संविधान मेला में बहुजन साहित्य के विक्रय से बवाल, लेखक प्रकाशक पर एफआईआर दर्ज

प्रदर्शनकारियों की नजर संविधान मेला की उस कीमती जमीन पर तो नहीं?

सुशान्त कुमार

 


बताया जाता है इससे पहले भी इस संविधान मेला में ‘राम की कहानी राम की जुबानी’ पुस्तक के विक्रय को लेकर बवाल उत्पन्न हुआ था। भावनाएं आहत होने की यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे भी बहुत पहले ‘देवी दुर्गा’ का तथाकथित अपमान के आरोप में फरवरी 2016 में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के एक कसबे मानपुर के निवासी व्यवसायी विवेक कुमार के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था और उनकी गिरफ्तारी हुई थी।

उससे पहले रायपुर सामाजिक न्याय मंच के सक्रिय कार्यकर्ता भारत कुर्रे की भी गिरफ्तारी दुर्गा के अपमान के आरोप में हो चुकी है। इसी राज्य के कांकेर जिले में 28 सितंबर 2017 को एक ऐतिहासिक घटना घटित हुई थी। इस दिन वहां देश में पहली बार दुर्गा द्वारा आदिवासी-बहुजन नायक महिषासुर का मर्दन दिखाने वाले दुर्गा पूजा आयोजकों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज  कराई गई थी। 

यह शिकायत कांकेर जिले के पखांजूर निवासी भाजपा नेता लोकेश सोरी ने दर्ज करवाई थी। लोकेश भारतीय जनता पार्टी से जुड़े थे तथा क्षेत्र में उनके समर्थकों की संख्या अच्छी-खासी है। इस कारण पुलिस पर दुर्गा पूजा आयोजकों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बनने लगा था। लेकिन, 28 सितंबर की शाम ढलने से पूर्व यह सूचना वहां से बाहर निकली और देर रात तक रायपुर में मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर नागपुर के आरएसएस मुख्यालय तक के टेलीफोन के तार झनझनाते रहे। छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक गद्दी पर काबिज इस संगठन के लोग सक्रिय हुए और जैसी कि उम्मीद थी, जन-दबाव के बावजूद कांकेर पुलिस को लोकेश सोरी द्वारा दर्ज करवाई गई शिकायत को एफआईआर में तब्दील होने से रोक दिया गया।

उलटे लोकेश सोरी पर ही एक एफआईआर दर्ज की गई। शिकायतकर्ताओं का कहना था कि उन्होंने एक व्हाट्स एप गु्रप में एक संदेश भेजा है, जिससे हिंदू देवी दुर्गा का अपमान होता है और  द्विज हिंदुओं की भावनाएं आहत होती हैं। पुलिस ने इस एफआईआर पर त्वरित कार्रवाई की। लोकेश सोरी को 29 सितंबर, 2017 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। करीब डेढ़ महीने बाद न्यायालय से उन्हें जमानत मिली। लेकिन जब वे जेल से बाहर आए, तो उनका मामूली-सा साइनस कैंसर के नासूर में तब्दील हो चुका था।

लेकिन मुकदमों का सिलसिला एकतरफा भी नहीं है। विवेक कुमार की गिरफ्तारी के लिए मानपुर बंद के दौरान हुए प्रदर्शन में मनुवादियों द्वारा आदिवासियों और महिषासुर को गालियां देना मंहगा पड़ा था। आदिवासी संगठनों ने उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया, जिसके अभियुक्तों की अग्रिम जमानत याचिका हाईकोर्ट से खारिज हो चुकी है, और वे फरार हैं। हालांकि आदिवासी नेताओं का आरोप है कि राज्य की भाजपा सरकार के तथाकथित दवाब में पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार नहीं किया है। उक्त प्रदर्शन में नारे लगाये गये थे, ‘महिषासुर के औलादों को, जूते मारो सालों को’।

क्या है भिलाई नगर संविधान मेला में मचे बवाल की कहानी

हाल के 26 नवम्बर के दिन छत्तीसगढ़ बजरंग दल के विभाग संयोजक रवि निगम के नेतृत्व में सुपेला थाना में प्रदर्शन एवं घेराव किया गया। बजरंग दल का कहना है कि कोसा नाला के पास रेलवे की जमीन से लगे रिक्त भूमि पर आयोजित संविधान मेले में खुले आम स्टाल लगा कर हिंदू धर्म को आहत कर हिदूत्व के विरुद्ध आपत्तिजनक किताबों को बेचा जा रहा था जिसका मूल उद्देश्य हिंदू धार्मिक उन्माद भडक़ाना रहा  है।

बजरंगियों को जब यह भनक लगी तो तत्काल विरोध प्रदर्शन किया गया। इस पर पुलिस प्रशासन के कार्यवाही के विलंब होने पर बजरंगी थाने पर ही भडक़ गए और प्रदर्शन और नारेबाजी करने लगे तब भारी दबाव के बीच सीएसपी साहब ने खुद संज्ञान लेकर एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया तब बजरंगी शांत हुए। लगभग 3 घंटे तक थाना परिसर में गहमागहमी का वातावरण बना रहा थाना प्रभारी की भूमिका से सभी बजरंगी नाराज होकर जमकर नारेबाजी किए।

भारी मशक्कत और दबाव के बाद सीएसपी साहब के द्वारा 295ए के तहत कार्यवाही की गई। ‘दक्षिण कोसल’ से बात करते हुए रवि निगम ने प्रशासन को चेताया कि अगर आगे ऐसे हुआ तो बक्शा नही जायेगा, ज्योति शर्मा ने सीधे चुनौती देते हुए कहा कि सभी बजरंगी भाई हिंदुत्व पर हुए आघात पर कुछ भी करने को तैयार बैठे हैं। ईश्वर गुप्ता कुशल तिवारी, रितिक सोनी, अनिल बेहरा, प्रखंड अध्यक्ष सुपेला कौशल यादव करण सोनी शिव सोनी कैंप प्रखंड मंत्री दीपक कुलकर्णी, मनीष पिपरोल, तुषार देवांगन, चिरंजीव, अंकित, राजू, थानेश्वर, शिदु, शुदाम, आशीष, गोविंद, श्रीजल, योगेश, सोनू, मंयक,मोनटू, आकाश, आलोक, सागर, दिपक, राकेश यादव तिलक,दिनेश ,राजू  आदि सैकड़ों की संख्या में कार्यकर्ता उपस्थित थे।

