हसदेव अरण्य में आदिवासियों के साथ जंगल की बर्बादी और कोयला का उत्खनन

परसा ईस्ट केते बासेन (पीईकेबी) - दूसरा किस्त 

सुशान्त कुमार

 

यहां पांचवी अनुसूची और पेसा कानून की बाते भी हैं और आदिवासी बहुल इलाकों में ग्राम पंचायतों में गैर आदिवासी मुखिया भी है। यहां सत्तासीन भाजपा और कांग्रेस को सौंपे गए राजपाठ की बातों की चर्चा भी है और उन रिपोर्ट की बातें भी हैं जो इस अरण्य को बचाने के लिए उछाल दिए जाते हैं। 

किसान नेता राकेश टिकैत ने हसदेव अरण्य में हुए गिरफ्तारियों का विरोध करते हुए एक वीडियो पोस्ट की है। उन्होंने कहा है कि हसदेव अरण्य के आदिवासी अपना जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। इनको उठा कर जेल में बंद किया जा रहा है। क्या सरकार बनते ही आदिवासी मुख्यमंत्री का सबसे पहला काम यही था? किसान, मज़दूरों को तीन-चार जगह से उठाया गया है। हम सबको हसदेव चलना पड़ेगा!

वनाधिकार मान्यता कानून 2006 की धारा 4 उपधारा (5) में स्पष्ट प्रावधान है कि व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वनाधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया की समाप्त होने से पहले कोई भी परियोजना शुरू नहीं की जा सकती और किसी भी व्यक्ति को मान्यता प्रक्रिया समाप्ति से पहले वनाधिकारों से बेदखल नहीं किया जा सकता परन्तु छत्तीसगढ़ सरकार की इस कानून के अनुपालन में कोई रूचि ही नहीं है और इस कानून के 12 वर्षों के बाद भी यहां वनाधिकारों की मान्यता की स्थिति बहुत खराब है।

पूरे प्रदेश में ही इसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हुआ और कई लोग तो अभी तक दावा फॉर्म जमा भी नहीं कर पाए हैं। साथ ही आधे से ज्यादा दावे बिना सूचना और कारण बताए निरस्त कर दिए गए हैं। सामुदायिक दावों की तो स्थिति यह है कि सरकार कानून की धारा 3 (2) के तहत वनभूमि डायवर्सन के प्रस्तावों को ही धारा 3(1) के सामुदायिक वनाधिकारों से जोड़ कर देखती है। इसमें धारा 3 (1) (i) के तहत वन संसाधनों के अधिकारों के लिए तो आवेदन भी नहीं लिए जाते।

वनाधिकारों की मान्यता प्रक्रिया पूरे राज्य में कहीं भी समाप्त नहीं हुई है। परन्तु खनिज क्षेत्रों में राज्य सरकार की यही कोशिश रहती है कि कम से कम वनाधिकार दिए जाएं। रायगढ़, सरगुजा, कोरबा सभी क्षेत्रों में प्रदेश की औसत से अधिक दावे अवैध रूप से निरस्त कर दिए गए हैं। साथ ही सामुदायिक दावों पर तो बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता और कोशिश रहती है कि इनमें कम से कम वन क्षेत्र पर अधिकार पत्रक दिए जाएं। खनन परियोजनाओं से पहले वनाधिकार मान्यता प्रक्रिया पर ध्यान ही नहीं दिया जाता और केवल खानापूर्ति के लिए कुछ व्यक्तिगत अधिकार पत्रक बांट कर समुदायों का बंटवारा करने की कोशिश की जाती है।

धन-बल के प्रयोग से फर्जी जनसुनवाइयां

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन अधिसूचना, 2006 में निष्पक्ष, भय-मुक्त और पारदर्शी जनसुनवाइयों का प्रावधान है जिससे खनन परियोजनाओं से होने वाले सभी प्रभावों का ठीक से आंकलन कर उनके निराकरण के प्रयास किये जा सकें। छत्तीसगढ़ में तो राज्य सरकार इन तीनों ही मूल सिद्धांतों को दरकिनार कर किसी भी तरह जनसुनवाई को संपन्न कर लोगों से सहमती लेने की कोशिश करती है। अकसर जनसुनवाई प्रभावित गांवों से बहुत दूर आयोजित की जाती है जिससे स्थानीय लोग इसमें हिस्सा ही ना ले पाएं जैसा हमने 2017 में आयोजित परसा जनसुनवाई में देखा है।

 

 

