छत्तीसगढ़ के जाने माने आदिवासी योद्धा राधेश्याम करपाल नहीं रहे
‘आदिवासी हिन्दू नहीं’ पुस्तक के मास्टरमाइंड
सुशान्त कुमारछत्तीसगढ़ में आज आदिवासी मामलों के मर्मज्ञ और बालोद जिला के टेका ढोरा बसंतपुर, नजदीक ग्राम-धोबनी (अ), दल्लीराजहरा के करीब निवासरत आदिवासी आंदोलन के पितामह राधेश्याम करपाल का पहले लकवा और उसके बाद ब्रेन स्ट्रोक के कारण राजधानी रायपुर के निजी अस्पताल में निधन हो गया।

छत्तीसगढ़ के लिए करपाल का निधन सबसे बड़ी आदिवासी समाज की छति है। वे लगातार आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत रहते हुए पांचवी अनुसूची के तहत पेसा कानून और नियम को लेकर कार्यरत थे।
उन्होंने आदिवासी संस्कृति को बचाए रखने के लिए निर्मम संघर्ष किया। जितने भी आदिवासी नेता बालोद, दुर्ग, राजनांदगांव, कांकेर, भानुप्रतापपुर में हुए कहना चाहिए करपाल उनके पितामह थे।
उन्होंने आदिवासियों को अपने देह जीवनकाल में लगातार संवैधिानिक, कानूनी और आदिवासी संस्कृति के माध्यम से शिक्षित करते रहे। आदिवासी नई पीढ़ी को एकजुट करने के लिए सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक चेतना की नीतिगत दिशा देकर अभूतपूर्व दूरदृष्टिपूर्ण बदलाव की मजबूत नींव रखने वाले शख्सियत के निधन से समाज को उबरने में काफी समय लगेगा।
ख्यातनाम समाज सेवी, अजातशत्रु, मृदुभाषी, लोकप्रिय हासपेन राधेश्याम करपाल का ननिहाल आवासपारा, गांव चवेला, पोस्ट संबलपुर, भानुप्रतापपुर विधान सभा क्षेत्र के जिला कांकेर में स्थित है।
वह पखांजूर, उत्तर बस्तर में सहायक अभियंता के रूप में छत्तीसगढ़ स्टेट पॉवर डिस्ट्रब्यूशन कंपनी लिमिटेड में कार्यरत थे। शासकीय नौकरी के बावजूद अध्ययन, संघर्ष और आंदोलन का दिशानिर्देशन और न्याय के लिए न्यायालय का लगातार दरवाजा खटखटाया है।
उन्होंने इंजीनियरिंग में कार्य के साथ इंग्लिश साहित्य में पोस्ट गेजु्रएट और विधि में एलएलबी और एलएलएम की पढ़ाई की थी। इससे पूर्व अपने ननिहाल भानुप्रतापपुर से ही उन्होंने हायर सेकण्डरी की पढ़ाई पूरी की थी।
उनके बड़े भाई पुरूषोत्तम कुमार करपाल ने बताया कि राधेश्याम डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर के अनुयायी थे। उन्होंने अपने पीछे दो पत्नि के साथ दो पुत्र को छोड़ गए हैं। एक पुत्र कानून की पढ़ाई कर रहे हैं। उनका जन्म साल 7 जून 1971 को हुआ था। उनके माता का नाम गंगोत्री बाई तथा पिता उदयराम करपाल थे। उदयराम ने अंग्रेजों से गांव टेका ढोरा बसंतपुर, नजदीक ग्राम-धोबनी (अ) में निविदा में खरीदे गए 10 एकड़ जमीन पर अपना पुस्तैनी निवास बनाया है। बताया गया कि यहीं उनका अंतिम संस्कार कार्यक्रम आहूत की जाएगी।
विदित हो कि सूरडोंगर में चमार समाज के व्यक्ति को गांव से सामाजिक बहिष्कृत कर दिया गया था। इस मामले में स्थानीय विधायक के नजर में वह चढ़ चुके थे। इस अन्याय को प्राथमिकता से आवाज देने के लिए उन्हें डराया धमकाया तक गया था। इस मामले को वह न्याय के लिए उच्च न्यायालय में ले गये थे।
इसके अलावा औंधी में स्कूल का नाम डॉ. आम्बेडकर के नाम के लिए संषर्घ किया। आदिवासी क्षेत्रों में हिन्दू संस्कृति के फैलाव पर उन्होंने गंभीरता से काम किया था। पेसा नियम में विसंगतियों को लेकर लगातार संघर्षरत थे।
आदिवासियों को उनकी असलियत का आईना दिखाने के लिए सिविल सेवा आचरण नियम को धुंधलके में रखते हुए उनके मार्गदर्शन में कई आदिवासी साहित्य की रचना की गई थी। उन्होंने ही ‘आदिवासी हिन्दू नहीं’ पुस्तिका का प्रकाशन करवाया था।
