हसदेव अरण्य में आदिवासियों के साथ जंगल की बर्बादी और कोयला उत्खनन

परसा ईस्ट केते बासेन (पीईकेबी) - पहला किस्त

सुशान्त कुमार

 

यह जमीन माइनिंग के लिए अडाणी को दी गई है। माइंस के लिए 450 जवानों की सुरक्षा में 50 हजार से भी ज्यादा पेड़ों की कटाई कर दी गई है। बताया यह भी जा रहा है कि 15 लोग नजरबंद रखे गए हैं और आगे भी पेड़ कटेंगे। 

खबरों के अनुसार उदयपुर के एसडीएम भागीरथी खांडेय ने बताया कि शासन के आदेश पर फॉरेस्ट विभाग द्वारा करीब 91 हेक्टेयर में लगे पेड़ों की कटाई 500 आरी से की जा रही है। जो दो दिन में पूरे कर लिए जाएंगे। 

अफसरों के हवाले से कि 52 हेक्टेयर में लगे 15307 पेड़ों को काटने चिन्हांकित किया था, जिसे गुरूवार को काटा गया है। उसके बाद बाकी पेड़ों की कटाई की जाएगी। घाटबर्रा में पेड़ों को काटने का विभाग ने एक सप्ताह  पहले से  तैयारी की थी। इसके लिए पुलिस बल उदयपुर क्षेत्र में 24 घंटे पहले ही पहुंच गया था। यहां माइंस और पेड़ कटाई वाले इलाके में आवाजाही पर सुबह होते ही रोक लगा दी गई थी। कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार करने की कोशिश हुई।

मामला विधान सभा में भी उठाया गया। हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ का समृद्ध वन क्षेत्र है, जहां हसदेव नदी और उस पर मिनीमता बांगो बांध का कैचमेंट है, जिससे 4 लाख हेक्टेयर जमीन सिंचित होती है। केंद्र सरकार के ही एक संस्थान ‘भारतीय वन्य जीव संस्थान’ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि हसदेव अरण्य में कोयला खनन से हसदेव नदी और उस पर बने मिनीमाता बांगो बांध के अस्तित्व पर संकट होगा। प्रदेश में मानव-हाथी संघर्ष इतना बढ़ जाएगा कि फिर कभी उसे सम्हाला नहीं जा सकता।

छत्तीसगढ़ विधान सभा ने पिछले साल 26 जुलाई 2022 को अशासकीय संकल्प सर्वानुमति से पारित किया था कि हसदेव अरण्य हसदेव में सभी कोल ब्लॉक रद्द किए जाएं। लेकिन दो महीने के बाद ही हसदेव के 43 हेक्टेयर के जंगल कांग्रेस सरकार ने कटवाया। पूरा क्षेत्र पांचवी अनुसूची में आता है और किसी भी ग्रामसभा ने खनन की अनुमति नहीं दी है। परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खदान के दूसरे चरण के लिए खनन वनाधिकार कानून, पेसा अधिनियम और भू-अर्जन कानून तीनों का उल्लंघन है। 

जिन जंगलों का विनाश किया जा रहा है, उसके प्रभावित गांव घाटबर्रा गांव को मिले सामुदायिक वन अधिकार पत्र को गैरकानूनी रूप से तत्कालीन भाजपा सरकार द्वारा ही निरस्त किया गया था, जिसका मामला पुन: बिलासपुर उच्च न्यायालय में लंबित है। नव निर्वाचित भाजपा सरकार को जिस विश्वास के साथ इस प्रदेश और खासकर सरगुजा के आदिवासियों ने सत्ता सौंपी है, सरकार का यह कृत्य उसके साथ सीधा विश्वासघात है। यदि हसदेव के जंगलों की कटाई नहीं रोकी गई, तो पूरे प्रदेश में व्यापक आंदोलन शुरू होने की संभावना है। 

