आरएसएस को वास्तविक चुनौती कौन दे रहा है
संघ की चुनौती को सब से अधिक गहराई से समझा डॉ आंबेडकर ने
प्रेमकुमार मणिलेकिन संघ की चुनौती को सब से अधिक गहराई से समझा डॉ आंबेडकर ने. उन्होंने उसे तात्कालिक अर्थों में नहीं, दीर्घकालिक अर्थों में देखा. देखा कि किस तरह संघ कुलीन हिन्दुओं का सांस्कृतिक वर्चस्व भारतीय जनसमाज पर थोपने की कोशिश कर रहा है. उन्होंने संघ को ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के ऐसे फलसफे के रूप में देखा जो बहुजन हिन्दुओं के लिए अत्यंत ही खतरनाक होने वाला था. यह नवब्राह्म्णवाद का फलसफा था जो जोतिबा फुले के किसान शुद्रों के लिए नयी गुलामी की प्रस्तावना लिख रहा रहा था.

आरएसएस अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन 1925 के विजयादशमी के रोज हुआ. डॉ हेडगेवार (1889 - 1940 ) इसके स्वप्नद्रष्टा थे, जिन्होंने कोलकाता में पढाई के दौरान अनुशीलन समिति के अखाड़ा और दूसरे कार्यक्रमों को देखा था. अनुमान है, उस से अनुप्राणित हो कर ही उन्होंने महाराष्ट्र में अपने तरीके से एक संगठन तैयार करने का मन बनाया. महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक और सावरकर के हिन्दू राजनीति की पृष्ठभूमि थी, जिस का प्रभाव था.
तिलक की 1920 में मृत्यु हो गई थी. अब महाराष्ट्र में हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के सबसे आकर्षक केंद्र सावरकर थे, जो कुछ शर्तों पर तीन साल पूर्व ब्रिटिश जेल से रिहा हुए थे और उनकी एक किताब 'हिंदुत्व' दो साल पूर्व प्रकाशित हुई थी. स्वाभाविक था हेडगेवार इस किताब में वर्णित हिंदुत्व के फलसफे से भी प्रभावित थे. लेकिन संघ का ढांचा अनुशीलन समिति की प्रतिलिपि ही था. नि:संदेह समिति की जगह संघ और अखाड़ा की जगह शाखा था.
कुछ और लोग जो इस में भागीदार थे, उनके नाम हैं- डॉ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ परांजपे, डॉ थोलकर, और सावरकर के बड़े भाई बाबाराव सावरकर. ये सब हिंदूमहासभा में सक्रिय थे. उस समय हिन्दू महासभा और कांग्रेस में लोग प्रायः साथ-साथ सक्रिय रहते थे. स्वयं हेडगेवार भी तब कांग्रेस से न केवल जुड़े हुए थे, बल्कि उसके अधिकारी भी थे.
यही समय था जब यूरोपीय राजनीति खास कर, इटली और जर्मनी में एक जोशीले राष्ट्रवाद का विकास हो रहा था, जो बाद में फासीवाद-नाज़ीवाद में तब्दील हो गया. ऐसा नहीं है कि इन प्रवृत्तियों के पीछे कुछ कारण नहीं थे. राष्टवाद दरअसल वैश्विक स्तर पर एक नया वर्चस्ववाद था, जहाँ हर राष्ट्र अपने वर्चस्व के ख़याल में डूबा लगातार युद्धोन्मादी होता जा रहा था. राष्ट्रवाद की दुहाई देकर ही दो विश्वयुद्ध लड़े गए थे. इसकी आंधी में लोग मानवतावादी विचारों को भूल गए थे.
