महान लेखक-चिंतक राहुल सांकृत्यायन

उनका व्यक्तित्व इतना बहुमुखी है कि यह तय करना मुश्किल होता है कि मुख्य रूप से वह हैं क्या

प्रेमकुमार मणि

 

उनके जैसे विलक्षण जिज्ञासु विरले ही होते हैं। उनका व्यक्तित्व इतना बहुमुखी है कि यह तय करना मुश्किल होता है कि मुख्य रूप से वह हैं क्या। बहु-भाषाविद, प्राच्य विद्या के गहन अध्येता, लेखक, चिंतक, यायावर, बौद्ध विद्वान, दार्शनिक, स्वतंत्रता - सेनानी, कम्युनिस्ट-योद्धा, किसान नेता आदि उनके व्यक्तित्व के विविध आयाम हैं।

मेरे जीवन में राहुल जी का बहुत महत्त्व है। मैं कह सकता हूँ, उनके विचार -अवयवों से मेरे मानस का निर्माण हुआ है, इसलिए यह भी कह सकता हूँ वह मेरे अस्तित्व के हिस्सा हैं। बचपन में ही उन के बारे में माँ -पिता से सुना। पिताजी का उनसे मिलना हुआ था। वह उनके संस्मरण सुनाते थे। माँ को उनके उपन्यास ' सिंह सेनापति ' और ' बाईसवीं सदी ' बहुत पसंद थे। उनकी कई किताबें मेरे घर पर थीं। 'साम्यवाद ही क्यों', ' तुम्हारी क्षय' , ' मार्क्सवाद और रामराज्य ', ' वोल्गा से गंगा ' आदि पुस्तकों ने मुझे उनके प्रति आकर्षण पैदा किया। इन्हें जल्दी ही पढ़ गया था।

उनकी किताब ' बौद्ध धर्म -दर्शन ' और कार्ल मार्क्स की जीवनी भी हाई स्कूल में ही पढ़ गया। फिर जल्दी ही ' दर्शन-दिग्दर्शन ' लाइब्रेरी से उठा लाया। इसे पढ़ते ही मैंने अपने को एक पृथक मनोभूमि में पाया। यह राहुल जी का ही असर था कि उन्नीस की उम्र तक कम्युनिस्ट पार्टी और बौद्ध धर्म दोनों से जुड़ गया। आने वाले कुछ सालों में उनके लिखे का बड़ा हिस्सा पढ़ डाला। उनका सब पढ़ चुका हूँ, तो नहीं कहूंगा, लेकिन कम ही छूटा होगा, यह जरूर कह सकता हूँ।

राहुल जी से जो पहली चीज सीखी वह है, उनका विवेक। स्थितप्रज्ञता अलग चीज है, वह तो उनमें थी, लेकिन जड़ अर्थों में वह कभी स्थिर नहीं रहे। लोगों को प्रायः यह दोषपूर्ण लगता है। भारतीय हिन्दू मन जोड़-जाड कर हमें जड़ बनाता है। हमारा संस्कार बदलावों को नकारना चाहता है। नित्य-ध्रुव-शाश्वत यह चरित्र हमारा आदर्श है। जाति, ग्राम या स्थान, परिवार, पेशा और यहां तक कि पार्टी - हम कुछ भी बदलना नहीं चाहते। लेकिन राहुलजी ने बार-बार अपने को बदला। वह सनातनी पंथ के महंथ बने, फिर आर्य समाजी, फिर बौद्ध हो गए, साधारण उपासक नहीं - भिक्षु। लेकिन वहीं बंधे नहीं रहे। कम्युनिस्ट बन गए।

फिर ऐसे कम्युनिस्ट हुए कि पार्टी ने उन्हें बाहर करना जरूरी समझा। हो गए। बाद में पार्टी ने वापस लिया। आ गए। जाने कितनी भाषाएँ सीखीं। कितने स्थानों को अपना घर बनाया। कितने विचारों से जुड़े, कितने विवाह किये। वह सचमुच आज़ाद थे। किसी समाज या सरकार के नियम उन पर नहीं चलते थे। ऋषियों पर कोई नियम नहीं चलते। वह ऋषि चरित्र के थे। उनकी आत्मकथा ' मेरी जीवन यात्रा ' हर किसी को पढ़नी चाहिए। उससे जीवन का अर्थ आप तलाश सकते हैं।

राहुल जी की पत्नी कमला जी और उनके तीनों बच्चों इगोर, जया और जेता से मिलने का अवसर मुझे मिला है। वे सब पटना घूमने आये थे। खासकर उस म्यूजियम को देखने जिसमें उनके पिता की तिब्बत से लाई हुई पांडुलिपियां और अत्यंत महत्वपूर्ण पेंटिंग्स रखी हुई हैं। कुछ समय मैं उनके साथ रहा। उन सब में, मैं राहुल जी को ढूंढता रहा। इगोर रूस से हैं। वह राहुल जी जैसे ही कद और धज के हैं। उनकी माँ लोला राहुलजी के संपर्क में तब आईं जब वह रूस में अध्यापक बन कर गए थे। मेरी जानकारी के अनुसार राहुल जी को भारत में किसी विश्वविद्यालय ने प्रोफ़ेसर नहीं बनाया। यहां तो बिना डिग्री के विद्वान् माने ही नहीं जाते।