ओ सात महत्वपूर्ण बातें

अधिवक्ता शालिनी गेरा पूरे मामले को 7 बिंदुओं में रेखांकित करते हुए ‘दक्षिण कोसल’ से कहती हैं कि - पहला, 2009 में हसदेव के 23 कोल ब्लाकों को  नो-गो एरियास में डाला गया क्योंकि जंगल बहुत घना था और इतने घने जंगल में माईनिंग करने से पर्यावरण को बहुत हानि होती।

दूसरा, इसे अनदेखा कर, चार कोल ब्लाक पर माइनिंग शुरू करने की पहल हुई - पीएकेबी, परसा, केते एक्टेंशन और तारा।  इनको लेकर पर्यावरण मंत्रालय में वन स्वीकृति की प्रक्रिया शुरू हुई। पर्यावरण मंत्रालय में वन स्वीकृति के लिए एक कमेटी होती है फारेस्ट एडव्हायसरी कमेटी वह इसे देखती है और फिर पर्यावरण मंत्रालय को कहती है कि स्वीकृति देना है की नहीं देना है। 2011 में यहां पर पर्यावरण मंत्रालय की कमेटी ने कहा था कि यह बहुत अच्छा जंगल है हम इसमें माईनिंग की स्वीकृति किसी को नहीं दे सकते हैं। 

तीसरा, पर्यावरण मंत्री (जयराम रमेश) ने कमिटी की अनुशंसा को स्वीकार नहीं किया और 2012 में पीईकेबी में स्वीकृति दे दिया गया। इसका उत्खनन दो चरणों में होगा। पहला चरण 15 साल तक चलेगा अगर ठीक से पर्यावरण को सम्हाला तो हम दूसरे चरण की अनुमति देंगे। 

चौथा, इसके विरोध में एजीटी में याचिका लगी है।  साल 2012 में खदान तो चालू हो गया था पर 2014 में एनजीटी ने इसकी स्वीकृति रद्द कर दी और माइनिंग आपरेशन को बंद करने का आदेश दिया था।

पांचवा, कम्पनी इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट (सुको) गई। सुको ने कहा कि एनजीटी का फैसले सही है की नहीं, उस पर हम पूरी बहस सुनेंगे, पर तब तक के लिए माइनिंग शरु कर दी जाए। तब से 2023 तक, माईनिंग जारी रही, और जब पहले चरण का पूरा कोयला खत्म हो गया, तब कम्पनी ने स्वयं ही अपनी याचिका वापस ले ली। 

छठवां, पहले चरण में 786 हेक्टेयर वन भूनि में उत्खनन हुआ और दूसरे चरण में 1136 वनक्षेत्र का उत्खनन होना है। पहला चरण 15 साल तक चलना था, पर कंपनी ने इतनी भारी मात्रा में कोयला निकाला है कि 9 साल में ही उसके पूरे भंडार खत्म हो गए। अब कंपनी ने दूसरे चरण की माइनिंग शुरू कर दी है। जद्दोजहद दूसरे चरण के लिये चल रही है, जिससे पूरा घाटबर्रा गांव चपेट में आ गया है। 

सातवां, हसदेव अरण्य संघर्ष समिति भी कोर्ट में गई है, क्योंकि माइनिंग के कारण घाटबर्रा गांव को सामुदायिक वन अधिकार नहीं मिल रहे हैं। इसका मामला 2016 से लंबित है, पर अगर चरण 2 की माईनिंग होती है तो जिस वन पर वे अधिकार मांग रहे हैं, वही पूरा नष्ट हो जाएगा।

मध्य भारत का फेफड़ा 

मोंगाबे-हिन्दी के अनुसार 170000 हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के घने जंगल में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को पहले ही 2711.034 हेक्टेयर में फैले परसा इस्ट केते बासन का इलाका खनन के लिए आवंटित है, जिसके खनन के खि़लाफ़ कई मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। 

मध्य भारत का फेफड़ा कहे जाने वाले हसदेव अरण्य में 18 चिन्हांकित कोयला खदाने हैं। हसदेव अरण्य के जंगल सैकड़ों हाथियों समेत दूसरे वन्य जीवों का स्थाई घर हैं। इसके अलावा यह इलाका हसदेव बांगो बांध का ‘कैचमेंट एरिया’ भी है, जिससे लगभग 3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दो फसली सिंचाई होती रही है।