भारत में इस समय राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था. कुछ लोग भारतीय जनमन की आकांक्षाओं के अनुरूप एक नया राष्ट्र बनाना चाहते थे, जिस में धर्म-संप्रदाय और नस्लों के आधार की उपेक्षा का प्रावधान था. किन्तु कुछ दूसरे थे जो संप्रदाय और नस्ल के आधार पर पहचान-केंद्रित राष्ट्रीयता की वकालत कर रहे थे. मुख्य तौर पर अंग्रेजों ने इसका बीजारोपन किया था. अंग्रेजों ने मुसलमानों को समझाया कि हिन्दू उन पर हावी हो जायेंगे.
कोलकाता शहर हिन्दुओं के प्रभाव वाला शहर माना जाता था. अंग्रेजों ने बंगाल को दो भागों में बाँट दिया और पूर्वी हिस्से की राजधानी ढाका बना दी, जो मुस्लिम बहुल था. अंग्रेज, जिसे कभी हिन्दू लेखक बंकिमचंद्र ने अपने ऐतिहासिक महत्व के उपन्यास ' आनंद मठ ' में मित्र राजा कहा था, मुसलमानों को मुस्लिम बंगाल प्रदान कर रहे थे. 1757 में इन्हीं मुसलमानों को पराजित कर अंग्रेजों ने बंगाल हासिल किया था. यह सब बांटो और राज करो की पुरानी सत्ता-नीति थी.
बंगाल विभाजन के खिलाफ तीखा जनाक्रोश उभरा. यह उभार ही भारतीय राष्ट्रवाद का पहला चरण था. अंततः ब्रिटिश हुकूमत को यह विभाजन वापस लेना पड़ा. लेकिन इस बीच उसने फैसला लिया कि कोलकाता की जगह दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाएंगे. 1911 में यह भी हो गया.
लेकिन देश की राजनीति को जो सांप्रदायिक रोग लग गया था, उसका जहर फैलता गया. मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा अपने तरीकों से सक्रिय थे. इनका जोर संघर्ष पर कम, उसके नतीजों पर अधिक था. इसलिए इन दोनों संगठनों ने राष्ट्रीय आंदोलन के किसी भी चरण में उत्साह के साथ हिस्सेदारी नहीं की. दरअसल मजहबी राजनीति के आयोजक और कर्त्ता-धर्ता राजा-महाराजा और नवाब लोग होते थे. वे तो बस पावर चाहते थे. मुक्ति-भावना उनकी आकांक्षा में शामिल नहीं थी.
आरएसएस हिन्दू महासभा से कुछ अलग मिजाज का था. यह सर्वसाधारण का संगठन था. इस में राष्ट्रवाद का कुछ पुट था, लेकिन सांप्रदायिक तौर पर. बतला चुका हूँ, हेडगेवार बहुत कुछ बंगाल के राष्ट्रवादी संगठन अनुशीलन समिति से प्रभावित थे. और उन पर कांग्रेस के आदर्शों का भी कुछ प्रभाव था, क्योंकि वह उस से भी जुड़े रहे थे. लेकिन 1940 में उनकी मृत्यु के बाद आरएसएस की बागडोर गुरु सदाशिव गोलवलकर (1906 - 1973 ) ने संभाल ली. उनका मनोनयन हेडगेवार ने ही किया था. गोलवलकर की सोच हेडगेवार से भिन्न थी.
उनका कांग्रेस, अनुशीलन समिति या किसी ऐसे संगठन से कोई जुड़ाव नहीं था, जिसे राष्ट्रवादी कहा जा सकता है. हाँ, वह विश्व स्तर पर घट रही ताजा घटनाओं पर नजर रख रहे थे. उन पर सावरकर के हिंदुत्व से अधिक गोरे अमेरिकी लोगों के नस्ली संगठन कू-क्लक्स-क्लान, मुसोलिनी के फासिज़्म और हिटलर के नाज़िज्म का गहरा असर दीखता है. जहां-तहाँ अभिव्यक्त उनकी बातों के संग्रह के अंग्रेजी अनुवाद बंच ऑफ़ थॉट्स में इन तत्वों को देखा जा सकता है. यह किताब संघ की कुरआन मानी जाती है. गोलवलकर ने संघ को एक नये वैचारिक ढांचे में ला दिया था.
