डॉ आम्बेडकर और समकालीन भारतीय साहित्य
पूरब का ऑक्सफ़ोर्ड
प्रेमकुमार मणिकोई पूछ सकता है कि कानूनविद राजनेता जिन्हें मुख्यरूप से भारतीय संविधान के आर्किटेक्ट के रूप में जाना जाता है और सामाजिक-राजनीतिक तौर पर जिन्हें दलितों का उद्धारक कहा जाता है, का साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विचार करने का क्या औचित्य है?

आज यह संगोष्ठी बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर के जन्मदिवस के अवसर पर आयोजित है, जो है तो वस्तुतः अगले 14 अप्रैल को, लेकिन कुछ दिन पूर्व से कुछ दिन बाद तक ये आयोजन चलते रहते हैं. दरअसल यह उनलोगों की चेतना में आई जागृति का नतीजा है जो लम्बे समय तक हासिये पर पड़े दलित, उपेक्षित और प्रताड़ित रहे हैं. आधुनिक लोकतान्त्रिक जीवन ने उन्हें जो थोड़े अवसर दिए हैं उससे उत्साहित होकर उन्होंने अपने ऐतिह्य को देखने का साहस किया है और अब साहित्य और अन्य क्षेत्रों में भी अपनी दिलचस्पी दिखलाई है. उसी का प्रतिफलन यह संगोष्ठी है.
आज 12 अप्रैल हमारे देश के महान कवि कुमारन आशान (1873 - 1924 ) का भी जन्मदिन है. मलयालम के इस महाकवि ने अपने समय में उन सामाजिक और मानवीय मूल्यों को अपनी कविता के द्वारा स्थापित किया जिसे अपने समय में आम्बेडकर ने अपने सामाजिक-राजनीतिक आँदोलन द्वारा किया. श्रीनारायण गुरु के इस प्रख्यात अनुयायी ने दक्षिण भारत में समतावादी मानवीय मूल्यों को विषम परिस्थितियों में प्रतिपादित किया. यह एक संयोग है कि आज उनके जन्मदिन पर यह संगोष्ठी हो रही है. मैं बाबासाहेब और महाकवि कुमार आशान को एक साथ अपनी श्रद्धांजलि निवेदित कर रहा हूँ.
कोई पूछ सकता है कि कानूनविद राजनेता जिन्हें मुख्यरूप से भारतीय संविधान के आर्किटेक्ट के रूप में जाना जाता है और सामाजिक-राजनीतिक तौर पर जिन्हें दलितों का उद्धारक कहा जाता है, का साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विचार करने का क्या औचित्य है? जब यह विषय मेरे समक्ष रखा गया था तब मेरे मन में भारतीय साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य और डॉ आम्बेडकर को लेकर कई तरह के सवाल उठे. डॉ आम्बेडकर महाराष्ट्र से थे और मराठी साहित्य अपने आप में प्रगल्भ और विकसित साहित्य है.
किसी का तुलनात्मक अध्ययन तो नहीं कर सकता, किन्तु कुछ अर्थों में आधुनिक मराठी साहित्य हिंदी साहित्य की तुलना में कहीं अधिक संपन्न अनुभव होता है. लेकिन इस मराठी साहित्य में आम्बेडकर ने कोई वैसा रचनात्मक योगदान नहीं दिया,जिस तरह जोतिबा फुले ने दिया था. बावजूद इसके हम देख पाते है कि आम्बेडकर के विचारों का आधुनिक भारतीय साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है. आज हम इस पर संक्षेप में ही सही विचार करना चाहेंगे.
प्रसन्नता की बात है कि यह विमर्श उस इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आयोजित है, जिसका अपना स्वर्णिम इतिहास है. इलाहाबाद नगर, जो अब प्रयागराज है, का भी अपना इतिहास है. यह जवाहरलाल नेहरू का नगर है. राष्ट्रीय आंदोलन की धड़कनें इस शहर की धरोहर हैं. कितनी घटनाएं, कितने जलसे यहाँ आज़ादी के आंदोलन के दौरान हुए, उसका हिसाब रखना मुश्किल होगा. लेकिन पिछली सदी के इतिहास पर एक नजर डालते हैं, तब पाते हैं कि किस तरह संगम तट पर बसा ऊंघता हुआ यह धार्मिक नगर पिछले सौ सवा सौ सालों में ज्ञान और चेतना का केंद्र बन गया और जिसे लोग पूरब का ऑक्सफ़ोर्ड कहने लगे.
