अंध विश्वासों की पड़ताल करता ‘मन मशीन’
विज्ञान आधारित पुस्तक की समीक्षा
देवेंद्र आर्यअगर कोई आपसे कहे कि हम नाक से नहीं बल्कि मस्तिष्क से सूंघते हैं अथवा स्वाद हमें जीभ नहीं मस्तिष्क से मिलता है तो आप उसकी बात को कपोल कल्पना मान लेंगे। मगर यह बात कपोल कल्पना नहीं, वैज्ञानिक रूप से सही है। कवि शरद कोकास इसे साबित करते हैं।

शरद कोकास के पास ऐसी तमाम उलटबासियों को सच बताने वाली एक मशीन है जिसका नाम है ‘मन मशीन’। शरद निर्मित इस ‘मन मशीन’ का उत्पादन दिल्ली स्थित जिस फ़र्म ने किया है उसका नाम है ‘न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन’।
आप स्वयं ऐसी तमाम बातों का निपटारा इस ‘मन मशीन’ नामक उपकरण से कर सकते हैं जिसका मुद्रित मूल्य केवल 300 रुपए हैं। आप यह मशीन घर बैठे आन लाइन भी मंगा सकते हैं।
बानगी के तौर पर इस मशीन के एक साफ्टवेयर के बारे में पढ़ते हैं-
‘हमारी समस्त भावनाओं का सम्बन्ध हमारे दिल से न होकर हमारे मस्तिष्क से है... मस्तिष्क का यह केन्द्र जो गंध को महसूस करवाता है वही स्वाद को भी महसूस करने में सहायता करता है।
बिना गंध के सहयोग के ठीक तरह से स्वाद का अनुभव नहीं किया जा सकता। कभी नाक बंद करके स्वाद ले कर देखिये, आपको खाद्य पदार्थ का मूल स्वाद महसूस ही नहीं होगा...
(इसीलिए बचपन में हमारी माँ हमारी नाक बंद करके हमें कड़वी दवा पिलाती थी)
जब भी हम प्रेम के बारे में विचार करते हैं, या किसी को देखकर प्रेम करने की इच्छा होती है तो हमारे मस्तिष्क में टेस्टोस्टरोन और आस्ट्रोजन नामक हार्मोन सक्रिय हो जाता है...
मन से किए जाने वाले सभी कार्य मस्तिष्क के क्रियाकलाप ही हैं... यहां तक कि हम प्रेम भी मस्तिष्क से ही करते हैं न कि हृदय से’।
इस पुस्तक को पढऩे के बाद आप इस इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, साहित्य, चेतन अवचेतन और दैनिक जीवन के क्रिया कलाप भी सामूहिक रूप से ‘मन मशीन’ द्वारा संचालित होते हैं।
एक दूसरी बाहरी मन मशीन है जो सार्वजनिक है और जिसके द्वारा किसी के भी आंगिक व्यवहारों, सोचने समझने की प्रक्रिया का थ्री - डी एक्सरे लिया जा सकता है।
दूसरी एक मन मशीन होती है जो प्रत्येक जीवित मनुष्य के भीतर पाई जाती है। यूं समझिये कि एक स्टेबलाइजऱ अलग से दिखाई देता है और एक दूसरा इन बिल्ट होता है।
‘हमारे मन से यह बात हमेशा - हमेशा के लिए समाप्त हो जानी चाहिए कि मरने के बाद आदमी के भीतर या बाहर कुछ शेष रह जाता है। मृत्यु के साथ ही हमारी यह ‘मन मशीन’ हमेशा के लिए बंद हो जाती है।’ (पृष्ठ 119)
सियासत करने वाले लोग अक्सर कहते हैं कि सिर्फ़ दो प्रतिशत लोगों ने अन्ठानबे प्रतिशत की सुविधाएं हड़प रखी हैं। क्या आपको पता है कि -
‘मस्तिष्क का भार शरीर के कुल भार का मात्र दो प्रतिशत होता है लेकिन यह शरीर को प्राप्त होने वाली कुल आक्सीजन का बीस प्रतिशत इस्तेमाल करता है।’ (पृष्ठ 56)
है न! यह दूरगामी परिणाम देने वाली रोचक जानकारी जिसके आधार पर मनुष्य और मनुष्य के विभेद को समझा जा सकता है। ऐसी तमाम रोचक जानकारियों से यह पुस्तक भरी पड़ी है।
शायद ही जीवन जगत का कोई पहलू ऐसा हो जिसकी वैज्ञानिक मीमांसा इस पुस्तक में न हुई हो। यह पुस्तक आपकी जानकारी में शामिल तमाम अंध विश्वासों की पड़ताल करके आपको अपडेट करती है।
अब शायद अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि आपको शरद कोकास के श्रमसाध्य, लम्बे और विविध विषयक अध्ययनों का तार्किक वैज्ञानिक निचोड़ सरल और पठनीय भाषा में प्राप्त करने के लिए यह पुस्तक न केवल स्वयं पढऩी चाहिए बल्कि बच्चों को भी मुहैया करानी चाहिए ताकि वे आडम्बरों, कुंठाओं और ग़लत फ़हमियों का शिकार होने से बचे रहें।
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