. वह उल्लास के कवि हैं. उनकी कविता जीवन के उल्लास की कविता है. हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या. कबीर इश्क के कवि हैं, प्रेम और जीवन के कवि. ऐसे कवि बिरले होते हैं. कबीर बिरले कवि हैं.
कबीर को समझना मुश्किल है. उन्होंने कहा -
हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध
हद-बेहद दोनों तजे, उनका मता अगाध.
मनुष्य हद में चलता है और साधु बे-हद. लेकिन जो हद और बे-हद से परे होकर चलता है, उनका विचार अगाध है, अव्याकृत है. कबीर अपनी उपस्थिति यहीं मानते हैं.
उनके प्रकटोत्सव पर उन्हें साहेब बंदगी.
प्रभात खबर में छप चुकी है।
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