पिछली सदी के सामाजिक-राजनीतिक बदलावों और विकास को देखेंगे तब कई तरह के दिलचस्प ब्योरे आप को मिलेंगे. इलाहाबाद हाई कोर्ट जब 1866 में स्थापित हुआ, तब इस नगर के सामाजिक ढांचे में अंग्रेजों का प्रवेश हुआ. बॉम्बे और कलकत्ता के बाद हिंदी क्षेत्र में स्थापित यह पहला ब्रिटिश कोर्ट था,जो आगरा के पुराने कोर्ट की जगह ले रहा था. अदालती जरूरतों के कारण ही हिंदी क्षेत्र का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग यहाँ खिंचा चला आया.
मोतीलाल नेहरू और पंडित सुंदरलाल जैसे लोग इसी कोर्ट के कारण यहाँ आए. फिर 1887 में जब उस से भी महत्वपूर्ण सार्वजनिक संस्था युनिवर्सिटी स्थापित हुई तब पूरे उत्तरभारत का यह ज्ञान-केंद्र बन गया. इन सब के स्फुरण से आसपास के भारतीय समाज में भी जागृती आई. जौनपुर के काली प्रसाद कुलभास्कर ने कायस्थ पाठशाला स्थापित किया. और भी संस्थाएं बनने लगीं. नागरिक जीवन का विस्तार ऐसे ही होता है. शिक्षा के प्रसार से विमर्श केलिए स्पेस बनने लगा.
पिछली सदी के आरम्भ में कोलकाता और पुणे की तरह इलाहाबाद भी नवजागरण का केंद्र बना. दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदी नवजागरण के अध्ययनक्रम में इस नगरीय चेतना के परिष्कार और परिवर्तनीयता पर सम्यक विमर्श नहीं हुआ. कोलकाता के ब्रह्मो समाज और महाराष्ट्रीयन प्रार्थना और सत्यशोधक समाज पर बहुत विमर्श हुआ, लेकिन इलाहाबाद के बिशनसभा और सत्य सभा पर कभी कोई विमर्श नहीं हुआ.
हिंदी नवजागरण की कोई धारा यदि बन सकती है तो इन सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन से ही, न कि 1857 के उस विद्रोह से जिस के निहितार्थ सामाज को पीछे ले जाने वाले थे. वस्तुतः वह मुगलिया शाही राज और दूसरे सामंतों का आख़िरी विद्रोह था,जो अपने ही अंतार्विरोधों से जूझ रहे थे. आप देखेंगे कि प्राय: सभी समाज सुधारकों ने इस विद्रोह की आलोचना की थी.
आपको शायद महसूस हो कि इलाहाबाद के सामाजिक-राजनैतिक ऐतिह्य पर जो मैंने थोड़ी चर्चा की वह विषयांतर था. नहीं . वह हमारी पृष्ठभूमि थी, जिस पर हम आगे बात करेंगे. हिंदी का इलाका मोटे तौर पर सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर सुस्त रहा है. गाय, गीता और गंगा की त्रिवेणी में घिरे इस प्रक्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन के आँदोलन उस तरह नहीं हुए जिस तरह बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब में हुए. यही कारण रहा कि राष्ट्रवाद की धारा भी यहाँ कुछ विलम्ब से प्रस्फुटित हुई और हुई भी तो कुछ अवगुंठनों के साथ.
1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए महात्मा गांधी ने हिंदी वालों से पूछा था कि आप के यहाँ कोई रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रफुलचन्द्र राय और जगदीशचंद्र बासु क्यों नहीं हुआ ? यह बड़ा सवाल था. लेकिन हिंदी वालों को बुरा लगा. इसी सवाल पर कवि निराला गांधी जी से लखनऊ में भिड़ गए थे. इसे स्वयं उन्होंने ही एक संस्मरण लेख में लिखा है. लेकिन वह कितना गहरा सवाल था. गांधी के सवाल में एक लेखक और दो वैज्ञानिक हैं. वह पूछते हैं कि आप ने कभी इस बिंदु पर विचार किया है? आखिर क्या कारण है कि हिंदी क्षेत्र आज भी वैज्ञानिक चेतना के स्तर पर कमजोर है. जवाहरलाल नेहरू को लगातार सांइटिफिक टेम्पर की गुहार इस क्षेत्र में यूँ ही नहीं लगानी पड़ी थी.
हमारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव और विकास का जो समय है, लगभग वही समय आधुनिक भारतीय भाषाओँ के विकास का भी है. हमारी हिंदी स्वयं उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में सक्रिय हुई और बीसवीं सदी में विकसित हुई. भारतेन्दु से लेकर प्रेमचंद और महावीर प्रसाद द्विवेदी के दौर को देखेंगे, तब साहित्य के मूल्य और सामाजिक आधार क्या थे इसका पता चलता है. हिंदी क्षेत्र में सामाजिक सुधारों का कोई जानदार आंदोलन नहीं था. आर्य समाज का सुधारवादी आंदोलन भी, जैसा कि वीरभारत तलवार ने अपनी किताब रस्साकशी में लिखा है, सहारनपुर से आगे नहीं बढ़ सका.
बंगाल का नवजागरण आंदोलन भी अपने चरित्र में इतना नगरीय था कि अपने सटे बिहार और उड़ीसा तो क्या अपने ही बंगाल के देहाती इलाकों तक नहीं बढ़ सका. हिंदी क्षेत्र में कुल मिला कर मदनमोहन मालवीय के ज्ञान-केंद्रित हिंदुत्व का एक फलसफा था, जिसकी सीमा रेखा तय थी. हाँ, दक्षिण और पश्चिम दक्षिण के इलाके अपेक्षाकृत अधिक जागरूक दिख रहे थे. मराठा नवजागरण में जोतिबा फुले ने किसान शूद्रों के सांस्कृतिक विद्रोह का एक फलसफा जरूर रच दिया था, जो शिवाजी के मराठा-विद्रोह की अगली कड़ी थी.
महादेव गोविन्द रानाडे और उनके प्रिय शिष्य गोपालकृष्ण गोखले ने एक उदार लोकतान्त्रिक आवेग विकसित करने की कोशिश की थी, जिसे तिलक और उनके अनुयायी लगातार विरोध कर रहे थे. महाराष्ट्र के सामाजिक -राजनीतिक जीवन में भीमराव आम्बेडकर का प्रादुर्भाव इसी काल में होता है. 1891 उनका जन्मवर्ष है और 1956 में उनका देहावसान होता है. हमें इस दौर को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए. आम्बेडकर का समय और उनकी चुनौतियाँ क्या थीं का जवाब भी इसी अध्ययन से निकल पाएगा.
आम्बेडकर 1920 के दशक में सक्रिय होते हैं. पहला दौर 1927 में महाड चावदार तालाब जल-सत्याग्रह का है,जिस में वह सुधारवादी तरीकों का प्रयोग करते हैं. यह आंदोलन हिन्दू समाज के ही द्विज तबके का ध्यान आकर्षित करने के लिए था,जिन के अमानवीय व्यवहार से दलित क्षुब्ध थे. तालाब से जानवर पानी पी सकते थे, लेकिन दलित नहीं.
इस समस्या की ओर समाज की मुख्य धारा का ध्यान आकर्षित करने के लिए ही यह आंदोलन किया गया था. लेकिन उन्हें समाज का उल्लेखनीय समर्थन नहीं मिला. इसके बाद वह क़ानूनी प्रक्रिया पर अधिक यकीन करने लगे. इसी वर्ष हिन्दू सामाजिक दर्शन के विधान मनुस्मृति के जलाने का आयोजन भी उन्होंने किया. 1930 के बाद मुसलमानों की तरह दलित वर्गों केलिए भी धारासभाओं में सीटें आरक्षित करने हेतु राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में उन्होंने जोरदार वकालत की और ब्रिटिश सरकार ने इसे स्वीकार भी कर लिया.
इसके साथ ही वैचारिक स्तर पर जातिवाद के खिलाफ एक आंदोलन विकसित करने पर उन्होंने जोर दिया, जिसे गांधी पूरी तरह समझ नहीं पाए. सब लोग जानते हैं कि संविधान निर्माण में आम्बेडकर ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बाद में हिन्दू कोड बिल के निरूपण और उसे पास करवाने केलिए उन्होंने किस तरह मंत्री पद से इस्तीफा दिया. बाद में बुद्ध और उनका धर्म और रेवोलुशन एंड काउंटर रेवोलुशन इन अन्सिएंट इंडिया पुस्तक में उन्होंने भारतीय समाज के विकास क्रम को देखने का एक नजरिया विकसित किया.
