मेरी कहानी मेरी जुबानी
इमोशनल सिक्योरिटी का अभाव और अनिश्चित भविष्य
चारुलेखा मिश्रामानसिक स्वास्थ्य का खराब होना अब आम बात हो गई है। लेकिन आज भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। प्रशासन भी इस पर ध्यान नहीं दे रहा है।

पांच सालों से इस बीमारी से जूझते हुए मैने जो महसूस किया, जाना और समझा है उस विषय पर चर्चा करना बेहद जरूरी लगा।
मैने महसूस किया कि इमोशनल सिक्योरिटी का अभाव और अनिश्चित भविष्य ही इस बीमारी के मुख्य कारण हैं।
इमोशनल सिक्योरिटी यानी माता पिता, दोस्तों, साथियों सहकर्मियों का स्नेह मिल पाना। यह विश्वास कि हमारा साथ देने वाले हमारे साथ मुसीबत में खड़े होने वाले लोग हमारे साथ हैं, बिना किसी शर्त के।
सरकारी नौकरियों और पेंशन ने लोगों का अच्छा भविष्य सुनिश्चित किया था लेकिन लगातार इन नौकरियों में कमी हो रही हैं। निजी कम्पनियों में काम के घंटों की कोई सीमा नहीं है। एक दूसरे से गलाकाटू प्रतिस्पधा सहकर्मियों को आपस में दोस्त नहीं बनने देती। काम के घंटो में वृद्धि पड़ोसियों से भी मित्रता नहीं करने देती।
अब पहले की तरह पड़ोसियों से चीनी चायपत्ती नहीं मांगा जाता। पूंजीवाद ने किसी से हेल्प लेने को शर्म का विषय बना दिया है।
खुद से प्यार करो
खुद पर गर्व करो
पहले खुद को देखो
खुद पर निर्भर रहो
इस तरह के वाक्यों की लोकप्रियता बढऩे लगी है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, हम सब परस्पर निर्भर हैं। यह एक स्वाभाविक सत्य है।
सामंतवादी सोच बुजुर्गों की देखभाल न होने के लिए नई पीढ़ी की आलोचना करवाती तो है लेकिन बुजुर्गों के भविष्य की सुरक्षा का कोई उपाय नहीं देती।
बाजार, लोगों को रुपए के बल पर सब उपलब्ध तो करवा रहा है, लेकिन क्रोनी कैप्टलिज्म में रूपए की कीमत घटती जा रही है। मिनिमम वेजेज नहीं बढ़ रहे हैं। हफ्ते 70 घंटे काम करने की राह बताई जा रही है।
मानसिक शांति देने के नाम पर अध्यात्मिक गुरूओ का भी बाजार जम गया है।
बेहाल जनता सुख की तलाश मे इधर उधर भाग रही है।
जब बाहर कोलाहल हो चीख पुकार मची हो। कमरे में ध्यान नहीं लगाया जा सकता। जिस समाज में बेरोजगार आत्महत्या कर रहे हों, मनुष्यों की सरे आम लांचिंग हो रही हो, स्त्रियों से यौन हिंसा के मामले बढ़ रहे हो... उस समाज में सिर्फ आत्मचिंतन कैसे किया जाएगा!
अंतर्चेतना जो बाहर देख रही है उससे तटस्थ कैसे रह पाएगी।
पड़ोसियों को मार पीट कर चले आने के बाद सुकून की नींद किसी को नहीं आती। डर लगा रहता है कहीं वो बदला लेने न आ जाए। नफरत और डर के माहौल में आत्मिक शांति नहीं पाई जा सकती।
हां डॉक्टरों का, योगियों का, बाबाओं का बाजार खूब चलेगा।
हमने जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर और वर्ग के आधार पर एक दूसरे से दूरी बना ली है, ये दूरियां हमें अकेलेपन की ओर ले जाती हैं।
तो मनुष्यों के बीच पूंजीवाद ने दूरी ही पैदा की थी। धार्मिक और जातिवादी घृणा ने दीवारें खीच दी है। सभी अपनी अपनी दीवारों में कैद हैं।
इस कैद से आजादी ऐसी व्यवस्था दिला सकती है जहां सभी बच्चों को एक जैसी शिक्षा और युवाओं को रोजगार मिले। बुजुर्गों और बच्चों का जीवन सुरक्षित हो।
व्यक्तिगत हित सामूहिक हित पर टिका हो।
जिससे मनुष्यों में आपसी सद्भाव और रिश्ता बना रहे।
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10/12/2023
दिनेश्वर कुमार पटेल
शाश्वत सत्य है मृत्यु। सहनशीलता की परीक्षा हम देते रहेंगे। भौतिकता की अंधी दौड़ इसका कारण है। विकास के नाम पर मशीन कामचोर बना रहा है। घर को जिम बनाना फैशन हो गया है। चिंतन ही चिंता का कारण बन गया, अब मैं करूं क्या??? लेखिका करे क्या??
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