खबर है कि ‘प्रदूषित रामायण’ पुस्तक के लेखक ‘श्रीकांत शेट्ये’ और उसके प्रकाशक बांधवा प्रकाशन, पुणे, महाराष्ट्र पर सुपेला पुलिस ने भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 295 ए के तहत एफआईआर दर्ज कर लिया है। उसके बाद आयोजन समिति ने इस बवाल पर ऐसे सारे पुस्तकों को वहां लगे स्टॉल से हटवा दिया और कहा है कि भविष्य में बहुजन साहित्य के विक्रय से पहले यहां सभी पुस्तकों का परीक्षण कर विक्रय की अनुमति दी जाएगी।

स्टाल में एक पुस्तक कांचा आइलैय्या शेपर्ड की पुस्तक ‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर’ 

फारवर्ड प्रेस ने लेखक द्वारिका भारती के द्वारा इस पुस्तक के संदर्भ में प्रकाशित किया है कि भारतीय समाज आज जिस राजनैतिक मंच द्वारा निर्देशित किया जा रहा है, वह कहीं से भी यह अहसास नहीं होने दे रहा है कि पौराणिक-ग्रंथियों में अब ताजा रक्त प्रवाहित नहीं हो सकता। इसके लिए नए वैचारिक-आधारों की आवश्यकता है। वर्तमान राजनैतिक मंच यह भलीभांति जानते हुए भी कि नए भारत को नए रक्त की आवश्यकता है, पौराणिक-मुहावरों में ही अपनी सत्ता के रास्ते तलाशने की प्रक्रिया में दिखाई दे रहा है। हैरानी तब होती है जब हिंदू धर्म के ध्वजवाहक हिंदू धर्म को ही इस देश का एकमात्र सनातन व अक्षुण्ण धर्म मानकर तमाम प्रकार की व्याख्याएं गढ़ते हुए देखे जाते हैं।

 

 

संदर्भ में हम एक हिंदू विद्वान डॉ. एस. राधाकृष्णन की पुस्तक ‘रिलिजन एंड सोसायटी’ (1947) में उन विचारों को देख सकते हैं, जो उन्होंने भारत के बारे में व्यक्त किया है। इसका उद्धरण डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ने पांच खंडों में लिखी अपनी पुस्तक ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में इस प्रकार दिया है-इस विश्व में जितनी संस्कृतियां एवं सभ्यताएं उत्पन्न एवं विकसित हुईं, उनमें केवल दो (भारतीय एवं चीनी) ही ऐसी हैं, जो पार्थियन (फारस वालों), यूनानियों, सिथियनों, हूणों, तुर्कों के बार-बार के बाहरी आक्रमणों तथा आंतरिक संघर्षों एवं संसोमों [उथल-पुथल] के रहते हुए भी चार-सहस्र (यदि और अधिक नहीं) वर्षों से अब तक जीवित रहीं हैं और अपनी परंपराएं अक्षुण्ण रख सकी हैं।’

लेख में आगे बताया गया है कि उपरी सतह से देखने पर भारतीय समाज मंथर गति से चलने वाला ऐसा समाज प्रतीत होता है, जो कल-कल बहती नदी सरीखा बह रहा हो। लेकिन इसकी भीतरी सरंचना को देखते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं, तो यही समाज एक रूई के फाहे-सा इधर-उधर भटकता हुआ अजूबा नजर आएगा। प्रसिद्ध साहित्यकार चक्रधर शर्मा गुलेरी के शब्दों में हिंदू धर्म एक ‘कछुआ धर्म’ बन गया है। अर्थात, लोगों से अलग-थलग रहना, किसी को छू जाने से छुईमुई की तरह बचना, अपने ही समाज के लोगों को अछूत बनाना, उनकी बस्तियां गांव से बाहर बनाना, उन्हें धर्मस्थलों में प्रवेश से रोकना, वेद सुन लेने पर उनके कानों में पिघलती हुई लाह डालना आदि धर्म बन गया।

भारती लिखते हैं कि हिंदू धर्म के भीतरी मचलती हुई वैचारिक-गंदगी को बहुत से विद्वान पुरुषों ने समय-समय पर खूब खंगाला है और इसको शर्मसार होने की स्थिति तक पहुंचाया भी है। यदि हम आरंभ से इस पर बात शुरू करें तो हम पाएंगे कि प्राचीन भारत में लोकायतों से लेकर जैन, बुद्ध की परंपरा से होकर, पेरियार के तीखे आक्रमण को झेलता हुआ यह धर्म डॉ. आंबेडकर के तीखे आलोचनात्मक प्रहारों से छलनी होता रहा है। कुछ लोग यह प्रश्न उठा सकते हैं कि इतने आलोचनात्मक प्रहारों से बच कर भी यह धर्म अब तक जीवित क्यों बना हुआ है? इसके भीतर की सरंचना को लकवा क्यों नहीं मार रहा? यह प्रश्न सचमुच विचारणीय है। 

भारती का कहना है कि इसी प्रकार के प्रश्नों को लेखक कांचा आइलैय्या शेपर्ड की पुस्तक ‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर’ खंगालती है। हम इस 414 पृष्ठों वाली पुस्तक के रचयिता के जीवन संघर्ष की जानकारी प्राप्त कर लें तो हमें इस रचना को समझने में ज्यादा आसानी रहेगी। राजनीतिक विज्ञानी और वर्तमान में भारत के प्रमुख और प्रभावशाली दलित-बहुजन हस्ताक्षरों में प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड ऐसी कई पुस्तकों के लेखक हैं, जो हमारा ध्यान खींचती रही हैं।

38 वर्षों तक अध्यापन के बाद उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से एक प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त होते हैं। मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय हैदराबाद के ‘सामाजिक बहिष्कार व समावेशी नीति अध्ययन केन्द्र’ के पूर्व निदेशक हैं। माना जा सकता है कि यह लेखक सामाजिक मुद्दों व धार्मिक परंपराओं के गहन जानकार हैं। वे सिर्फ कुर्सी पर बैठे हुए एक लेखक ही नहीं, समाज पर गहरी दृष्टि रखने वाले तेजतर्रार बुद्धिवादी भी हैं। 