हसदेव अरण्य की समृद्ध जैव विविधता और उच्च पारिस्थितिक के कारण कोयला मंत्रालय और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2010 में एक संयुक्त अध्ययन के बाद इस इलाके को किसी भी तरह के खनन के लिए प्रतिबंधित करते हुए इसे ‘नो गो एरिया’ घोषित किया था। लेकिन कम लागत में अधिक से अधिक कोयला निकालने की नीति के कारण साल भर के भीतर ही परसा इस्ट केते बासन कोयला खदान को यह कहते हुए मंजूरी दे दी गई कि भविष्य में हसदेव अरण्य के इलाके में किसी और खदान को मंजूरी नहीं दी जाएगी।

बाद में यह मामला अदालत में पहुंचा और अदालत ने इस खदान की स्वीकृतियां रद्द कर दीं। लेकिन सरकार की अपील पर अगले आदेश तक खनन को यह कहते हुए मंजूरी दे दी गई कि हसदेव की पारिस्थितकी और पर्यावरण पर देहरादून की वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया या भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद जैसी किसी संस्था से अध्ययन करवा कर जांच रिपोर्ट सौंपे, इसके बाद अदालत इस पर अंतिम निर्णय लेगी। यह मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 

इसके बाद पिछले साल राजस्थान सरकार ने यह कहते हुए परसा ईस्ट केते बासन के दूसरे चरण और परसा कोयला खदान के आवंटन को लेकर राज्य सरकार पर दबाव बनाना शुरु किया कि उन्हें 2028 तक की ज़रुरत के लिए आवंटित परसा इस्ट केते बासन का कोयला खत्म हो चुका है।

कोयले की कार्पोरेट लूट से भडक़ी सियासत

‘दक्षिण कोसल’ में जुलाई सितम्बर 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट ‘कोयले की कार्पोरेट लूट से भडक़ी सियासत’ के अनुसार आलोक शुक्ला और प्रियांशु गुप्ता की रिपोर्ट में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में कोयला मुख्य रूप से उत्तरी छत्तीसगढ़ में केन्द्रित है और 5 प्रमुख कोलफील्ड में लगभग पूरा कोयला संसाधन सीमित हैं। मांड-रायगढ़ में प्रदेश का लगभग 53 प्रतिशत, कोरबा में लगभग 21 प्रतिशत, हसदेव-अरण्य में लगभग 10 प्रतिशत, सोहागपुर में 4.7 प्रतिशत और विश्रामपुर में 3.3 प्रतिशत कोयला संसाधन उपलब्ध हैं। 

कोयला उत्पादन का बदलता परिदृश्य

क्योटो प्रोटोकाल के चलते भारत ने 2022 तक अक्षय ऊर्जा को 175 जीडब्ल्यू तक बढ़ाने का संकल्प लिया है। भारत की बढ़ती दक्षता के कारण सभी उद्योगों में पहले से कम ऊर्जा खपत हो रही है। जहां पहले सकल घरेलू उत्पादन की एक इकाई से बढ़ाने में 1.8 इकाई ऊर्जा खपत होती थी, अब वह घटकर 1.2 हो चुकी है और अनुमान है कि वर्ष 2030 तक यह 0.8 रह जाएगी। 

भविष्य में कोयले की मांग और उत्पादन का आंकलन

जनवरी 2018 में कोल इंडिया लिमिटेड ने एक रिपोर्ट कोल विजन-2030 प्रकाशित किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल कोयला मांग 2020 तक प्रतिवर्ष 900 - 1000 मिलियन टन और 2030 तक प्रतिवर्ष 1300 - 1900 मिलियन टन रहने का अनुमान है।  ऐसे में कुल 1520 - 1570 मिलियन टन वार्षिक कोयला उत्पादन वर्तमान में आवंटित खदानों से ही उत्पादित किया जा सकता है। 