अवैध रूप से भू-अधिग्रहण तथा मुआवजा पूनर्वास में कटौती

भू-अर्जन, पुनर्वास और पुनर्स्थापना में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम 2013 कानून में स्पष्ट 4 गुणा मुआवजा और पूनर्वास संबंधी रोजगार, घर, फसल-भूमि इत्यादि के प्रावधान हैं। साथ ही सामाजिक प्रभाव आंकलन और ग्रामसभा से पूर्वानुमति की भी विस्तृत प्रक्रियाएं निर्धारित हैं। परन्तु छत्तीसगढ़ में तो इस कानून का प्रयोग ही नहीं होता और खनन परियोजनाओं के लिए पुराने नियमों का अवैध रूप से इस्तेमाल कर जबरन भू-अधिग्रहण किया जाता है, जैसा की कोरबा में एसईसीएल खदानों के विस्थापित लोगों के अनुभव से साफ है। 

विरोध को कुचलने के लिए दबाव और फर्जी मुकदमें

लोगों की आवाज और उनके विरोध को कुचलने के लिए लोगों पर विशेषकर स्थानीय नेताओं को भयभीत करने के कई प्रयास किये जाते हैं। इसमें पुलिस बल का प्रयोग, जिला प्रशासन का दबाव, फर्जी मुकदमे, इत्यादि शामिल हैं। 

एक वैकल्पिक कोयला नीति 

सरकार को कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा जारी कोल विजन 2030 रिपोर्ट पर विचार कर उसके महत्वपूर्ण नतीजों को अपनी आबंटन नीति में सम्मिलित करना चाहिए। उत्खनन में गंभीर पर्यावरणीय और सामाजिक दुष्प्रभाव होते हैं, सरकार को अपनी ऊर्जा नीतियों से कोयला मांग को कम करने या सीमित रखने के भरपूर प्रयास करने चाहिए। भारत द्वारा जलवायु परिवर्तन संबंधित अंतरराष्ट्रीय समझौतों जैसा कि क्योटो प्रोटोकॉल पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कोयला खनन व्यावसायिक लाभ या निजी मुनाफे के लिए नहीं किया जाना चाहिए। घने जंगल, संवेदनशील पर्यावरण तथा जैव विविधता से परिपूर्ण क्षेत्रों में, जो कि देश के कोयला क्षेत्रों के 10 प्रतिशत से भी कम हैं, में कोई भी खनन कार्य नहीं होना चाहिए।

किसी भी कोयला खदान को ग्रामसभा की स्वीकृति, पर्यावरणीय क्लीयरेंस, वन परिवर्तन संबंधित क्लीयरेंस मिलने के पूर्व नीलामी या आवंटित नहीं किया जाना चाहिए। विकेंद्रीकृत निर्णय प्रणाली जिसमें किसी भी कोयला ब्लाक की नीलामी से पूर्व स्थानीय समुदाय से व्यापक विचार विमर्श किया जाना चाहिए। 5वीं अनुसूची व पेसा कानून का पूर्णतया पालन किया जाना चाहिए। खनन के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनाव्र्यस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम 2013 के प्रावधानों का पूर्णतया पालन किया जाना चाहिए जिनमें जमीन के बाजार मूल्य के 4 गुणा मुआवजा देने का स्पष्ट प्रावधान है।

किसी भी पुरानी खदान के किसी नयी कंपनी द्वारा अधिग्रहण से पूर्व वर्तमान में परिचालित खदान में हुई सभी अनियमितताओं को सुधारा जाना चाहिए खनन कार्य के लिए किसी भी प्रकार की ज्वाइंट वेंचर चाहे  एमडीओ या किसी अन्य ठेके के जरिये ही क्यों ना हो, वर्जित होना चाहिए। सभी कोयला खदानों के आबंटन में कोल इंडिया लिमिटेड को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। अधिनियम के तह आवंटित सभी खदानों के एमडीओ अनुबंधों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और इनमें हुए घोटाले के दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। 

हसदेव जंगल  में सियासत और आदिवासी

मनीष भट्ट मनु के अनुसार हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति 24 ग्रामसभाओं का देश में एक ऐसा बिरला उदाहरण है, जो अपनी संवैधानिक शक्तियों का उपयोग करते हुए अपने नैसर्गिक संसाधन बचाने के लिए गुजारिश करता चला आ रहा है।

यह समिति वर्ष 2015 से ही जब सर्वोच्च न्यायालय ने कोयला खदानों के आवंटन में हुए कथित घोटाले के मद्देनजर देश के 214 कोयला खदानों के आवंटन को रद्द कर नए आवंटन करने के निर्देश दिये थे। केंद्र सरकार को यह लिखित में देती रही हैं कि हसदेव अरण्य के दायरे में आने वाली कोयला खदानों को नीलामी प्रक्रिया से बाहर रखा जाए। इसके पीछे समिति का आधार यह रहा है कि खनन शुरू करने से पहले ग्रामसभाओं की सहमति जरूरी है।

