बाटला हाउस मुठभेड़ मैजिस्टेरियल जांच को दरकिनार करना न्याय की हत्या है


 

आरिज़ खान को सुनाई गइ सज़ा, शहबाज अहमद की जयपुर बम धमाका केस में ज़मानत और सूरत में 20 साल सीमी के नाम पर यूएपीए के तहत गिरफ्तार बेगुनाहों की रिहाई पर रिहाई मंच ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

रिहाई मंच ने आज़मगढ़ के आरिज़ खान को सुनाई गइ सज़ा, शहबाज अहमद की जयपुर बम धमाका केस में ज़मानत और सूरत में 20 साल सीमी के नाम पर यूएपीए के तहत गिरफ्तार बेगुनाहों की रिहाई पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।

महासचिव राजीव यादव ने दिल्ली की एक ट्रायल कोर्ट द्वारा आरिज़ खान को इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की हत्या के मामले में मृत्युदंड दिए जाने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद मुठभेड़ की एफआईआर दर्ज कर मैजिस्टेरियल जांच कराए जाने के दिशा निर्देशों को दरकिनार कर पहले ही न्याय की हत्या कर दी गई।

उन्होंने कहा कि मूल घटना को पीछे छोड़कर केवल उसके एक भाग मोहनचंद्र शर्मा की हत्या का मुकदमा चलाते हुए पहले शहज़ाद और अब आरिज़ को सज़ा दिलवाकर विवादास्पद बाटला हाउस मुठभेड़ को सही साबित करने का प्रयास है जिसे कभी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी फर्जी मुठभेड़ों की सूची में डाल रखा था।

रिहाई मंच के राजीव यादव ने कहा कि लखनऊ निवासी शहबाज़ अहमद को जयपुर धमाकों में ईमेल भेजने के आरोप में 12 साल कैद में रखा गया लेकिन जब उन्हें सभी मामलों में अदालत द्वारा बरी कर दिया गया तो उसी उसी घटना से जुड़े एक अन्य मुकदमें में 12 साल बाद फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।

जयपुर हाईकोर्ट के सामने अभियोजन इस बात का जवाब नहीं दे पाया कि कुल नौ मामलों में से एक को इतने लम्बे समय तक क्यों छोड़ रखा गया था और अन्य आठ मामलों में बरी होने के बाद उसके तहत क्यों गिरफ्तार किया गया।

इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि अभियोजन किसी न किसी तरह से पहले आरोपियों को लंबे समय बाद सज़ा दिलवाने का प्रयास किया और विफल रहने पर अधिक से अधिक समय तक बेगुनाहों को जेल में सड़ा देने का जाल बुना।

मंच महासचिव ने कहा कि 2001 में गुजरात के जनपद सूरत से शिक्षा पर एक सेमिनार में भाग लेने वालों को सीमी का सदस्य बताते हुए यूएपीए के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए 122 लोगों को करीब 20 साल से अधिक समय बाद मार्च 2021 में सबूतों के अभाव में निर्दोष पाकर बरी किया जाना हमारी पूरी न्यायिक व्यस्था पर सवाल खड़ा करता है।

उन्होंने कहा कि इसके बावजूद अगर किसी लोकतांत्रिक देश में, जहां संविधान व्यक्ति की आज़ादी की गारंटी करता है, किसी बहस का मुद्दा न बनना शर्मनाक है।


उन्होंने मुख्यधारा की मीडिया पर आरोप लगाते हुए कहा कि गिरफ्तारी और दोषी करार किए जाने के बाद मीडिया की मीडिया कवरेज और दोषमुक्त किए जाने के बाद की खबरों के तुलनात्मक अध्ययन से देश के एक समुदाय के दानवीकरण की पोल बहुत आसानी से खोली जा सकती है।

इस तरह की गिरफ्तारियों पर मीडिया के रवैये से सबसे अधिक महिलाएं और बच्चे प्रभावित होते हैं और पूरा परिवार समाज से कट जाता है।

उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा कि मीडिया के इन्हीं रवैयों के चलते महिला एवं बाल अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन भी महिला एवं बाल उत्पीड़न के इस पक्ष को समझने और अपना हक अदा नहीं कर पाते हैं।
 


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