नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं
400 पार का आंकड़ा हैरान करने वाला
प्रेमकुमार मणिभारत की जनता के मिजाज और उस के राजनीतिक रुझान को समझना प्रायः मुश्किल रहा है. पिछले पचास साल से अधिक के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ, यहाँ की सामान्य जनता युनिवर्सिटियों के विद्वानों और अख़बारों के राजनीतिक-विश्लेषकों से कुछ मामले में अधिक होशियार है. वह चाणक्य और मेकियावेली को नहीं जानती और न ही लोकतंत्र और संविधान के पेंचो-ख़म से परिचित है. उसे तो बस वोट देना आ गया है और वह जानती है हमें किसे देना चाहिए.

यह ठीक है कि वह जाति-बिरादरी के अवलेप से भी अलग नहीं है, किन्तु वह जातिवादी है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. वह इनके फन्दों को तोडना भी जानती है. उस ने नेहरू, इंदिरा, जेपी, वीपी, अटल, सोनिया, मोदी सब को तब खड़ा किया जब वे मुश्किल दौर में थे. जब उनमें गुमान आया तब उनके कान भी उमेठे.
मैं पहली बार 1971 में मैं सीपीआई का पोलिंग एजेंट बना था. उम्र अठारह साल से कम थी. वोटर होने की उम्र तब इक्कीस साल होती थी. लेकिन पोलिंग एजेंट बन सकता था. इस तरह वोटर बनने से पहले ही मैं चुनाव प्रक्रिया से जुड़ चुका था. उस समय मेरे इलाके से कम्युनिस्ट उम्मीदवार रामावतार शास्त्री थे, जिनका मुकाबला जनसंघ के कैलाशपति मिश्रा से था.
मैं दोनों से परिचित था. इसलिए कि मेरे पिता भी कॉंग्रेस के नेता थे. वह समय कॉंग्रेस के लिए मुश्किल भरा था. दल का विभाजन हो गया था. अलग हुए कॉंग्रेस को संघटन कॉंग्रेस कहा जाता था. कॉंग्रेस का पारम्परिक चुनाव चिह्न जोड़ा बैल किसी को नहीं मिला. इंदिरा कॉंग्रेस जिस के अध्यक्ष जगजीवन राम थे, का नया चुनाव चिह्न गाय और बछड़ा था.
इंदिरा के विरुद्ध तगड़ा मोर्चा था. भारतीय क्रांति दल, जार्ज के नेतृत्व वाले सोसलिस्ट पार्टी, जनसंघ और दूसरे अनेक दलों ने एक साथ मिल कर ग्रैंड अलायंस बनाया था, जो भारी-भरकम राजनीतिक फ्रंट दीखता था. विपक्ष का जोरदार नारा था इंदिरा हटाओ. इंदिरा गांधी ने कहा था गरीबी हटाओ. ऐसा लगता था इंदिरा गांधी हार जाएगी. लेकिन जब रिजल्ट आया उन्हें दो तिहाई बहुमत मिला.
1977 में बेशक इंदिरा गाँधी के खिलाफ जबरदस्त हवा थी और पूर्व अनुमान था, वह चुनाव हार जाएँगी, लेकिन जैसी हार हुई, इसका अनुमान शायद ही किसी को था. मसलन किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि वह स्वयं राजनारायण से चुनाव हार जाएँगी.
1980 में भी मुझे हैरानी हुई थी. ठीक है जनता पार्टी में टूट हो गई थी, लेकिन टूट तो कॉंग्रेस में भी हुई थी. 1977 में दक्षिण भारत में कॉंग्रेस को नुकसान नहीं हुआ था. लेकिन अब वहां के तमाम नेता इंदिरा से अलग थे. दस साल में कॉंग्रेस का यह दूसरा बड़ा विभाजन था.
उत्तर भारतीय राजनीति में पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था बिहार और उत्तरप्रदेश में कर्पूरी ठाकुर और रामनरेश यादव की सरकारों ने किया था. इसका असर था. बिहार के उपचुनावों में मैंने देखा था की कर्पूरी ठाकुर का प्रभाव बहुत बढ़ा है. किसी को शायद ही अनुमान था कि इंदिरा इतने शानदार ढंग से आ रही हैं. लेकिन वह दो तिहाई बहुमत के साथ आईं.
1984 में कॉंग्रेस की जीत अप्रत्याशित नहीं थी, 400 पार का आंकड़ा हैरान करने वाला जरूर था. हैरान करने वाला था 2004 का चुनाव. भाजपा अत्यधिक आत्मविश्वास में थी. सब को याद होगा, तय वक़्त से छह माह पहले चुनाव कराने का निर्णय अटल बिहारी सरकार ने इसीलिए लिया था कि उसे विश्वास था देश फील गुड के मूड में है.
इंडिया शाइनिंग का शोर था और कॉंग्रेस इस बार भी टूटी-बिखरी हुई थी. सोनिया गाँधी पर विदेशी मूल के होने का जोरदार प्रचार था. इस प्रचार में केवल भाजपा नहीं, बल्कि उस से अधिक मुलायम- अमर सिंह-जार्ज-शरद जैसे समाजवादी और शरद पवार-पीए संगमा जैसे कांग्रेसी भी शामिल थे. लेकिन जब नतीजे आए तब भाजपा गठबंधन बुरी तरह हार चुका था.
इस बार, यानी 2024 के इस चुनाव में चाहे प्रधानमंत्री मोदी जितनी डींग हाँक लें, मुझे एहसास हो रहा है कि देश की जनता कुछ चौंकाने वाला परिणाम दे सकती है. इसमें कोई शक नहीं कि कॉंग्रेस और उसके नेता लगातार गलतियां कर रहे हैं और उसके दूसरे सहयोगी भी कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं हैं. वे पुराने हथियारों और रणनीति से ही चुनाव लड़ रहे हैं.
इन लोगों ने काहिल-जाहिल-नालायक उम्मीदवारों की फ़ौज उतारी हुई है. लेकिन, ऐसा लगता है जनता ने कमान अपने हाथ में ली है. वक़्त आने पर वह गोबर-गणेश पूजना भी जानती है. देश भर में तो नहीं, लेकिन बिहार की स्थितियों से थोड़ा वाकिफ जरूर हूँ. हवा का रुख बता रहा है, जनता कुछ चौंकाने वाले परिणाम दे सकती है.
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