और हसदेव की इन ग्रामसभाओं ने यह तय कर लिया है कि वे कोयला खदानों के लिए अपने इस विरासती जंगल को नष्ट करने की सहमति नहीं देंगीं। इस लिहाज से यह एक संवैधानिक टकराव की स्थिति ही है। इसके अतिरिक्त 2006 में लागू हुए वनाधिकार (मान्यता) कानून में भी गैर-वानिकी उपयोग के लिए वनों के इस्तेमाल के लिए ग्रामसभा से इस आशय का प्रस्ताव लेना अनिवार्य हो गया है कि ‘उसके दायरे में आने वाले वन क्षेत्र में वनाधिकार मान्यता कानून के तहत दिये गए सभी 13 प्रकार के अधिकार प्रदान किए जा चुके हैं’।

इन अधिकारों में व्यक्तिगत वन अधिकार (जिस वन भूमि पर लोग 13 दिसंबर, 2005) से पहले खेती करते रहे हैं या निवास बनाया है, सामुदायिक निस्तार अधिकार, सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार, लघु वनोपाज संग्रहण के अधिकार, अगर उस ग्रामसभा में आदिम जनजाति समुदाय का निवास है, तो उनके पर्यावास के अधिकार आदि शामिल हैं।

लोगों ने हमारा फायदा उठाया, ऐसा दोबारा नहीं होगा

हसदेव अरण्य में कोयला खदानें और दफन वादे, सैंक्चुअरी एशिया, वॉल्यूम में प्रकाशित। 42 नंबर 2, फरवरी 2022 के अनुसार रामलाल करियाम कहते हैं कि ‘मेरे लिए इसे देखना भी मुश्किल है। एक समय था जब हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं थे। लोगों ने हमारा फायदा उठाया। ऐसा दोबारा नहीं होगा।’

रामलाल करियाम, साल्ही गांव के एक पंच, परसा ईस्ट और केंटे बसन (पीईकेबी) के बगल में स्थित हैं, जो एक खुली कोयला खदान है, जो राज्य के स्वामित्व वाली राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित की गई है और खदान के डेवलपर और ऑपरेटर अदानी एंटरप्राइजेज द्वारा संचालित है। यह खदान उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य जंगल में स्थित है।

 

 

ढका हुआ सच

डब्ल्यूआईआई जैव विविधता मूल्यांकन ने स्पष्ट रूप से एचएसीएफ क्षेत्र के ‘महत्वपूर्ण संरक्षण मूल्य’ को स्थापित किया। इसने अध्ययन क्षेत्र में स्तनधारियों की 25 से अधिक प्रजातियों (नौ अनुसूची I  प्रजातियां), हर्पेटोफ़ुना की कई ‘लुप्तप्राय’ प्रजातियां, पक्षियों की कम से कम 82 प्रजातियां (छह अनुसूची I प्रजातियां), और 167 से अधिक पौधों की प्रजातियां (18%) की उपस्थिति दर्ज की)। इसमें पाया गया कि बाघ आसपास के संरक्षित क्षेत्रों से अध्ययन क्षेत्र में फैलते हुए पाए गए हैं और ‘बाघ संरक्षण निवास स्थान कनेक्टिविटी बनाए रखने [और] वन कवर को बनाए रखने पर सशर्त होगा’ - जिससे यह क्षेत्र भारत के सबसे महत्वपूर्ण में से एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में पुष्टि करता है। 

रिपोर्ट और अध्ययन दरकिनार

डाउन टू अर्थ में सत्यम श्रीवास्तव ने रिपोर्ट किया है कि 13 दिसंबर 2021 को ही देश के 25 से ज्यादा प्रतिष्ठित वन्य जीव संरक्षणवादियों ने भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) और भारतीय वन अनुसंधान परिषद (आईसीएफआरई) की हाल ही में सार्वजनिक हुई रिपोर्ट्स में दर्ज गंभीर दुष्परिणामों और स्थानीय आदिवासी समुदायों को केंद्र में रखते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखा है जिसमें हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खदानें खोलने के निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया है।

पेसा कानून, 1996 को खारिज करते हुए कोल बेयरिंग एरिया एक्ट (सीबीएए, 1957), का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता यह एक कानूनी और सांवैधानिक तथ्य है। ऐसे मामलों में 2013 में संसद से पारित भूमि अधिग्रहण कानून का इस्तेमाल ही किया जाना चाहिए जहां पेसा क्षेत्र के इलाकों की ग्राम सभाओं को भरोसे में लेते हुए उनकी सहमति को प्राथमिकता दिये जाने का स्पष्ट प्रावधान है। 

