भिलाई के दक्षिण भारतीय कवि आर मुथुस्वामी की उपेक्षा
शहर के साहित्य से मैं निराश हूं
सतीश कुमार चौहानजीवन की राह में एक छोटा पड़ाव साहित्य का भी आया, टिक पाना तो मुश्किल ही था, न लिखना आता है ना शब्दों की चतुराई मालूम है, बस पढऩे सुनने का शौक है, जिससे दाल गलनी संभव ही न थी, खैर भिलाई के आर मुथुस्वामी के जीवन को साहित्य से जोड़ कर देखने पर जो संक्षिप्त साहित्यिक समझ बनी वह काफी दिलचस्प है।

उम्र के छटवे दशक में मूलत: दक्षिण भारतीय इस शख्स ने भिलाई और उसके आसपास के क्षेत्र में अपने आप को दक्षिण भारतीय हिंदी कवि आर मुथुस्वामी के रूप में बड़े सशक्त ढंग से स्थापित कर लिया था अंग्रेजी ट्यूशन की औसत आय पर आश्रित तिलक सुशोभित स्वामी का हिंदी काव्य के प्रति जुनून मेरे लिए आश्चर्य ही था।
वे कविता पढऩे के लिऐ अपनी लूना की सवारी पर समूचे जिले के छोटे बड़े आयोजन में हर हाल में पहुंच जाते थे, अगर स्वागत फूल माला स्तर का हुआ तब तो स्वामी माला पहने ही पूरा शहर घूमते हुए हर अखबार में विज्ञप्ति भी दे आते थे माला पहने ही बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा देते थे।
स्वामी काफी सरल थे अमूमन हर आयोजन में उनके ही मित्र उनका मजाक उड़ाते थे पर वे इन सब से बेपरवाह तर्रन्नुम में सरस्वती वंदना से शुरू होकर अपनी रचना सुनाने तक डटे ही रहते थे, उनके साथ हर वक्त दवाई का एक डब्बा होता था जिसमे इंसुलिन का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां होती थी जिसे वह कहीं भी इस्तमाल कर लेते थे।
साहित्य बिरादरी में उनके प्रति अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या थी दरअसल उन्हें काम करते मजदूर, सडक़ पर खड़े सिपाही दफ्तर में बैठे अफसर, कलेक्टर अधिकारी मंच पर मंत्री संतरी को ऑन स्पॉट खड़े खड़े पूरे तर्रन्नुम के साथ जांघ पर ताल ठोक ठोक कर कविता सुनाते लग जाते थे, जीवटता ऐसी की एक बार अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजकों से ये दावा कर दिया था कि अखिल भारतीय में अन्य राज्यों की तरह दक्षिण भारतीय राज्य का भी प्रतिनिधि होना चहिए और मंच पर जगह ले ली थी।
स्वामी अंत तक स्थापित कवि बनने के लिऐ जूझते रहें गिरते पड़ते चोट लगी हालत में पैसे न होने पर ड्राइवर कंडक्टर को कविता सुनाते कवि सम्मेलनों में पहुंचना आयोजकों से पहले ही कविता पाठ की विज्ञप्ति छपवा देना इनकी खासियत थी कुछ अखबारों के कर्मचारियों को तो बदस्तूर हर प्रकाशित विज्ञप्ति पर अर्थलाभ भी पूरी ईमानदारी से चुकाते थे।
तमाम अभाव के बावजूद स्थापित कवि की मान्यता के आश्वासनों पर शहर की हर संस्था की मयशुल्क सदस्य भी बनते थे, तीन चार संकलन भी छपवा लिए थे, स्वामी को पद्म पुरस्कार के दावेदार बताकर भी भ्रमित किया गया जिसके लिए भी स्वामी ने अपने सीमित संसाधनों के साथ भी समुचित मेहनत भी शुरू की येन तेन अनुशंसा पत्र, प्रमाणपत्र, विज्ञप्ति की कटिंग फोटोग्राफ के एल्बम भी बनाना शुरू कर दिया था।
जुनून के पक्के स्वामी ने कला संस्कृति साहित्य से जुड़े बुजुर्ग अभावग्रस्त साथियों के लिए भी मंत्री संतरी के दरबार में गुहार लगाई एक बार भिलाई इस्पात संयंत्र के सीईओ के घर भी संयंत्र के अस्पताल में इलाज की गुहार लगाने पहुंच गए साहेब जा चुके थे तो मैडम को ही दरखास्त करते हुऐ कविताएं सुना डाली।
मुझे भी रात को उड़ती खबर मिली की आईसीयू में भर्ती एक गंभीर मरीज चिकित्सा कर्मियों का कविताएं सुना कर काफ़ी मनोरंजन कर रहा है, जबकि उसकी हालत बेहद खराब हैं, मैं समझ गया कौन और किस हाल में है मैं सुबह ही अस्पताल की आईसीयू में पहुंच गया, हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी बेड नंबर दो पर बेसुध लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर था डॉक्टरों के अनुसार रिवर्स आना मुश्किल था।
Procalcitonine और प्रो बीएनपी टेस्ट की जरूरत थी जो शहर की किसी लैब में मुमकिन नहीं थी मैंने ब्लड सैंपल मुंबई की एसआरएल लैब में भेजने की व्यवस्था की पर जल्द ही कविता थम कर स्मरण में तब्दील हो गई, अंतिम यात्रा भी परिवार पड़ोस के अलावा कुछेक साहित्यिक किस्म के मित्र ही नजर आए, अफसोस यह कि गोष्ठियों की सुर्खियों में बुद्धिजीवी, साहित्यकार,समाज का दर्पण बनने वाली मीडियापरस्त बिरादरी ऐसे जुनून को एक कतरन का भी साथ ना दे सकी!
कई बार शब्द चयन और विषयवस्तु की गंभीरता को समझने के लिऐ मेरे पास आते थे व्यस्तता देख बड़ी शालीनता से इंतजार करते थे इस दौरान कई बार उन्होंने अपने ही साहित्यिक बिरादरी के उपेक्षित रवैए, छिटाकशी पर दुख व्यक्त किया पर अगले ही पल वह स्वयं उसे चुनौती समझ स्वीकार कर सुधार के प्रयास में लग जाते थे।
मैंने साहित्य में अपना अधिकार के भ्रम में एक बार हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी को उनके हिंदी के प्रयास और जुनून का सम्मान करते हुए एक स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र देने का निर्णय लिया तो शहर के कुछ पटिया छाप तथा कथित रचनाकर, साहित्यकर, कवि बने आत्ममुग्ध लोगों द्वारा मेरा ही विरोध कर दिया था। जबकि मैं आज भी समाज के किसी वर्ग से स्वामी को किसी योग्यता का सर्टिफिकेट देने की अनुशंसा या अपेक्षा नहीं करता ना ही उनके लिए किसी तरह की गुहार लगा रहा हूं पर बुद्धिजीवी वर्ग से किसी मनोविज्ञान जुनून को नकारने की इस प्रवृत्ति को कतई सही नहीं मानता, शहर के साहित्य से मैं निराश हूं।
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