कहा जाता है कि जो ज्ञान हमें उठते नए प्रश्नों की ओर नहीं ले जाता, वह जल्दी मृत हो जाता है। कांचा आइलैय्या शेपर्ड की यह पुस्तक जिन प्रश्नों को जन्म देती हैं, वे एकदम नए तो नहीं हैं, लेकिन इस दौर के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न माने जा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि यह प्रश्न अब ही उठाए जा रहे हैं, सदियों से इस पर बात होती रही है। मध्यकालीन संत परंपरा इन प्रश्नों के साथ ही आगे बढ़ती हुई देखी जाती है। लेकिन हम इसके साथ यह भी कहना चाहेंगे कि इस संत परंपरा के स्वर कभी भी एक सांस्कृतिक-आंदोलन के रूप में व्याख्यायित होते हुए नहीं देखे गए हैं। इसका स्वरूप वैचारिक क्रांति से कभी जुड़ता हुआ नहीं देखा गया। इस संदर्भ में हम डॉ. आंबेडकर की टिप्पणियों को देख सकते हैं।

पुस्तक पर मचे बवाल पर प्रबुद्धजनों की प्रतिक्रिया

बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता गंगा प्रसाद राउत ने कहा है कि उस किताब में कुछ गलत लिखा है और उन लोगों ने बोला है तो सारे उन वेद, शास्त्र और पुराणों में बहुजनों के संदर्भ में गलत ही लिखा है। हम यह कहे कि सारे दुकानों में से उनकी किताबे हटा दी जाए। रामायण महाभारत सारे शूद्रों का अपमान किया है। सारे किताबों पर शुद्र समाज द्वारा बैन मारने की कोशिश करें। लक्ष्मण यादव ने कहा कि 300 प्रकार की रामायण हैं हम किसमें भरोसा करें? साइंस जर्नी में छठ पूजा के संदर्भ में सबकुछ आहत कर देती है। तुम्हारे खिलाफ एक बोले तो बुरा और तुमने हमारे कौम के बारे में जो कुछ बोला है उसे हमने भोगा है। हमारी जिंदगी धर्मशास्त्र के किताबों के माध्यम से बदतर करके रख दिया है। आज भी किसी का घोड़ी में बैठने से इतराज है। हम क्यों बर्दाश्त करें?

पूर्व डिप्टी कलक्टर विश्वास मेश्राम इस मामले के गंभीरता पर कहते हैं कि मेरा मानना यह है पुस्तकों के बारे में कि जब तक हम पढ़े नहीं तो जानेंगे कैसे? दूसरा यह बौद्धिक काम होता है। यह सृजन है और आपके जो विचार हैं उसे आप उसमें उसे लिखते हैं। कोई लेख होता है तो उसमें आप व्यवस्थित करके कागज में उतारते हैं। और यह जो सृजन का काम है जरूरी नहीं है कि सब उससे सहमत हो। तरीका यह होती है कि कोई बात आपको गलत लगे तो कोई एक किताब लिख लें या उसकी समीक्षा लिखें। इसमें क्या गलत लिखा है उस पर लिखें और उस पर बहस करें। मेश्राम कहते हैं कि कई पुस्तकें बैन हुई अंग्रेजों ने कई किताबों को बैन किया। लोगों को कोर्ट का सहारा लेना पड़ा था अपनी बात रखने के लिए।

कोई बात पसंद नहीं आई तो कमेंट करिये और अपने विचारों को विचारित करें। जैसे राहुल सांस्कृत्ययन ने किताब लिखी 'मार्क्सवाद और रामराज्य', करपात्री के विचारों का खंडन किया। ऐसे बहुत सारे काम लोगों ने की है। हमारे बुद्धिजीवियों ने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं उसके अपने - अपने तर्क हैं। यदि कोई कोर्ट में चैलेंज करता है तो कोर्ट उसकी सुनवाई करता है। ललई सिंह की ‘सच्ची रामायण’ को बरी कर दिया गया और किताब ओपन हो गई और किताब बिक रही है। उस तरीके से लेना चाहिए एक बौद्धिक प्रतिक्रिया के तौर पर। उनमें जो तर्क दिए हैं उसका खंडन कर सकते हैं। 

इस घटना से आहत सामाजिक कार्यकर्ता कन्हैयालाल खोब्रागढ़े दक्षिण कोसल से कहते हैं कि संविधान मेला जो सुपेला में लगाया जाता है वह 26 नवंबर 1990 से लगाया जा रहा है। पहले आयोजन में हिन्दी के विद्वान और बौद्ध साहित्यकार डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन वहां पहुंचे थे। इससे पहले शिवनाथ नदी के तट पर समस्त बौद्ध और आंबेडकर अनुयायियों को इकत्र करने के लिए उनमें भाईचारा बनाने के लिए मेला लगाया जाता था। इसके आयोजनकर्ता भीमराव खोब्रागढ़े और साथी थे। संविधान मेला में पहुंच कर जिन तत्वों ने जिन साहित्यों को देखा जिसमें ‘प्रदूषित रामायण’ में उन लोगों को आपत्ति हुई। और उन लोगों ने कहा कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिए साहित्य बेचा जा रहा है। इस बात को लेकर लेखक के खिलाफ में एफआईआर दर्ज किया। 

 

 

व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करना किसी व्यक्ति के अधिकार में आ सकता है लेकिन सही निर्णय न्यायालय करेगी। लेकिन कुछ लोगों का इरादा रेलवे की जमीन पर है, जो संविधान का मेला लग रहा है वह जमीन काफी कीमती है। और अन्य धर्मावलंबियों की उस पर नजर लगी है। ऐसा लगता है कि वह मेला बाधित हो इसलिए भी विवाद खड़ा किया जा रहा है। इन विवाद खड़ा करने वालों को डॉ. बाबा साहब आंबेडकर का ‘रिडल्स ऑफ रामा कृष्णा’ पढऩा चाहिए।

