युद्ध विहार बनते जा रहे हमारे आस-पास के बुद्ध विहार
भारत के बुद्धिस्ट लोगों को बुद्धिस्ट मानते ही नहीं
डॉ.एम एल परिहारचीवर पहनकर भिक्षु बनना तो मानो मज़ाक हो गया है. न श्रामणेर जीवन और न उपसंपदा. न धम्म का अध्य्यन, न शील सदाचार की ज़रूरत. कहीं भी जाकर चीवर ख़रीद कर पहन कर अपने आप को मठाधीश समझ लेते हैं. फिर उम्मीद करते हैं कि पढ़े लिखे लोग भी उनके आगे दंडवत होए और इनके पैर धोए. श्रीलंका में तो जब तक पूरे ‘धम्मपद’ का अध्ययन, ध्यान और देशना की योग्यता नहीं होती, उसे भिक्षु नहीं बनाया जाता.

पिछले तीन साल में हम कुछ साथियों ने बुद्ध अनुआयी चार देशों की यात्राएं की- म्यांमार, थाइलैंड, श्रीलंका, वियतनाम.
इन देशों में बच्चों से लेकर बुजुर्गों, भिक्षु भिक्षुणियों तक याने पूरे जन जीवन में बुद्ध की शिक्षाओं का गहरा असर देखा. संघ और बुद्ध विहारों की गतिविधियों को देखकर श्रद्धा से सिर झुक जाता है. पूर्णिमा के दिन हरे भरे विशाल बुद्ध विहारों में अनगिनत बोधि वृक्षों के नीचे अलग अलग समूहों में भिक्षु देशना करते नज़र आते हैं. शहर से दूर गांवों में भी यही धाम्मिक दृश्य देखने को मिलता है.
अब भारत की बात. उन देशों के लोग भारत के बुद्धिस्ट लोगों को बुद्धिस्ट मानते ही नहीं, ख़ास तौर से अधिकांश अंबेडक्राइट लोगों को. उनका कहना है कि भारत में अधिकतर भिक्षुओं व नवबौद्धों के आचरण में धम्म बहुत कम नजर आता है. यहाँ न धम्म का अध्ययन करते हैं, न ज्ञान, न ध्यान, न दान.
सच भी है..आज देश के अधिकतर बुद्ध विहार युद्ध विहार बनते जा रहे हैं. कहीं भिक्षुओं ने क़ब्ज़ा कर अपना घर सा बना दिया है तो कहीं बुद्ध के नाम पर बने संगठनों ने अपनी बपौती बना कर सच्चे भिक्षु को आंकते ही नहीं .
बुद्ध विहारों में धम्म से जुड़ी गतिविधियां कम, अन्य संगठनों के शक्ति प्रदर्शन, शोरगुल, भड़काऊ भाषण, राजनीति और धूम धड़ाके ज़्यादा नज़र आते हैं. अधिकतर भिक्षुओं ने अपना अपना गुट या डेरा बना दिया है और उसी तरह उनके चेले चपाटी भी बंट गए हैं. प्रेम,करुणा और मैत्री सिखाने वाले धम्म के कथित भिक्षु और अनुयायी अक्सर तू तू मैं मैं, विवादों और झगड़ों में उलझे रहते हैं.
बुद्ध विहारों से देशना व साहित्य द्वारा धम्म प्रचार कहीं नज़र नहीं आता. अधिकतर भिक्षु तो यह काम करते ही नहीं. ये तो पंडे पुरोहित बन गए हैं, शादी मृत्यु के कर्म कांडों में इनको ज़्यादा रस आता है या फिर आए दिन संगठनों के मंचों पर माला पहनकर भड़काऊ भाषण देते नज़र आते है.
कहीं पर श्रद्धालुओं ने अच्छे बुद्ध विहार बनाए हैं व्यवस्था भी अच्छी हैं लेकिन वहां थोड़े से बुजुर्ग लोगों के अलावा युवा पीढ़ी नज़र नहीं आती. क्योंकि बुद्ध के नाम पर बनी अधिकतर संस्थाएं युवा पीढ़ी में धम्म का प्रचार ही नहीं करती.
लोग सारा ज़ोर बुद्ध विहार बनाने में लगाते हैं, कई साल तक उसी में उलझे रहते हैं. बुद्ध विहार बन गए लेकिन युवाओं को धम्म संस्कार देने और विहार तक लाने का काम ही नहीं किया. इसलिए बुद्ध विहार सूने पड़े हैं.
विहारों में अक्सर वो ही रटे रटाए कार्यक्रम. स्कूल में बच्चों की प्रेयर की तरह बुद्ध वंदना और एक दो ग्रंथ के कुछ पेज पढ़ लो. और भंतेज़ी से बौद्ध बनने का सर्टिफ़िकेट ले लो, खीर खाई ..लो जी हो गए पक्के बौद्ध.. यहां धम्म का अध्ययन, ध्यान दान और शील सदाचार को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है.
चीवर पहनकर भिक्षु बनना तो मानो मज़ाक हो गया है. न श्रामणेर जीवन और न उपसंपदा. न धम्म का अध्य्यन, न शील सदाचार की ज़रूरत. कहीं भी जाकर चीवर ख़रीद कर पहन कर अपने आप को मठाधीश समझ लेते हैं. फिर उम्मीद करते हैं कि पढ़े लिखे लोग भी उनके आगे दंडवत होए और इनके पैर धोए. श्रीलंका में तो जब तक पूरे ‘धम्मपद’ का अध्ययन, ध्यान और देशना की योग्यता नहीं होती, उसे भिक्षु नहीं बनाया जाता.
यहां भिक्षु आए दिन राजनेताओं की तरह मंच, जुलूस, रैली में धम्म के नाम पर प्रदर्शन और धूम धड़ाका करते हैं. इनके कदमों में फूल न बिछाओ और पैर नहीं धोओ तो नाराज़ हो जाते हैं. ये अक्सर शहर के पढ़े लिखे परिवारों में नज़र आते हैं, गांवों में देशना करना तो बहुत दूर की बात.
लेकिन ऐसे माहौल में भी विद्वान व समर्पित भिक्षु भिक्षुणी भी है लेकिन बहुत कम, उनका वंदन करता हूँ.
हमारे यहाँ बुद्ध धम्म से जुड़ा हुआ कोई कार्यक्रम दूसरे धर्म की निंदा किए बिना शुरु नहीं होता. अधिकतर बुद्धिजीवी, कथावाचक, गायक, वक्ता मंचों से बुद्ध के प्रेम, करुणा और मैत्री का संदेश कम, दूसरों की निंदा कर घृणा ज़्यादा फैलाते हैं.
नतीजा यह है कि दूसरे लोग बुद्ध और बाबासाहब को घृणा की नज़र से देख रहे हैं. दूसरी जाति, धर्म, वर्ग के समझदार लोग बुद्ध की ओर प्रभावित और आकर्षित हो रहे हैं जबकि हम लोग उनको दुत्कार रहे हैं. यदि बुद्ध धम्म के नाम पर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाला समय सुखद नहीं होगा. हम सभी को इस बात पर चिंतन मनन करना चाहिए.
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