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

2012 में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने इसकी विस्तृत जांच कर निष्कर्ष निकाला की पूरी आबंटन प्रक्रिया विवेकाधीन तथा गैरपारदर्शी है। यह पूरा प्रकरण कोलगेट घोटाले के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसमें आरोप है कि आबंटन के कारण देश को लगभग 1 लाख 86 हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया जिसमें साल 1993 के बाद आवंटित 214 कोल ब्लाकों के आबंटन को निरस्त कर दिया।

अपने आदेश में न्यायालय ने माना की आबंटन के लिए कोई निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्रीय संपदा का अनुचित वितरण हुआ। न्यायालय ने अपने फैसले में टिप्पणियां करते हुए कहा कि आबंटन की पूरी प्रक्रिया किसी भी निष्पक्ष मापदंड के अनुसार नहीं थी। 

 

 

अपने आदेश में उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश इंडस्ट्रीज, जो कि चोटिया में कोयला खनन कर रहे हैं, के आबंटन पर भी सवाल उठाए और कहा कि वह आबंटन के लिए संभवत: अयोग्य थी और दिवालियेपन के लिए अर्जी दायर की थी।

तत्कालीन संचालित कोयला खदानों को 6 महीने के अन्दर खदान संचालन बंद करने के भी आदेश दिए और केन्द्रीय सरकार को इन 6 महीनों में अक्षय व्यवस्था खोजने का निर्देश दिया। इसके अतिरिक्त, सभी दोषी कंपनियों को अपने खनन कार्य की शुरूआत से अब तक निकाले गए कोयले पर प्रति टन 295 रूपये का जुर्माना देने का भी आदेश किया।

यह जुर्माना जनता की अधिकृत संपत्ति पर इन कंपनियों के द्वारा अनुचित लाभ उठाये जाने की क्षतिपूर्ण करने हेतु किया गया। मोदी सरकार ने अनुचित शीघ्रता दिखाते हुए न्यायालय के आदेश के मात्र 20 दिन के अंतराल पर ही अध्यादेश के रास्ते नई आबंटन नीति लागू कर दी। इसके लिए पहले कोयला खान (विशेष उपबंध) अध्यादेश 2014 और फिर कोयला खान (विशेष उपबंध) अधिनियम 2015 पारित किए गए। 

नई नीति में ग्राम सभा की अनुमतियों की कोई आवश्यकता नहीं

कोयला खान (विशेष उपबंध) अधिनियम 2015 में एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूर्णतया अमान्य करने का प्रयास किया है वहीं दूसरी ओर इसमें कई ऐसे नए प्रावधान डाल दिए हैं। कोयला खदान के आबंटन के पूर्व किसी भी पर्यावरणीय, वन स्वीकृति या ग्राम सभा की अनुमतियों की कोई आवश्यकता नहीं है। साथ ही खदान संचालन से होने वाले मुनाफे का 10 प्रतिशत राशि आबंटन के समय ही आबंटी कंपनी सरकार को देगी।

अधिनियम में जिन 204 कोयला ब्लाकों की नीलामी का जिक्र है, उनमें अधिकांश के पास पर्यावरणीय, वन परिवर्तन संबंधी तथा अन्य स्वीकृतियां नहीं हैं। सभी अनुसूचित क्षेत्रों में यह प्रावधान पेसा कानून 1996 का भी उल्लंघन है जिसमें किसी भी खनन कार्य से पूर्व ग्राम सभा की स्वीकृति लेना आवश्यक है।

खदान से संबंधित अनियमितताओं की भरपाई तथा नुकसान के हर्जाना वसूलने की प्रक्रिया बहुत कठिन हो गई है जैसा वसी रायगढ़ में गारे पेल्मा क्षेत्र के प्रभावित ग्रमीण लगातार झेल रहे हैं। इन खदानों में से कई पर गंभीर अनियमितताओं जैसे, अपर्याप्त मुवावजा एवं पुनर्वास पैकेज गैरकानूनी खनन इत्यादि के आरोप हैं।

खदानों के संबंध में कानूनी फैसलों, ट्रिब्यूनल के आदेशों तथा किसी भी अधिकारी द्वारा दुबारा दिए गए प्रतिकूल निर्देशों को रद्द कर दिया गया है। मौजूदा खदान में नीलामी से पूर्व हुई मजदूरी, बोनस, रॉयल्टी, पेंशन, ग्रेच्युटी या किसी अन्य देय राशि के लिए सभी दावे पर प्रतिबंध लगा दिया है।