सत्यम लिखते हैं कि आईसीएफआरई ने एक अध्ययन 2014 में परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक के संदर्भ में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के आदेश पर शुरू किया था जिसमें इस कोल ब्लॉक की वन स्वीकृति पर रोक लगा दी गयी थी। हालांकि देश की न्याय व्यवस्था और पर्यावरण के प्रति देश के नीति नियंताओं की वैश्विक चिंताओं और वास्तविक स्थानीय सरोकारों के बीच चौड़ी खाई के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में इस मामले को समझा जाना चाहिए।

देश में कोयले की कोई कमी नहीं है

क्या अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा कोयले की फर्जी कमी का इस्तेमाल? नीलिमा एम एस कारवां में लिखती हैं कि फरवरी 2023 में बजट सत्र के दौरान कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने संसद में कहा कि ‘देश में कोयले की कोई कमी नहीं है।’ जोशी ने कहा कि 2022-23 में कोयले का उत्पादन 16 प्रतिशत बढक़र करीब सात करोड़ टन पहुंच गया।

इसके एक महीने बाद जोशी ने घोषणा की कि भारत 2025-26 तक कोयले का निर्यात शुरू कर देगा और थर्मल कोयले का आयात बंद कर देगा। कोयला मंत्रालय के इस आश्वासन के बाद, शायद भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद, या आईसीएफआरई, छत्तीसगढ़ में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील हसदेव अरंड क्षेत्र में कोयला खनन के लिए और अधिक क्षेत्र खोलने की अपनी सिफारिश की फिर से जांच कर सकता है। 

आईसीएफआरई के उप महानिदेशक सुधीर कुमार के नेतृत्व में यह अध्ययन अपने मुख्तारनामे से परे चला गया, इसने कोयले की उपलब्धता के मुद्दों का पता लगाया, चुनिंदा आंकड़ों के आधार पर दावा किया कि कोयले की कमी थी और एचएसीएफ में खनन क्षेत्र के विस्तार की वकालत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया।

भारतीय वन सेवा के एक अधिकारी, अरुण सिंह रावत की अध्यक्षता वाली आईसीएफआरई ने इसी अध्ययन से सामने अए गंभीर पर्यावरणीय नुकसानों पर चिंताओं को पीछे छोड़ते हुए मानवशास्त्रीय कारणों की अनुमति दी। इसके बाद, आईसीएफआरई के अध्ययन का हवाला देते हुए, केंद्र सरकार और छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकारें हसदेव अरंड में खनन परियोजनाओं के लिए और अधिक क्षेत्रों को खोलने के लिए आगे बढ़ रही हैं।

आईसीएफआरई ने चार कोयला ब्लॉकों में और खनन की अनुमति देने की सिफारिश की क्योंकि वे ‘पहले से ही चालू हैं या वैधानिक मंजूरी प्राप्त करने के उन्नत चरण में हैं।’ ये चार ब्लॉक हैं- परसा पूर्व और कांता बसन या पीईकेबी, परसा, केंटे एक्सटेंशन और तारा पीईकेबी, केंटे एक्सटेंशन और परसा को क्रमश: 2007, 2013 और 2017 में राजस्थान विद्युत वितरण निगम लिमिटेड को आवंटित किया गया था. वर्तमान में, पीईकेबी और चोटिया, जहां बाल्को द्वारा खनन किया जा रहा है और जो वेदांता समूह की सहायक कंपनी है, एचएसीएफ में दो परिचालन खदानें हैं।

इंडियन एक्सप्रेस, स्क्रॉल और आर्टिकल 14 की कई रिपोर्टों ने इस तथ्य का हवाला दिया है कि डब्ल्यूआईआई रिपोर्ट ने परसा पूर्व और कांता बसन खदान के विकास के खिलाफ सिफारिश की थी। स्क्रॉल द्वारा दिसंबर 2022 में प्रकाशित एक लेख में आरआरवीयूएनएल के साथ अडानी समूह के बहुसंख्यक स्वामित्व वाले संयुक्त उद्यम पारसा कांटे कोलियरीज लिमिटेड के बारे में भी सवाल उठाए गए हैं, जिसमें अडानी समूह के स्वामित्व वाले तीन बिजली संयंत्रों में उपयोग के लिए पीईकेबी से लाखों टन कोयले को बहुत सस्ती दरों पर बेचा जाता है।


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