क्योंकि इस पुस्तक के बाबा साहेब लेखक हैं और प्रकाशन भारत सरकार ने किया है। पेरियार साहब ने सच्ची रामायण लिखी ‘सच्ची रामायण’ को भी शिकायतकर्ताओं को पढऩा चाहिए। लोग किसी साहित्य पर बवंडर करते हैं, इस तरह किसी समाज पर दबाव बनाना स्वार्थ सिद्ध करना ही है ऐसा मैं समझता हूं। भाऊसाहेब खोब्रागढ़े और उनके मित्र बंसोड़े जी और भीमराव वाहने के साथ मैंने ऐसे अनेक नाम राजनांदगांव से भातखेड़े जी, अमृतराव  मेश्राम जी, आनंद राव मेश्राम जी और भिलाई के लोगों ने इस मेले को प्रारंभ किया है। 

खोब्रागढ़े ने बताया कि मेले में पुस्तकें बिकने आती है और उसी मेले में एक पुस्तक गोलवरकर की 'विचार नवनीत' (बंच ऑफ थॉट) में उन्होंने शूद्रों पर प्रहार किया है और बताते चले कि शुद्रों ने सिर्फ बात को वैचारिक रखा है। ओ कहीं बाधा नहीं पहुंचाते हैं। लोग कहते हैं कि हम हिन्दू हैं तो एक हिंदू दूसरे हिंदू को नीचा दिखाते हुए हुए क्यों साहित्य की रचना करता है। मैं चाहता हूं कि जितने भी धार्मिक ग्रंथ हैं उस पर प्रतिबंध लगाये जाए और न्यायालय द्वारा रोक लगे। 

चर्चित बहुजन साहित्य के विक्रेता और सामाजिक कार्यकर्ता संजीत बर्मन ने कहा है कि ‘मैं तो किताब को पढ़ा नहीं हूं लेकिन किताब एक विचार होता है जिस तरह से हिन्दू धर्म में ढोल, ग्वांर, पशु, शुद्र नारी ये सब तारण के अधिकारी और तेली समाज के खिलाफ अभद्र तथा अपमानजनक टिप्पणी लिखा गया है अगर कल की जो घटना हुई है और उस पर एफआईआर दर्ज करवाया गया है तो निश्चित रूप से रामायण लिखने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।

एक पक्षीय कार्रवाई सही नहीं है और जो ज्योति शर्मा हैं उसको कांग्रेस के सरकार में संरक्षण देकर उनके मनोबल को बढ़ाने का काम कर रही है। जो जाति धर्म को टारगेट करके चाहे वह दलित हो या ओबीसी मसीही जनों के कार्यक्रमों में इस तरह जाना और कार्यक्रम में मारपीट करना और वीडियो को वायरल करना यह अपना परंपरा बना चुकी है इसे रोका जाना चाहिए। यह उचित नहीं है। उनका कृत्य लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। 

सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोद कावरे कहते हैं कि हम जिस धर्म में होते हैं उन्हें यह अधिकार होता है कि धर्म के खिलाफ भी बोले। अगर मैं जिस घर में रहता हूं तो मुझे अधिकार होगा ना कि घर में गलत के खिलाफ बोलूं। दूसरी बात यह कि ओ लोग सभी लोगों को हिन्दू मानते हैं और जिन लोगों के खिलाफ किताब लिखी जाती है और बदनाम किया जाता है अपर कास्ट के लोगों द्वारा उसका एक पहलू यह है कि जो गलत लिखा है उसको एक्सपोज करना चाहिए। तीसरा पहलू यह कि यदि किसी धर्म के अंदर बुराई है तो बुराई को हटाने का प्रयास निरंतर होते रहना चाहिए। चाहे किसी भगवान देवता या ईस्ट ने किया हो... इसके बहुत सारे उदाहरण हैं देवदासी प्रथा सती प्रथा।

जो किताब वहां है और उस पर कार्रवाई हुई है तो मुझे नहीं लगता कि अच्छा हुआ है। आप चाहोगे कि बैन कर दिया जाए पहले यह तो देखा जाना चाहिए कि न्यायालय का फैसला आए। सबको मालूम है कि हिन्दू धर्म बुराईयों का घर है। अगर कोई व्यक्ति देवी देवता के ऊपर लिखता है तो उसका अधिकार है कि वह लिखे। लोकतंत्र है तो बेहतर यह होगा कि न्यायालय में जाना चाहिए। होना यह कि एफआईआर व्यक्ति पर ना होकर कर कोर्ट में मामला जाना चाहिए। कोई भी किसी पर भी लिख दे तो गलत हो जाएगा ना और फैसला कोर्ट को करने देना चाहिए। एफआईआर कोई बुरी चीज नहीं है अगर बुराई है तो वह भी खुलकर आ जाएगी और अच्छाई होगी तो वह भी सामने आ जाएगी। 

जाने माने शिक्षक शशि गनवीर कहते हैं कि देखना यह है कि किताब बैन है कि नहीं अगर बैन नहीं है तो किताब बिक सकती है इसमें क्या दिक्कत है। यह तो सरकार का काम है बजरंग दल वाले उसमें क्यों बीच में पड़ रहे हैं। अगर विरूद्ध था तो पुलिस में रिपोर्ट करें और पुलिस उस पर कार्रवाई करेगी। सवाल यह कि अगर पुस्तक में बैन नहीं है तो कार्रवाई का सवाल नहीं उठता है। हर एक समाज और विचार वाले व्यक्ति को खुला समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए और सब चीजों को जानकर सम्मिलित नतीजे में पहुंच सके कि क्या चीज सही हैं और क्या चीज गलत है। बैन है या नहीं यह अलग बात है लेकिन जबतक पुस्तक पर चर्चा नहीं होगी तो समाज एक दूसरे के साथ सामंजस्य कैसे बैठा पाएगा? 