इन सब का प्रभाव समकालीन भारतीय साहित्य पर अपने तरीके से पड़ रहा था. अपनी अधूरी किताब Revolution and Counter Revolution in Ancient India में ब्राह्मण वादी साहित्य शीर्षक लेख में उन्होने छह किताबों की समीक्षा की है. ये हैं मनुस्मृति, गीता, शंकर का वेदांत, महाभारत,रामायण और पुराण. दरअसल आम्बेडकर इस बात को रेखांकित करते हैं कि इन सब के मूल में वर्णवादी चेतना है. यह चेतना ही साहित्य को निदेशित करता है. मराठी साहित्य में आम्बेडकर के विचारों को लेकर एक जोरदार साहित्यिक आंदोलन दलित साहित्य का विकास हुआ.
इन लेखकों ने आधुनिक भारतीय साहित्य में चले आ रहे गांधीवादी-सावरकरवादी प्रवृत्तियों को खुली चुनौती दी और देश, धर्म, जाति से अलग हो कर मनुष्य को केवल मनुष्य के निकष पर देखने-परखने की कोशिश की. यह एक बड़ी बात थी. बंगला नवजागरण के दौरान बंगीय लेखकों ने बड़े लोकतान्त्रिक मूल्यों को अपने साहित्य में स्वीकार किया था. यूरोपीय रेनेसां के मूल्यों को भी उनलोगों ने आत्मसात किया था. आम्बेडकर के जीवन मूल्य उनसे मिलते-जुलते थे. अपनी पढाई के दौरान बाबासाहेब ने भी ब्रिटेन के संसदीय विकास, अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन और फ्रांसीसी क्रांति के सामाजिक मूल्यों को समझा था और उन से प्रभावित हुए थे. आम्बेडकर की वैचारिकी के आधार वे विश्व-विश्रुत मूल्य ही हैं.
समता, बंधुता और आजादी के विचार आंबेडकर के विचारों के केन्द्रीय तत्व हैं. ये मूल्य जब साहित्य के मूल्य बनते हैं तब साहित्य में एक बदलाव परिलक्षित होता है. उसे वैश्विक परिदृषष्टि मिलती है. बाबासाहेब ने रचनात्मक साहित्य भले नहीं लिखा हो, लेकिन महाकाव्यों और पौराणिक आख्यानों पर जब वह टिप्पणियां करते हैं तब उनका साहित्यिक दृषिकोण भी स्पष्ट होता है. एक लेख में वह राम के मुकाबले सीता के दर्द को समझने की कोशिश करते हैं. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने एक लेख विज़न ऑफ़ इंडिया में भारतीय साहित्य के दृष्टिकोण की मीमांसा करते हैं. रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों का भी अब तक द्विजवादी पाठ ही हमारे सामने आया है. जिस रोज आम्बेडकर की दृष्टि से आलोचक इन काव्यों की मीमांसा करेंगे, उनके नवीन अर्थ प्रस्फुटित होंगे.
जैसे-जैसे हासिये के लोग पढ़-लिख रहे हैं आम्बेडकर के नजरिये से लोग साहित्य को देखने लगे हैं. कई तरह के साहित्यिक आंदोलन और कई तरह की प्रवृत्तियां इस बीच सामने आई हैं. दलित साहित्य तो अब ढलान पर है, बहुजन साहित्य की प्रवृत्तियां मुखर हो रही हैं. मार्क्सवादियों का जन आगे बढ़ कर बुद्ध का बहुजन हो गया है और एक नवीन साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में विकसित हो रहा है. एक नई वैज्ञानिक परिदृष्टि विकसित हो रही है. इसका आधार बुद्ध, मार्क्स और फुले-आम्बेडकर की वैचारिकी होगी इसकी उम्मीद की जानी चाहिए. एक ऐसा साहित्य जो अधिक मानवीय,अधिक लौकिक और अधिक संवेदनशील हो आम्बेडकरवादी साहित्य ही हो सकता है. जो भी ऐसा साहित्य है वह प्रकट-अप्रकट रूप से आम्बेडकर की विचारधारा को आगे बढ़ाता है. इसका हम अभिनन्दन करना चाहेंगे.
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