मंगल पांडे नहीं, तिलका मांझी थे स्वतंत्रता संग्राम के पहले शहीद

जन्मदिन 11 फरवरी पर विशेष

सिद्धार्थ रामू

 

मंगल पांडेय का जन्म 19 जुलाई, 1827 को हुआ था और 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फांसी दी गई थी। वैसे भी अगर चर्बी वाले कारतूस न लाए गए होते तो बंगाल नेटिव इनफैंट्री में सिपाही की नौकरी कर रहे मंगल पांडे की बंदूक किसके खिलाफ चलती, इसकी कल्पना की जा सकती है।

तिलका मांझी के बाद अनेक आदिवासी नायकों ने अंग्रेज़ों और ज़मींदारों (दिकुओं) के खिलाफ संघर्ष किया और मौत की सज़ा पाई। उनमें बिरसा मुंडा भी शामिल हैं, जिनको केवल 25 वर्ष की उम्र में ज़हर देकर अंग्रेज़ों ने मार डाला था। बिरसा का जन्म 15 नवम्बर, 1875 को हुआ और जिन्हें 9 जून, 1900 को अंग्रेज़ों ने मार डाला। ये महान कुर्बानियां हैं, पर उच्च जातीय और अभिजात्य वर्गीय इतिहास दृष्टि ने भारत के बहिष्कृत नायकों को इतिहास से भी बहिष्कृत कर दिया।

लेकिन तिलका मांझी आदिवासियों की स्मृतियों और उनके गीतों में ज़िंदा रहे। अनेक आदिवासी लड़ाके तिलका के गीत गाते हुए फांसी के फंदे पर चढ़े। अनके गीतों-कविताओं में तिलका मांझी को विभिन्न रूपों में याद किया जाता है–

तुम पर कोडों की बरसात हुई

तुम घोड़ों में बांधकर घसीटे गए

फिर भी तुम्हें मारा नहीं जा सका

तुम भागलपुर में सरेआम

फांसी पर लटका दिए गए

फिर भी डरते रहे ज़मींदार और अंग्रेज़

तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से

मर कर भी तुम मारे नहीं जा सके

तिलका मांझी

मंगल पांडेय नहीं, तुम

आधुनिक भारत के पहले विद्रोही थे

अमेरिकी उपन्यासकार हावर्ड फास्ट ने आदिविद्रोही उपन्यास लिखकर रोम के दासों के नायक स्पार्टकस को दुनिया का नायक बना दिया। दुनिया में कहीं भी आदिविद्रोही की चर्चा आते ही, सबसे पहला नाम स्पार्टकस का आता है। आधुनिक भारत के पहले आदिविद्रोही तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया को आज भी हावर्ड फास्ट जैसे किसी लेखक की तलाश है, जो उनके विद्रोह को इतिहास में वाजिब जगह दिला सके।

वैसे यह काम एक हद तक महाश्वेता देवी ने किया। उन्होंने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की। हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है और उनके जीवन और संघर्षों को जीवन्त और अमर बनाने की कोशिश की।

फिर भी आज देश का बच्चा-बच्चा मंगल पांडेय से परिचित है, इसमें टेक्स्ट बुक और फिल्मों का योगदान है, लेकिन वे तिलका मांझी से अनजान हैं। प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में मंगल पांडेय के बारे में तो पढ़ाया जाता है, लेकिन तिलका मांझी की चर्चा भी नहीं होती। जैसे वे इस देश के वासी न रहे हों। सच भी है, भारत के अधिकांश लोगों के लिए आदिवासी कोई पराए देश के वासी ही हैं।

तिलका जैसे शहीदों की उपेक्षा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि उनका विद्रोह अंग्रेज़ों के साथ देसी दिकुओं (शोषकों) के खिलाफ भी था। आदिवासियों को जंगल और ज़मीन पर कब्ज़ा करने के लिए अंग्रेज़ों और दिकुओं ने आपस में गठजोड़ कर लिया था। आदिवासी एक साथ दोनों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे।

पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। चूंकि वह ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। इसलिए हिल रेंजर्स का सरदार जौराह उर्फ जबरा मांझी तिलका मांझी के नाम से विख्यात हो गए। ब्रिटिशकालीन दस्तावेज में भी जबरा पहाड़िया मौजूद हैं पर तिलका का कहीं नामोल्लेख नहीं है। उनका मूल नाम जबरा पहाड़िया ही था। तिलका नाम उन्हें अंग्रेज़ों ने दिया। अंग्रेज़ों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा।

1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया। उन्होंने कभी भी समर्पण नहीं किया, न कभी झुके, न डरे। उन्होंने स्थानीय सूदखोरों-ज़मींदारों (दिकुओं) एवं अंग्रेज़ी शासकों को जीते जी कभी चैन की नींद सोने नहीं दिया।

पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं। ब्रिटिश शासकों के खिलाफ युद्धों के इतिहास में पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदि विद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं।

जबरा पहाड़िया ने भागलपुर के अत्याचारी कलेक्टर अंग्रेज़ क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर ज़बरदस्त हमला हुआ जिसमें कई आदिवासी लड़ाके मारे गए और जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। मीलों घसीटे जाने के बावजूद तिलका मांझी जीवित थे। खून में डूबी उनकी देह तब भी गुस्से से भरी हुई थी और उनकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज और दिकुओं को डरा रही थीं।

आदिवासियों में दहशत पैदा करने के लिए अंग्रेज़ों ने उन्हें सबके सामने खुलेआम फांसी दी। अंग्रेज़ों ने भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हज़ारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी, संभवतः 13 जनवरी, 1785

पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज़ सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इनकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उनके आदि विद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं।

तिलका मांझी के नाम पर भागलपुर में तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय नाम से उच्च शिक्षा का केंद्र स्थापित है। झारखंड के दुमका में तिलका मांझी की विशाल प्रतिमा लगी हुई है। इतिहास के वास्तविक नायक अब अपनी जगह क्लेम कर रहे हैं।


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