आयोजन समिति के प्रमुख और बौद्ध कल्याण समिति भिलाई के अध्यक्ष बालेश्वर चौरे ने बताया कि संविधान मेला का यह 34वां साल था। नागपुर से पुस्तक लेकर आते हैं। हमें जब जानकारी हुई हमने छानबिन किया। यह छत्तीसगढ़ है यहां शांतिपूर्ण माहौल में संविधान दिवस मनाते हैं। अगर किसी पुस्तक से किसी की भावना आहत हो रही है तो वह गलत चीज है। और तत्काल संज्ञान में लेकन सभी स्टालों में जाकर पुस्तक चेक किया। स्टाल में वह पुस्तक नहीं था। पुलिस वालों के साथ मिलकर भी चेक किया और कोई पुस्तक ना बचें जिससे किसी की धार्मिक भावना को ठेंस पहुंचे।

सीएसपी ने हमको बुलाया था एफआईआर करेंगे तो हमने कहा जो प्रकाशक है प्रकाशक के ऊपर एफआईआर दर्ज करें जिन्होंने पुस्तक लिखा है बिल्कुल उनके ऊपर एफआईआर कीजिए। उसमें हमें क्या आपत्ति है। और किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह बहुजन समाज का आयोजन है जिसमें एसटी एससी और ओबीसी के लोग आते हैं यह उनका आयोजन है। 

अब आते हैं कुछ किताबों में लगे प्रतिबंध और कोर्ट के फैसला -

आंबेडकर की किताब पर प्रतिबंध को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला। आंबेडकर के भाषणों के हिंदी अनुवाद के संकलन ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ को उत्तर प्रदेश सरकार ने 26 अगस्त 1970 को जब्त करने का आदेश दिया था। किताब के प्रकाशकों जिनमें एक ललई सिंह यादव भी थे, ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी। न्यायालय ने सरकार के फैसले को गलत करार दिया।

 

 

इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ August 8, 2019

(26 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. आंबेडकर के भाषणों के पुस्तकाकार संकलन ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ को जब्त करने का अदेश दिया था। इसके प्रकाशक आर.एन. शास्त्री तथा डॉ. भीमराव आंबेडकर साहित्य समिति के अध्यक्ष, ललई सिंह यादव थे। इन दोनों ने सरकारी आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी।

कोर्ट में डब्ल्यू.बू्रम,वाई.नंदन, एस मलिक की खंडपीठ ने सरकारी आदेश को अनुचित करार दिया और निरस्त करने का न्यायादेश दिया। साथ ही खंडपीठ ने राज्य सरकार पर 300 रुपए का जुर्माना भी लगाया।

कोर्ट के न्यायाधीशों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को मानव समुदाय की विकास यात्रा के साथ जोडक़र देखा और व्यक्ति एवं समाज की प्रगति के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में रेखांकित किया। निम्नांकित हाई कोर्ट के अंग्रेजी में दिए गए फैसले के प्रासंगिक अंशों का अनुवाद है।)

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का हिन्दी अनुवाद
इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ
याचिकाकर्ता - ललई सिंह यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार

निर्णय - 1977  सीआरआईएलजे  1773
निर्णय की तारीख - 14 मई, 1971
पूर्ण पीठ - डब्ल्यू.ब्रूम, वाई. नंदन, एस मलिक 
निर्णय - डब्ल्यू ब्रूम जे. द्वारा

1. यह दंड प्रक्रिया संहिता, धारा 99-बी के तहत एक प्रार्थना-पत्र है, जिसमें 26.8.1970  को राज्य सरकार द्वारा ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’  नामक पुस्तक को जब्त करने के आदेश (12-9 '970 के उत्तर प्रदेश सरकार के राजपत्र में प्रकाशित) को रद्द करने के लिए (याचिकाकर्ता द्वारा) भेजा गया है। यह [‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’] पुस्तक दिवंगत डॉ. आंबेडकर द्वारा दिए गए भाषणों का हिंदी संकलन है, जिनमें उन्होंने अनुसूचित जातियों से हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाकर जातिगत उत्पीडऩ की बेडिय़ों को उतार फेंकने का आग्रह किया था। यह प्रार्थना-पत्र जब्त की गयी पुस्तक के प्रकाशक, आर.एन. शास्त्री तथा डॉ. भीमराव आंबेडकर साहित्य समिति के अध्यक्ष, ललई सिंह यादव द्वारा भेजा गया है।

विवाद में आयी इस अधिसूचना में पुस्तक के 24 वाक्यांशों का हवाला दिया गया है और इनके आधार पर कहा गया है कि ‘यह किताब ‘धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर सामाजिक अशांति या विद्वेष की भावना फैलाती है, विभिन्न धार्मिक और जातीय समुदायों के बीच नफरत की भावना को बढ़ावा देती हैं या फिर देने की कोशिश करती हैं। इस आरोप में यह भी कहा गया है कि ये अंश वर्ग-विशेष के धर्म या उसकी धार्मिक मान्यताओं को भी ठेस पहुंचाते हैं या पहुंचाने की कोशिश करते हैं।’ अत: इस पुस्तक के प्रकाशन को भारतीय दंड संहिता की धारा 153-ए और 295-ए के तहत दंडनीय माना जाए।

2. यह प्रार्थना - पत्र धारा 99-बी के तहत जारी विवादित अधिसूचना के दो महीने के अंतराल की समाप्ति के बाद, दिनांक 4 - 12 - 1970 को दायर किया गया था। अत: इसको लेकर आपत्ति जताई गयी है कि यह प्रार्थना-पत्र निर्धारित समय के अंतर्गत दायर नहीं हुआ है। फिर भी, इस सम्बन्ध में दायर, परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत प्रार्थना-पत्र में किये गए दावों पर विचार करने के बाद, हम इस विलम्ब के लिए दिए गए कारणों से संतुष्ट हैं और इसलिए इसे माफ करना उचित समझते हैं।

ललई सिंह यादव (आवेदक संख्या - 1) को पुस्तक की जब्ती की जानकारी दिनांक 22 - 10 - 1970  को ‘नॉर्दर्न इंडिया’ पत्रिका में छपी एक खबर से मिली, जिसमें दिनांक 21 - 10 - 1970  के एक आधिकारिक प्रेस नोट का हवाला देते हुए रिपोर्ट किया गया था कि उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ नामक पुस्तक को जब्त कर लिया है।

इससे आवेदक ने निष्कर्ष निकाला कि ज़ब्ती के आदेश से संबंधित अधिसूचना दिनांक 21 - 10 - 1970 या उससे कुछ समय पहले आधिकारिक गजट में प्रकाशित हुई होगी; लेकिन काफी खोज-बीन करने के बाद भी वे अधिसूचना का पता लगाने में असमर्थ रहे (जो वास्तव में दिनांक 12 - 9 - 1970  को प्रकाशित की गयी थी।)