भूमि अधिग्रहण के लिए अत्यंत ही कठोर तथा पुराने कानून कोयला धारक क्षेत्रों (अधिग्रहण एवं विकास अधिनियम 1957 )का इस्तेमाल किया जाएगा। संसद द्वारा पारित भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुर्नव्यस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम 2013 का एक भद्दा मजाक है किसी भी व्यक्ति पर खनन अधिग्रहण के कार्य में बाधा उत्पन्न करने के आरोप में 1-2 लाख रूपये प्रतिदिन के भारी जुर्माने तथा कारावास का भी प्रावधान है। 

एसईसीएल को पीछे छोड़ देगा अदानी

छत्तीसगढ़ में लगभग 96 प्रतिशत कोयला संसाधन इसी गैर-प्रतिस्पर्धात्मक अलाटमेंट रूट की प्रक्रिया से विभिन्न भाजपा शासित राज्यों की सार्वजनिक कंपनियों को आवंटित कर दिया गया है। इनमें से लगभग सभी ने या तो पहले से ही (एमडीओ) नियुक्त कर दिए हैं या फिर इनकी नियुक्ति की प्रक्रिया में अग्रसर हैं।

अकसर यह कंपनियां टेंडर में ऐसी शर्तें डालते हैं जिससे ठेके मनमाने ढंग से चुनिन्दा कंपनियों को ही दिए जा सकें। छत्तीसगढ़ में इस प्रक्रिया से आवंटित एक भी खदान को कोई सरकारी कंपनी स्वयं चलाने का प्रयास भी नहीं कर रही। 

इस सन्दर्भ में मार्च 2018 में कारवां मैगजीन ने एक बड़ी कवर स्टोरी कोलगेट 2.0 प्रकाशित किया था। जिसमें परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खदान में कोयले के बड़ी घोटाले का आरोप लगाया था। कारवां ने बताया कि केवल एक खदान परसा ईस्ट केते बासेन से ही अदानी बाजार से अधिक दामों पर कोयला बेच कर 6000 करोड़ रूपये का अवैध लाभ उठा रहा है। इसी को अगर छत्तीसगढ़ में आबंटित बाकी खदानों की परिदृष्टि में देखें तो यह पूरा अवैध लाभ का प्रकरण कहीं बड़ा सिद्ध होगा। 

आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ में अभी तक अडानी को 5 कोयला ब्लॉकों के एमडीओ मिल चुके हैं जिनमें परसा ईस्ट, केते बासेन, परसा, केते एक्सटेंशन, और गारे पेलमा-3 शामिल हैं। गारे पेलमा-2 की एमडीओ प्रक्रिया पिछले साल शुरू हुई थी और यहां भी स्थानीय लोगों की सूचना के अनुसार अदानी को ही एमडीओ का ठेका मिलने की संभावना है।

हालांकि अब तक इसकी सार्वजनिक घोषणा ही हुई है। इसके अलावा अदानी को उड़ीसा में तालाबिरा - II  और III  खदान का भी एमडीओ मिल चुका है। कुल मिलाकर अदानी को अब तक 77.1 एमटीपीए की खदानों के एमडीओ ठेके मिल चुके हैं जो कि पूरे देश भर में नीलामी प्रक्रिया से आवंटित खदानों की क्षमता से बहुत अधिक है।

इसके साथ ही अभी छत्तीसगढ़ में गिधमुड़ी, पतुरिया एवं मदनपुर साउथ के एमडीओ प्रक्रिया जारी है जहां अदानी जोर शोर से स्थानीय कार्यों को आगे बढ़ाता दिख रहा है। यदि छत्तीसगढ़ में बाकी बची खदानों के एमडीओ ठेके भी अदानी को मिल जाते हैं तो वह लगभग 112 एमटीपीए की खदानों का मालिक बन जाएगा और जल्द ही एसईसीएल को भी पीछे छोड़ देगा।