1940 का दशक न केवल भारतीय राजनीति में घटनापूर्ण था, आरएसएस के लिए भी महत्वपूर्ण था. इसी दशक में संघ की देखा-देखी मुस्लिम लीग ने मुस्लिम नेशनल गार्ड का गठन किया. वह सीधे-सीधे आरएसएस का नकल था. जैसे आरएसएस अनुशीलन समिति का नकल था. लेकिन आरएसएस और मुस्लिम नेशनल गार्ड वैचारिक तौर पर नाजीवादी तौर-तरीके के संगठन थे. अनुशीलन समिति ऐसा नहीं था. उसका एक हिस्सा तो मार्क्सवाद से प्रभावित था.
1947 में भारत-विभाजन के साथ मुस्लिम लीग और मुस्लिम नेशनल गॉर्ड तो पाकिस्तान के हिस्सा बन गए, भारत के हिस्से में आरएसएस रह गया. आज़ादी के छह महीने बाद ही गांधी की जब गोली मार कर हत्या कर दी गयी तब लोगों को अचानक लगा कि आरएसएस को उन्होंने समझने में भूल की. जोरदार संघर्ष के बाद भी ब्रिटिश गांधी का बाल-बांका नहीं कर सके थे. लेकिन आरएसएस ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया. कांग्रेस के भीतर संघ के शुभैषी बड़ी संख्या में थे. लेकिन वे भी संघ के इस कुकृत्य से रंज थे.
उन लोगों ने बड़ी चालाकी से इस बीच अपने को सोमनाथ प्रकरण पर शिफ्ट कर लिया. समाजवादियों ने संघ के खिलाफ मुहीम छेड़ दी. इस बीच संघ के खिलाफ देशव्यापी अभियान पर निकले समाजवादी जयप्रकाश नारायण. उनके इस बीच दिए गए भाषणों के संकलित जिल्द को पढ़ा जाना चाहिए. कम्युनिस्टों ने भी संघ के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया.
लेकिन संघ की चुनौती को सब से अधिक गहराई से समझा डॉ आंबेडकर ने. उन्होंने उसे तात्कालिक अर्थों में नहीं, दीर्घकालिक अर्थों में देखा. देखा कि किस तरह संघ कुलीन हिन्दुओं का सांस्कृतिक वर्चस्व भारतीय जनसमाज पर थोपने की कोशिश कर रहा है. उन्होंने संघ को ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के ऐसे फलसफे के रूप में देखा जो बहुजन हिन्दुओं के लिए अत्यंत ही खतरनाक होने वाला था. यह नवब्राह्म्णवाद का फलसफा था जो जोतिबा फुले के किसान शुद्रों केलिए नयी गुलामी की प्रस्तावना लिख रहा रहा था.
उन्होंने इस नवब्राह्म्णवाद के विरुद्ध नवबौद्ध आंदोलन को खड़ा किया. आरएसएस की स्थापना नागपुर में हुई थी. बाबासाहेब ने भी नागपुर को ही चुना. तारीख भी वही विजयादशमी. आरएसएस की स्थापना के ठीक इकतीसवें साल उसी ठौर और उसी तारीख को नवबौद्ध आंदोलन का उद्-घोष लाखों समर्थकों के साथ आंबेडकर ने किया. संघ के मुख्यालय से थोड़ी दूर पर ही दीक्षाभूमि है.
जहाँ आंबेडकर ने अपने सांस्कृतिक आंदोलन का सूत्रपात किया. आज भी हजारों लोग प्रतिदिन उस दीक्षाभूमि पर जाते हैं और उत्साहित हो कर लौटते हैं. संघ का पूरे देश में आज जो सार्थक जवाब दे रहे हैं वे और कोई नहीं, बाबासाहेब के ये अनुयायी हैं. लेकिन कोई बुद्धिजीवी इस तथ्य को नहीं स्वीकार करेगा. इसका कारण बताना जरूरी नहीं है.
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