उनके पास जब्त की गयी पुस्तक की कोई प्रति नहीं थी और चूंकि पुस्तक के प्रकाशक  (दूसरे प्रार्थी, आर.एन. शास्त्री) दक्षिण भारत के एक दौरे पर थे,  इसीलिए वे उनसे  15 - 11 - 1970 से पहले संपर्क नहीं कर पाए। इसके बाद उन्होंने लखनऊ जाकर सचिवालय में छान-बीन की और अंतत:, 2 - 12 - 1970 को अधिसूचना के बारे में सही जानकारी प्राप्त की।

दो दिन बाद, इस प्रार्थना-पत्र को न्यायालय में दायर किया गया। राज्य की ओर से उपस्थित वकील यह स्वीकार करते हैं कि परिसीमा अधिनियम की धारा 29 (2) के प्रावधानों के मद्देनजर, इस अधिनियम की धारा 5  दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 99 -बी के तहत दायर प्रार्थना-पत्रों पर लागू होता है। अत: हमें इस बात की संतुष्टि है कि चूंकि प्रार्थियों के पास निर्धारित समय के अंतर्गत अपना प्रार्थना-पत्र दायर न कर पाने के पर्याप्त कारण हैं,  इसीलिए वे धारा 5 का लाभ उठा पाएंगे।

3. इस केस की विशेषता पर ध्यान देते हुए, हम सबसे पहले धारा 99-ए के प्रावधानों पर एक नजऱ डाल सकते हैं, जिसके तहत राज्य सरकार ने पुस्तक को ज़ब्त करने का आदेश दिया है। यह धारा राज्य सरकार को किसी ऐसी पुस्तक के संबंध में इस तरह का आदेश पारित करने का अधिकार देता है, जिसमें निम्न तत्व शामिल हों -

[ऐसी कोई भी सामग्री, जो राजद्रोह के लिए उकसाती हो, या फिर भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या नफरत की भावना को बढ़ावा देने या देने की मंशा से लिखी गयी हो, या जो जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से किसी वर्ग-विशेष के धर्म या धार्मिक मान्यताओं को अपमानित करते हुए उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के इरादे से लिखी गयी हो। अर्थात, किसी भी ऐसी पाठ्य सामग्री का प्रकाशन, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए या धारा 153-ए,  या फिर धारा 295-ए के तहत दंडनीय हो।]

 

 

प्रस्तुत केस में हमारा राजद्रोह से कोई सरोकार नहीं है। (धारा 124-ए, आईपीजी) यहाँ केवल उन आपराधिक मामलों के साथ इस केस की तुलना की जाएगी जो धारा 153-ए और 295-ए आईपीसी के तहत दंडनीय हैं। इन धाराओं के प्रासंगिक अंश निम्नांकित हैं -


[153-ए (1). जो कोई भी उक्त या लिखित शब्दों के द्वारा, या संकेतों या फिर प्रत्यक्ष निरूपण या अन्य किसी माध्यम से, धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास-स्थान भाषा, वर्ण या समुदाय या किसी भी अन्य आधार पर, विभिन्न धार्मिक, जातिगत, भाषागत, क्षेत्रीय समूहों, जातियों या फिर समुदायों के बीच सामाजिक अशांति या विद्वेष की भावना या वैमनस्य को बढ़ावा देगा या देने का प्रयास करेगा, उसे जेल की सजा दी जाएगी, जो पांच साल तक की हो सकती है और उसे जुर्माना भी देना होगा।295-ए. जो कोई भी उक्त या लिखित शब्दों, संकेतों या फिर प्रत्यक्ष निरूपण अथवा अन्य किसी भी माध्यम के द्वारा भारत के नागरिकों के किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को जान-बूझकर ठेस पहुंचाने की दुर्भावनापूर्ण मंशा से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यता का अपमान करता है या करने का प्रयास करता है, उसे या तो तीन साल तक की जेल की सजा दी जाएगी, या फिर उसे जुर्माना देना होगा, या फिर उसे दोनों दंड दिए जा सकते हैं।]

4. जिस पुस्तक पर हम चर्चा कर रहे हैं, उसकी जब्ती के आदेश को न्यायसंगत ठहराने के लिए, इस बात की जांच करनी जरूरी है कि क्या यह पुस्तक शूद्रों तथा हरिजनों एवं उच्च जाति के हिन्दुओं के बीच अशांति, शत्रुता, घृणा या वैमनस्य का प्रचार करती है? क्या यह जान-बूझकर दुर्भावनापूर्ण तरीके से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाती है और उनके धर्म का अपमान करती है?  इस पुस्तक को आंकते हुए,  हमें उसके मूल उद्देश्य को ध्यान में रखना होगा। इस पुस्तक का प्रयोजन अनुसूचित जातियों का ध्यान हिंदू धर्म की उन ब्राह्मणवादी प्रथाओं और रीति-रिवाजों की तरफ आकृष्ट करना है, जो उनके ऊपर अन्यायपूर्ण तरीके से थोपकर उन्हें अक्षम तथा अयोग्य बताया गया था।

लिहाजा, इस पुस्तक के जरिये उनसे हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाने का आग्रह किया गया है। धार्मिक सिद्धांतों की तर्कसंगत आलोचना, जो संयमित भाषा में लिखी गई हो,  दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 153 -ए या धारा 195 ए के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आएगी। साथ ही, अस्पृश्यता को स्थापित करने और निचली जातियों के प्रति निंदनीय व्यवहार की स्वीकृति देने के लिए हिंदू धर्म की आलोचना को हाल के वर्षों में पूरी तरह से वैध माना गया है। यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी इसको अपना समर्थन दिया था।