रॉयल्टी भुगतान राज्य सरकार को मिलने वाले खनिज राजस्व का प्रमुख हिस्सा होता है। ऐसे में खनिज आबंटन के लिए अलाटमेंट रूट को चुनना खनिज राजस्व की क्षमता को बहुत कम कर देता है जबकि इसका कुछ फायदा उस राज्य सरकार को मिलता है जिसे यह खदान आवंटित हुई है।

देखा जाए तो इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बड़ा नुकसान छत्तीसगढ़ राज्य पर ही पड़ा है। ये सभी खदानें बहुत छोटी थी जिनकी कुल क्षमता मात्र 5.4 मिलियन टन प्रतिवर्ष है और इनमें कुल माइन रिजर्व 244 मिलियन टन ही हैं। लेकिन इन खदानों की नीलामी से यह तो सिद्ध हो गया की छत्तीसगढ़ राज्य में कोयला की रॉयल्टी की दर औसतन 2400 रूपये प्रति टन है।

इस महत्वपूर्ण खनिज राजस्व की क्षमता के बावजूद राज्य के अधिकांश बड़ी खदानों को कौडिय़ों के भाव पर विभिन्न राज्य सरकारों को दे दिया गया। जैसा की राजस्थान सरकार की कंपनी को आवंटित तथा अदानी द्वारा संचालित ‘परसा ईस्ट केते बासेन खदान’ में नीलामी हुए 5 खदानों से अधिक उत्पादन क्षमता 15 मिलियन टन का प्रतिवर्ष तथा 450 मिलियन टन के कोयला रिजर्व का है। इसी तरह गुजरात राज्य की सरकारी कंपनी को आवंटित गारे पेलमा सेक्टर' खादान की वार्षिक उत्पादन क्षमता 21 मिलियन टन है और कुल रिजर्व 900 मिलियन टन से भी अधिक हैं। 

कमर्शियल माइनिंग किसके लिए?

जनवरी 2018 में कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा प्रकाशित कोल विजन 2030 के अनुसार भारत के 2030 तक के कोयला की जरुरत की आपूर्ति करने के लिए किसी भी नए खदान के आबंटन या नीलामी की जरुरत ही नहीं है।

मार्च माह में छपे अंग्रेजी मैगजीन ‘द कारवां’ के अनुसार परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान से अदानी द्वारा कोल राजस्थान सरकार की उर्जा कंपनी को 2267 रूपये प्रति टन पर बेचा जाता है जो कि कोल इंडिया लिमिटेड के बाजार मूल्य (लगभग 1992.96 रूपये प्रति टन) से कहीं अधिक है। इससे साफ है कि या तो निजी कंपनियों की लागत कोल इंडिया लिमिटेड से कहीं अधिक है या फिर निजी कंपनियों बहुत अधिक मुनाफा कमा रही हैं।

कमर्शियल माइनिंग से उत्पादित कोयला का मूल्य कम नहीं बल्कि बढ़ेगा ही जिससे ना सिर्फ उर्जा महंगी होगी बल्कि सभी घरेलू उत्पादों की महंगाई बढ़ जायेगी। उपरोक्त तथ्यों से कमर्शियल माइनिंग नीति पर कई गंभीर सवाल उत्पन्न होते हैं।

क्या सरकार यह मानती है कि कोल इंडिया द्वारा प्रकाशित कोल इंडिया विजन 2030 का आंकलन गलत है कि हमें कोई नई खदान के आबंटन की जरुरत नहीं है? क्या सरकार इस बात को भी झुठला रही है की कोयला खदान नीलामी के पिछले तीन चरणों में 26 में से 24 खदानों की नीलामी को रद्द करना पड़ा था। 

 

 

लूट को आसान बनाने संविधानिक प्रावधानों की दी जा रही बलि

केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कोयला मंत्रालय के साथ विस्तृत विचार विमर्श के बाद इनवायलेट या नो-गो क्षेत्रों की एक सूची तैयार की है। इस सूची में शामिल क्षेत्र पर्यावरण एवं वन संरक्षण की दृष्टि से इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनका खनन के लिए विनाश वर्जित है।