इसके अलावा ‘हल्बा हल्बी सीखें’ पुस्तिका का प्रकाशन करवाया था। इस पुस्तक का वर्णमाला की खोज उन्होंने स्वयं की थी। साथ एक और पुस्तक ‘आदिवासियों का संवैधानिक अधिकार’ का प्रकाशन भी उन्होंने किया था। उनका साहित्य बस्तर से लेकर सरगुजा और देश के कोने - कोने तक पहुंच चुका है। उनके द्वारा प्रकाशित ‘आदिवासी हिन्दू नही’ पुस्तक को अपने विक्रय में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।
उन्होंने आदिवासियों की समास्याओं जैसे महिषासुर आदिवासियों का ग्राम देवता, गैर कानूनी गिरफ्तारी, फर्जी मुठभेड़, पेसा कानून, धर्मकोड, ट्राईबल एडव्हासरी बोर्ड में विसंगतियों, वन सुरक्षा कानून, डीएमएफ, सीएसआर और कई महत्वपूर्ण आदिवासी मामलों में राज्यपाल अनुसुईया उईके से मुलाकात कर कई घंटों की लंबी चर्चा का नेतृत्व किया था। इसके लिए हजारों की संख्या में आदिवासी बस्तर से होते हुए राजधानी रायपुर में राजभवन तक पैदल पहुंचे थे। यह एक ऐतिहासिक घटना है जो करपाल के जीवन के साथ जुड़ जाता है।
मोहला मानपुर चौकी के शिक्षक ब्रिजेश कुमार ने बताया कि करपाल बहुजन समाज के जुझारू, कर्मठ योद्धा थे। उन्हें हमने खो दिया। अब वह हमारे बीच नहीं रहे। वह बहुजन एकता के लिए वचनबद्ध रहे। करपाल समाज के बड़े आदिवासी मर्मज्ञ, विधिज्ञ, लेखक, एक मुखर वक्ता थे। आपकी कमी समाज के लिए अपूर्णीय छति है। ब्रिजेश कहते हैं कि लगातार बहुजन योद्धाओं का ऐसे ही चले जाना बहुजन आंदोलन का काला दौर है पता नहीं ये सिलसिला कहां जाकर रुकता है।
दल्लीराजहरा से सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोद कावरे ने बताया कि मैं हतप्रभ हूं। उन्होंने बताया कि डौंडीलोहरा विधान सभा से लेकर कांकेर के भानुप्रतापपुर विधानसभा के बीच उनका एक बड़ा कार्यक्षेत्र था। वह कई आदिवासी और अन्य जननेताओं के पितामह थे। वह कहते हैं कि आज के समय के टॉप मोस्ट ट्राइबल नेता को हमने खो दिया।
सरकारी नौकरी के साथ आंखमिचौली खेलते हुए वह लगातार आदिवासियों के सर्वांगीण उत्थान के लिए कृतसंकल्पित थे। जब आदिवासियों की हित की आवाज उठती करपाल गाइडिंग फोर्स के अगुआ नेता के रूप में कार्य करते नजर आतेे।
करपाल के साथ ‘दक्षिण कोसल’ ने रिपोर्टिंग के दौरान कई मुलाकातें की। लेकिन ठहर कर कभी भी विस्तार से बातचीत का मौका नहीं मिला। वह संविधान के साथ विधि के उच्चकोटि के जानकार थे। वह अक्सर कहा करते थे कि हल्बा हल्बी को आदिवासी सूची से डिलिस्टिंग करने की जरूरत है।
उनका मानना था कि हल्बा - हल्बी आदिवासी नहीं है, हल्बा - हल्बी ने हिन्दू धर्म को अपना लिया है। उन्होंने इस मामले को लेकर पर्चा का प्रकाशन भी करवाया था।
इंसान का जीवन नहीं उसका कार्य विराट होना चाहिए। यह बात तब सही हो जाती है, जब करपाल जैसे योद्धाओं का व्यवहार, विचार, कार्य लोक में व्यापक सार्थक बदलाव लाता है और यह बदलाव समाज में उत्तरोत्तर जीवनदर्शन के रूप में नई पीढिय़ों के बीच आचार, विचार, कार्यों के सुंदर फुटप्रिंट छोड़ जाते हैं, वो सार्थक दिशा, विचार, कार्य के रूप में लोगों में जीवंत बना रहता है। ऐसे ही विराट संघर्षशील जीवन रहा है आदिवासी यौद्ध राधेश्याम करपाल का।
कहा जाना चाहिए कि पेनकरण उपरांत पेनऊर्जा स्वरूप में वे सदैव आदिवासियों का कई पीढिय़ों तक मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनके कहे गए यह शब्द कि अब रिटायरमेंट की बात तो दूर ऐसा आदिवासी बुद्धिजीवी आदिवासी समाज को शायद ही कभी मिल सकेगा?
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19/12/2023
R S MARKO
राधेश्याम करपाल जी को विनम्र पैनांजलि उनके कार्य सदैव समाज का मार्गदर्शन करेंगे, वे सदैव समाज के दिलो में राज करेंगे। आपका उनके जीवन के कार्य संघर्ष का उत्तम चित्रण सराहनीय है।
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