5. अब हम जब्त पुस्तक के उन विशिष्ट अंशों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं जिनके आधार पर यह दावा किया गया है कि यह अशांति को बढ़ावा देती है और उच्च एवं निम्न जातियों के बीच नफरत और वैमनस्य को बढ़ावा देने के साथ-साथ हिन्दू धर्म का अपमान भी करती है। यदि पुस्तक पर एक सरसरी नजर भी डाली जाए तो यह पता चल जाता है कि इसमें से कई अंश तर्कसंगत आलोचना की कसौटी पर खरे उतरते हैं और जिस रूप में इन्हें प्रस्तुत किया गया है, उसके प्रति कोई भी सामान्य भावनाओं से लैस, विवेकी व्यक्ति इन पर आपत्ति नहीं जता सकता। वे महज उन कठोर नियमों की ओर इंगित करते हैं जो जाति - व्यवस्था के आधार पर निर्मित, एक अपरिवर्तनीय सामाजिक पदानुक्रम में निचली मानी जाने वाली जातियों पर थोपे गए थे और उन्हें अक्षम तथा अयोग्य बताया गया था।

आलोचना के ये अंश उच्च जातियों का उनसे निचली जातियों के प्रति अहंकार और उपेक्षा भाव को भी दर्शाते हैं। इस संदर्भ में,  हम पुस्तक के उन अंशों में ऐसा कोई भी आपत्तिजनक उल्लेख नहीं पाते हैं जिसमें यह बताया गया हो कि हिंदू धर्म विकृत है, हिंदुओं में सहानुभूति,  समानता और स्वतंत्रता का अभाव है,  हिंदू धर्म में मानवता के लिए कोई जगह नहीं है और हिंदू धर्म में व्यक्ति की प्रगति असंभव है। तर्क प्रस्तुत करने के इस क्रम में इन बयानों को लेकर भी कोई घोर आपत्ति नहीं जताई जा सकती कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का आधार है, कि ब्राह्मणवाद ‘जन्म से हमारा दुश्मन है’ और उसका उन्मूलन जरूरी है। ये कथन भी आपत्तिजनक नहीं कि उच्च जाति के हिंदू अभिमानी , स्वार्थी,  पाखंडी और झूठे होते हैं तथा वे दूसरों का शोषण करते हैं, उनका मानसिक उत्पीडऩ करते हैं और उनका तिरस्कार करते हैं। इस वाक्य को लेकर विरोध किया गया है कि ‘वेदांत के सिद्धांत ‘मानवता का उपहास’ करते हैं।

लेकिन इस सन्दर्भ में इसे एक प्रगतिशील टिप्पणी के रूप में देखा जाना चाहिए है क्योंकि हिन्दू धर्म अनुसूचित जाति जैसे उत्पीडि़त तथा अभावग्रस्त लोगों को यह सिखाता है कि वे अपने वर्तमान को सुधारने की बजाय अपने अगले जन्म में सौभाग्य की उम्मीद के साथ खुद को आश्वासन दें। अस्पृश्यता और जातिगत उत्पीडऩ जैसी अवधारणाओं पर अपने विचार व्यक्त करते हुए, लेखक ने टिप्पणी की है-‘उनके साथ मत रहो, उनकी छाया हानिकारक है।’ इस प्रकार वे उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा अनुसूचित जातियों के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण का विपर्यय पेश करते हैं।

उन्होंने कहा है कि जो धर्म किसी अशुद्ध जानवर के स्पर्श को पवित्र और मनुष्य के स्पर्श को अपवित्र मानता हो, वह असली मायनों में धर्म हो ही नहीं सकता, बल्कि वह तो व्यर्थ का प्रपंच है। एक स्थान पर अपनी कल्पना के अनुसार, उन्होंने ‘हिंदू’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में यह बताया है कि यह ‘हिंसा‘ शब्द के ‘हिन्‘ और ‘दुष्यति‘ शब्द के ‘दु‘ को मिला कर बना है।

लेकिन यदि इन उद्धरणों को, विशेषकर अस्पृश्यता के सन्दर्भ में, देखा जाए तो ये अहितकर नहीं जान पढ़ते हैं और उनसे किसी भी विवेकशील व्यक्ति को हानि पहुंचने की सम्भावना नहीं है। लिहाजा, जाति-व्यवस्था तथा अस्पृश्यता की बुराइयों को ध्यान में रखते हुए, विवादित अधिसूचना के परिशिष्ट में उद्धृत 1 से 12 और 20 से 24  तक के अंशों को रूढि़वादी हिंदू धर्म के सिद्धांतों की तर्कसंगत आलोचना को विवाद का विषय नहीं मान सकते।

6. अब हम 13 से 19 तक के अंशों पर विचार करेंगे, ‘जिन’  पर यह आपत्ति व्यक्त की गयी है कि वे हिंदू धर्मग्रंथों, यथा ‘वेदों’ और ‘भगवद्गीता’ पर प्रतिकूल टिप्पणी करते हैं। वेदों के बारे में लेखक का कहना है कि ये मन्त्र ‘सैंकड़ों ऐसे लोगों द्वारा रचे गए हैं, जो अविकसित तथा असभ्य थे।’ लेकिन इस वाक्यांश को उसी संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए, जहां तार्किक रूप से इस रूढ़िवादी दृष्टिकोण का खंडन किया गया है कि वेदों की उत्पत्ति दिव्य स्रोतों से हुई है। इसी क्रम में, एक अन्य कथन में लेखक ने किसी ‘शाबर स्वामी’ का हवाला देते हुए यह कहा है कि वेदों की रचना करने वाले ‘मूर्ख’ या बुद्धिहीन’ थे।

पुस्तक में इस तथ्य का भी जिक्र है कि वेदों में अश्वमेध (घोड़े की बलि) या अजमेध (बकरे की बलि) के अवसर पर घोड़े के साथ संभोग का उल्लेख किया गया है; लेकिन यहां लेखक केवल यह बताते हैं कि इस विषय की चर्चा वेदों में की गई है। कथित अनुष्ठान की न तो निंदा की गयी है और ना ही उसका समर्थन। इसलिए यहाँ इस कथन से भावनाओं के आहत होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