क्षेत्र भारत के कोयला धारक क्षेत्रों के कुल 10 प्रतिशत से भी कम हैं। हालांकि इस सूची की आधिकारिक घोषणा नहीं की गई परन्तु इस सूची से जुड़े तथ्यों से स्पष्ट है कि इन खदानों को साधारणत: एवं नियमित प्रक्रिया से वनभूमि डायवर्सन की स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए।

ऐसे में इन खदानों के आबंटन का कोई औचित्य नहीं है और राज्य सरकार को इन खदानों के आबंटन से रोकना चाहिए। छत्तीसगढ़ में लगभग 70 प्रतिशत खदानें इन्हीं संवेदनशील क्षेत्रों में आबंटित की गई हैं और इस पर राज्य सरकार ने कोई प्रतिक्रिया तक नहीं की। यहां तक कि गिधमुडी पतुरिया खदान जो कि पूर्णतया इनवायलेट है को राज्य सरकार की छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी ने ही ले लिया जिससे सरकार की इस सूची को दरकिनार करने की नियत एकदम साफ है।

इसका विस्तृत उल्लेख  ‘परसा ईस्ट केते बासेन खदान’ के स्वीकृति निरस्तीकरण के मामले में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने किया था। इस मामले में एनजीटी ने साफ कहा था कि स्थानीय रिपोर्ट में वन सघनता के आंकड़े बदलने और वन के कई ऐसे दुर्लभ वन प्राणियों को आधिकारक आंकड़ों में छुपाने के प्रयास किये गए। इसके अलावा लगातार खनिज क्षेत्रों में कूप कटाई के बहाने अवैध रूप से आरोग्य पेड़ काट दिए जाते हैं जिनसे स्वीकृतियां मिलनी आसान हो जाएं।

ग्रामसभाओं के अधिकारों की अवहेलना 

छत्तीसगढ़ में पेसा कानून 1996 धारा 4 उपधारा (1), वनाधिकार मान्यता कानून 2006 की धारा 4 उपधारा (5) और उसके तहत जारी केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के 3 अगस्त 2009 के निर्देश, तथा भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनाव्र्यस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम 2013 कानून की धारा 41 उपधारा (3) के तहत किसी भी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के पूर्व अनिवार्य रूप से सहमति का प्रावधान है।

यह देखा गया है कि छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से खनन परियोजना को शुरू करने की प्रक्रियाओं में ग्राम सभाओं के संविधानिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही है। यहां तक कि प्रशासन ग्राम सभा प्रस्ताव को केवल एक खनन परियोजना में एक बाधा के रूप में देखता है।

छत्तीसगढ़ की कई ग्रामसभाएं पहले ही खनन कार्य के लिए अपनी अपनी असहमति प्रस्ताव पारित कर कोयला मंत्रालय, राज्य सरकार तथा राज्यपाल को प्रेषित कर चुकी हैं, फिर भी इन क्षेत्रों में खदानें लगातार आबंटित की जा रही हैं जैसे हसदेव अरण्य और रायगढ़ के कई क्षेत्र। लगभग सभी खदान क्षेत्रों में ग्रामसभा अनुमति की प्रक्रिया की खानापूर्ति कर प्रशासनिक निर्देश के जरिये और बिना किसी चर्चा/सूचना के पंचायत प्रतिनिधियों से पूर्वनिर्धारित प्रारूप में अनापत्ति पत्र मांगे जाते हैं।

यहां तक की कई जगह यह भी कहा जाता है कि यदि लघु यानी एक सप्ताह के भीतर अनापत्ति ना दी गई तो उसे मूक स्वीकृति मान लिया जाएगा जो कि अपने आप में कानून का घोर उल्लंघन है। ग्रामसभाओं के आयोजन में जिला प्रशासन साम, दाम, दंड, भेद से कर किसी भी हालत में केवल प्रस्ताव लेने की कोशिश करता है जो कि अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा से सलाह प्रक्रिया का एक भद्दा मजाक है। 


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