राहुल जी पर चर्चा निकली है तब इसे विराम देने का जी नहीं चाहता। हिंदी समाज ने उनसे सीखा बहुत कम, यह बात मुझे परेशान करती है। राहुल जी ने हिंदी समाज को हिंदुत्व की वर्णवादी चेतना से मुक्त करने का भरसक प्रयास किया था। वह विषम परिस्थियों में काम कर रहे थे। हिंदी क्षेत्र में जोतिबा फुले जैसी कोई पृष्ठभूमि उन्हें नहीं मिली थी। इसलिए मैं कहना चाहूंगा, उनका कार्य आंबेडकर से अधिक चुनौतीपूर्ण था। वर्णवादी-जातिवादी हिंदुत्व की जड़ें उत्तर भारत में ज्यादा गहरी थी। राहुल जी ने इसकी चूलें हिला दी।

तथाकथित हिंदी नवजागरण, जिसका मूल चरित्र वर्णवादी था, को उन्होंने बौद्ध विवेकवाद से विस्थापित करने की कोशिश की। यह महत्वपूर्ण कार्य है, लेकिन इसकी चर्चा कम ही होती है। भारतीय बौद्धिकों ने शंकराचार्य को अपनी सीमा मान ली थी। राहुलजी ने बतलाया कि 'ब्रह्मसूत्र' पर मैथिल विद्वान वाचस्पति मिश्र की टीका के पूर्व शंकर का महत्व कुछ खास नहीं था। उन्होंने वसुबन्धु, नागसेन, नागार्जुन,  दिग्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों को सामने लाकर बतलाया कि शंकर इसी परंपरा के हिस्सा हैं, कहीं अलग नहीं हैं।

राहुल जी की किताब ' दर्शन -दिग्दर्शन ' हर जिज्ञासु नौजवान को पढ़नी चाहिए। कुछ मामलों में बर्ट्रेंड रसेल की किताब ' हिस्ट्री ऑफ़ वेस्टर्न फिलोसॉफी ' से यह खास है, क्योंकि इसमें पूरब और पश्चिम दोनों की दर्शन परंपरा की मीमांसा है। यह किताब यदि अंग्रेजी में लिखी गयी होती तो दुनिया भर में उद्धृत की जाती। लेकिन राहुल जी को हिंदी में लिखना था। अनेक जुबानों के जानकार राहुल जी को अपनी जुबान पर थोड़ा गुमान था। यह गुमान अब हमारी रगों में नहीं है। हम तो अपनी भाषा पर शर्मिंदगी पालना ही अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं।

एक और खास चीज जो राहुल जी में हम देखते हैं। आज अनेक भारत-व्याकुल जीवों को हम विविध स्वरूप में देखते हैं। कुछ हिंदुत्व का नकाब डाले होते हैं, कुछ पौर्वत्य का। लेकिन वास्तविक रूप से ये द्विजवादी-वर्चस्ववादी लोग हैं, जो वेद-गीता और रामायण -  महाभारत के बहाने मनुस्मृति के समाज-दर्शन की आकाँक्षा पालते-पोसते हैं। इसके समानांतर कुछ लोग दलित-ओबीसी वर्चस्व के आकांक्षी हैं।

इन जातिवादी लोगों सेअलग राहुल जी एक ऐसे भारत का स्वप्न देखते थे, जहाँ किसी तरह की गैरबराबरी नहीं हो। उन के भारत का स्वरूप बिलकुल स्पष्ट था। मार्क्सवादी दृष्टि, बौद्ध विवेक और तक्षशिला, नालंदा व विक्रमशिला की ज्ञान-चेतना से दीप्त भारत; आधुनिक और भविष्णु भारत।

मैं, वाकई भावना के प्रवाह में हूँ। मैं अपने राहुल जी को दिल से याद कर रहा हूँ। यह भी सोच रहा हूँ कि उनकी विचार - चेतना आज भी कितनी प्रासंगिक है। वह हमारे लिए मूल्यवान हैं, और हमेशा रहेंगे।


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  • 11/04/2024 Chanchal Ramteke

    Maine Rahul jii ke bare me phli bar suna or jana ab inhe or janne ki utsukta ho rhi h kyuki ek sachhe adhyatmik insan pratit ho rhe kyuki ye samaj ki bediyo ko todkar jankalyan kiye or vicharo ki azadi se, apne Vivek se itne uchha koti ke kary kiye or vartaman me Acharya Prashant jii Mujhe inhe samkakshha pratit ho rhe h jo samaj ko ek sachhi or balwan zindagi jeena sikha rhe h, paryavaran or Pashu pakshiyon or shoshit vargon ko balpurvak, vivekpurvak jeena sikha rhe h , vedant, geeta, bodhha darshan ke madhyam se Manushya ka mukti ki disha bta rhe h ????????

    Reply on 12/04/2024
    जी, शुक्रिया