मेरे सपनों का ‘नरक’

पूना पैक्ट 1932

संजीत बर्मन

 

जिस पर स्मार्ट शहर के नाम पर ‘नगर निगम नरक’ का अतिक्रमण दस्ता कभी बुलडोजर ना चला पाता।

अब चलिए स्वर्ग में देखते हैं क्या हो रहा है।

जहां आज सुबह-सुबह मोहनदास गांधी के चेहरे पर ओजस्वी मुस्कान देखकर बाल गंगाधर तिलक और सरदार पटेल चिंतित होकर एक साथ सवाल पूछते।

कि गांधी जी आपके चेहरे और भाव भंगिमा देखकर हम  चिंतित हैं कि आपको स्वर्ग में ऐसे खुश रहते हुए कभी नहीं देखे इसके पीछे आखिर राज क्या है?

आखिर कलयुग में कुछ ऐतिहासिक घटना घटित हुई है क्या? 

तब मोहनदास गांधी जी मनमोहक मुस्कान बिखेरते हुए जवाब देते हैं कि 
कि गोलमेज सम्मेलन से दलितों को मिलने वाले अधिकार के विरोध के लिए मैंने पुणे की जेल के भीतर जो आमरण अनशन किया था और उसके पश्चात जो समझौते हुए जिन्हें पूना पैक्ट 1932 के नाम से जाना जाता है। 

उस समझौते से आंबेडकर के उम्मीदों पर ऐसा पानी फेरा  है कि 92 साल बाद भी दलितों को मेरा ही राजनीतिक उत्तराधिकारी राहुल गांधी मेरे ही जैसा गुमराह करने में लगा हुआ है। 

और चालाकी देखिए वह भी आंबेडकर के नाम पर।

अगर पूना पैक्ट नहीं हुआ होता तो दलितों में ना केवल नेतृत्व पैदा हो गई होती बल्कि अपने खुद के दम पर वह लोग अब तक कलयुग में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता हासिल कर लिए होते।

आज कलयुग में जो दलितों की बदहाली और तंगहाली है। उसके लिए मैंने अपनी जान को जोखिम में डाल रखा था।

गांधी जी अपनों बातों पर सहमति के लिए सरदार पटेल को इशारा करते हैं 
क्यों पटेल हम कामयाब हुए ना।

फिर गांधी, पटेल और तिलक खिलखिला कर हंसने लगे। स्वर्ग की अप्सराएं नृत्य करते हुए उन पर फूल बरसाने लगे।

स्वर्ग में हो रहे वार्तालाप के पश्चात अप्सराओं की नृत्य से बिखरी खुशियों को नरक से देखकर मैं रोते हुए कांशीराम साहब पैदा होने की उम्मीद में नगर निगम नरक की सीमाक्षेत्र में आंबेडकर प्रतिमा स्थापना के लिए जगह कब्जा करने लग गया। 

और नरक का भूमिहीन निवासी होने के नाते नारा लगा रहा था-'जो जमीन सरकारी है, वो जमीन हमारी है'।

 


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