60 करोड़ की हिंदी भाषी आबादी में पढ़ने वाले ज़्यादा से ज़्यादा तीन हज़ार लोग
विषय का चुनाव रूचि आधारित ना होकर रोजगार आधारित होता है
किशोर कुमार उपाध्यायइस बात से भी इंकार किसी को नहीं होगा कि डिग्री के लिए की गई पढ़ाई और रुचि से की गई पढ़ाई में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है। पढ़ना कोई ऐसा काम नहीं जिसे एक निश्चित उम्र तक किया जाना चाहिए, ये जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया होनी चाहिए बिलकुल उसी तरह जैसे हम खाते-पीते हैं।

60 करोड़ की हिंदी भाषी आबादी में एक अच्छी किताब को पढ़ने वाले ज़्यादा से ज़्यादा तीन हज़ार लोग हैं। प्रतिशत निकाले तो 0.000005%
दस हजार बिकने पर तो कोई हिंदी किताब बेस्ट सेलर हो जाती है। दुनिया में अंग्रेजी और चाईनीज़ के बाद हिंदी भाषियों की संख्या तीसरे नंबर है। लेकिन पढने के मामले में हम दुनिया के पेंदे में पड़े हैं।
हैरानी कि बात ये है कि यही वो आबादी है जो अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर पहले बीस-पच्चीस साल में अपना सर्वस्व झोंक देती है कि किसी तरह वो अपना पेट पालने लायक बन जाए।
अभी बोर्ड के इम्तिहान शुरू हुए हैं। जो बच्चे दसवीं का इम्तिहान दे रहे हैं उनकी और उनके माँ-बाप की बातें इस बात पर केन्द्रित हैं कि बच्चा आगे क्या विषय लेगा? विषय का चुनाव रूचि आधारित ना होकर रोजगार आधारित होता है।
माहौल का दबाव बच्चे पर इतना है कि वो चाहकर भी साहित्य, इतिहास, कला की तरफ़ कदम नहीं बढ़ा पाता क्यूंकि एक पंद्रह-सोलह साल के बच्चे के मन में उसके परिवार, समाज और माहौल ने इतना डर बिठा दिया है कि अगर तू तकनीक आधारित विषय नहीं पढ़ेगा तो खाने को रोटी नहीं मिलेगी। क्यूंकि माँ-बाप एक डरा हुआ जीवन बिता रहे हैं तो वो डरी हुई औलादें बड़ी भी कर रहे हैं। ये डरी हुई औलादें एक डरा हुआ समाज बना रही है जो बस दो जून की रोटी कमाने की आस लेकर जीता है।
तुलसीदास ने कलयुग का वर्णन करते हुए मानस में यही लिखा है कि माता-पिता अपने बच्चों को बुलाकर यही कहेंगे कि कुछ ऐसा ज्ञान अर्जित कर लो कि तुम्हारी उदर पूर्ति हो जाए।
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥
सनद रहे ये बात तुलसीदास आज से पांच सौ बरस पहले नोटिस करके लिख रहे हैं और इस बात के मायने ये हुए कि कम से कम पांच सौ बरस से तो हमारा समाज ऐसा ही है कि वो शिक्षा को केवल पेट भरने का साधन मात्र समझता है।
इस बात से भी इंकार किसी को नहीं होगा कि डिग्री के लिए की गई पढ़ाई और रुचि से की गई पढ़ाई में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है। पढ़ना कोई ऐसा काम नहीं जिसे एक निश्चित उम्र तक किया जाना चाहिए, ये जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया होनी चाहिए बिलकुल उसी तरह जैसे हम खाते-पीते हैं।
मैंने पहले भी ये तर्क किया था कि अगर आप बीस साल बाद गाडी चलाएंगे तो एक बार आपके हाथ कांपेंगे। दस साल बाद क्रिकेट का बैट पकड़ेंगे तो टाइमिंग पर काबू पाने में वक़्त लगेगा। दस दिन बाद भी चाय बनायेंगे तो शक्कर-चाय पत्ती का अनुपात गड़बड़ा जाएगा। कहने का मतलब ये है कि अगर किसी काम को छोड़े एक अरसा हो जाए तो उस स्किल पर हमारा अधिकार उतना नहीं रह जाता। फिर से उसका अभ्यास करना पड़ता है।
तो फिर क्यूँ है कि बीस-बाईस साल की उम्र में ग्रेजुएट हो गया व्यक्ति बीस-बीस साल तक किताबों को हाथ नहीं लगाता, सतत अध्ययन नहीं करता, कोई नए विचार नहीं अपनाता, नयी किताबें नहीं पढता तब भी अपने आपको ग्रेजुएट कहता है।
बीस साल बीत चुके हैं अब आप पांचवी पास से तेज़ नहीं रहे।
शाहरुख़ खान ने एक क्विज शो किया भी था “क्या आप पांचवी पास से तेज़ हैं?”। उस शो में पांचवी तक की ही किताबों से सवाल किया जाता था और लोगों को वो सवाल भी बहुत मुश्किल लगते थे।
पढना ज़रूरी है, लगातार सीखते रहना ज़रूरी है, लगातार नए विचार अपनाते रहना ज़रूरी है वरना लोग आगे निकल जाते हैं और हम वही पिछली सदी की लकीर पीटते रह जाते हैं।
परिवारों में बुज़ुर्ग अपने शरीर से ही नहीं, विचारों से भी लाचार हो जाते हैं। कोई उनकी इसलिए भी नहीं सुनता कि अब उनके पास नया कहने को कुछ नहीं है। बच्चे आने वाले की ज़माने की बात कर रहे हैं और बुज़ुर्ग किसी गुज़रे ज़माने की।
अब ऐसा हाल जिस भाषा का हो, जहां कोई अध्ययन ना होता हो, किताबें पढना लोग बोरिंग मानते हों, लेख़क और कवि सिर्फ़ लिख कर अपनी जीविका ना चला सकते हों उस समाज और उस देश का बंटाधार तो होना ही है।
इन दिनों पांच सौ साल की दुहाई बार-बार दी जा रही है, कि पांच सौ साल के इंतज़ार के बाद राम को उसका घर मिला है। ठीक है भैया, दे दिया घर अब ज़रा लाइब्रेरीज के बारे में बात कर लें।
इस देश में जितने धार्मिक स्थल हैं बस उतनी ही लाइब्रेरीज भी खोल दो। जिनको मुफ्त राशन दे रहे हो, उन्ही लोगों को पढने लिखने के लिए मुफ्त में किताबें भी उपलब्ध करवा दो। अनुवाद के विभाग खोलो कि दुनिया की सब बेहतरीन किताबों का अनुवाद भारतीय भाषाओँ में किया जा सके।
ये काम तो तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन अकबर ने भी कर लिया था। उसने भी अपनी सल्तनत में अनुवाद विभाग खोला था और रामायण, महाभारत के भी अनुवाद करवाए थे। कम से कम उसकी ही बराबरी कर लो।
लेकिन मैं जानता हूँ ऐसा नहीं होगा। लोगों को कोई नहीं जगायेगा। लोग जाग गए तो सत्ताधारियों की ज़मीन हिल जायेगी।
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