7. ‘गीता’ पर की गयी विवादित टिप्पणियों के सम्बन्ध में हमें ज्ञात होता है कि कुछ वाक्यांश, जो उसे ‘धर्मगुरुओं का राग‘ या एक ‘राजनीतिक ग्रन्थ’ बताते हैं, उनसे समाज को किसी भी प्रकार की हानि की आशंका नहीं है। बाकी सभी वाक्यांश यह उजागर करते हुए रूढि़वादी हिन्दू विचारों की तर्कसंगत आलोचना करते हैं कि ‘गीता’ में शूद्रों के प्रति उपेक्षा भाव रखने की सीख दी गयी है तथा यह उन्हें कई प्रकार के दोषों से युक्त बताती है, ताकि उन्हें हमेशा दमित रखा जा सके।

‘गीता’ को इसी सन्दर्भ में एक ‘अधार्मिक पुस्तक‘ के रूप में वर्णित किया गया है। हमें इस बात की संतुष्टि है कि उचित संदर्भ में पढ़े जाने पर इनमें से कोई भी वाक्यांश धर्मग्रंथों के सम्बन्ध में ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करते जान पड़ता जिससे हिंदू धर्म का अपमान होता हो या जो विभिन्न जातियों के बीच अशांति या नफरत को बढ़ावा देता हो।

 

 

8. अंत में हम अंश 21 से 23 पर आते हैं, जिनके आपत्तिजनक होने का दावा इस आधार पर किया गया है कि वे हिंदू देवताओं, विशेषकर राम और हनुमान की आलोचना करते हैं। लेखक लिखते हैं कि हिन्दू लोग जाति के अहंकार में दूसरों का अपमान करना उचित समझते हैं और इसी आधार पर मोक्ष-प्राप्ति की कामना करते हैं। आलोचना के अनुसार, हिंदू देवी-देवता इन्हीं भेदभावपूर्ण आदर्शों के प्रतिरूप हैं। इसके बाद लेखक शम्बूक की कथा का हवाला देते हुए लिखते हैं कि चूंकि उसने एक शूद्र होकर तपस्वी बनने का दुस्साहस किया था, इसीलिए राम ने उसका वध कर दिया।

वे पूछते हैं कि कोई ऐसे राम की पूजा कैसे कर सकता है, जिसने एक तपस्वी की इस प्रकार हत्या करके अपनी कर्तव्यपरायणता सिद्ध की हो। इसी प्रकार, वे पूछते हैं कि शूद्र तथा हरिजन हनुमान की पूजा क्यों करते हैं, जबकि वह एक व्यभिचारी था। अपने दावों को पुख्ता करने के लिए वे ‘वाल्मीकि रामायण’ का एक अंश उद्धृत करते हैं जिसके अनुसार, राम और सीता के बारे में सूचना लाने के बदले भरत ने हनुमान को 16  कन्याएं भेंट की थीं।

ऐसी स्थिति में  इन कथाओं की पुनरावृत्ति को हिंदू धर्म का अपमान करते हुए तथा अशांति और नफरत फैलाते हुए कैसे माना जा सकता है? रूढि़वादी हिंदुओं की दृष्टि में ‘वाल्मीकि रामायण‘ को एक पवित्र ग्रंथ या शास्त्र का दर्जा प्राप्त है। इसी के चलते इसमें उल्लिखित किसी भी प्रसंग को हिन्दू धर्म का अपमान करते हुए नहीं व्याख्यायित किया जा सकता, चाहे वह आधुनिक नैतिक विचारों से कितना भी भिन्न क्यों न हो।

9. विवादित पुस्तक का समग्र अध्ययन करने के बाद और इसके उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, हमें इस बात की संतुष्टि है कि जिन वाक्यांशों पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप है, उनमें से किसी को भी दंड संहिता की धारा 153 - ए या  295-ए के तहत दंडनीय नहीं माना जा सकता। पुस्तक की जब्ती का विवादित आदेश पूरी तरह से अनुचित है और इसे लागू नहीं किया जा सकता।

10. प्रार्थियों के वकील ने आगे तर्क दिया है कि विवादित आदेश अनुचित है क्योंकि यह सीआरपीसी की धारा 99-ए के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इसके अनुसार राज्य सरकार उन कारणों का उल्लेख करने के लिए बाध्य है जिनके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विवादित पुस्तक में ऐसे प्रसंग हैं जो नागरिक वर्गों के बीच दुश्मनी या घृणा को बढ़ावा देते हैं या धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से लिखे गए हैं।

 

 

इस संदर्भ में उन्होंने इस न्यायालय की फुल बेंच के दिनांक 19.1.1971  के सीआर. एमआईएससी. केस 412, 1970 (ललई सिंह यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार) के फैसले का हवाला दिया है ( Cri LJ 1519 All, जो 1971 में रिपोर्ट किया गया था)। लेकिन, चूँकि हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ‘विचाराधीन पुस्तक की जब्ती किसी भी आधार पर नहीं हो सकती’, इसलिए केस के इस पहलू पर राय देना हम अनावश्यक समझते हैं।

11. तदनुसार, इस प्रार्थना-पत्र को रु 300/- की अनुमानित जमा राशि के साथ स्वीकार किया जाता है और जब्ती के विवादित आदेश को निरस्त किया जाता है। ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें‘  नामक पुस्तक की सभी जब्त प्रतियाँ तत्काल प्रार्थियों को तत्काल वापस की जाएं।

(फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित, कॉपी संपादन - नवल, अनुवाद -देविना अक्षयवर)

अब आते हैं एक दूसरे मामले में-

ललई सिंह यादव केस - सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का हिंदी अनुवाद

1968 में सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता ललई सिंह ने ईवी रामासामी पेरियार की चर्चित पुस्तिका ‘रामायण - अ टुरू रीडिंग’ का हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ के नाम से प्रकाशित किया था, जिस पर उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। ललई सिंह ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ लंबी लडाई लडी, जिसमें उनकी जीत हुई। 

सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ March 26, 2019

(9 दिसंबर, 1969 को उत्तर प्रदेश सरकार ने ईवी रामासामी नायकर ‘पेरियार’ की अंग्रेजी पुस्तक  ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ व उसके हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ को ज़ब्त कर लिया था, तथा इसके प्रकाशक पर मुक़दमा कर दिया था। इसके हिंदी अनुवाद के प्रकाशक उत्तर प्रदेश -बिहार के प्रसिद्ध मानवतावादी संगठन अर्जक संघ से जुडे लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ललई सिंह थे।

बाद में उत्तर भारत के पेरियार नाम से चर्चित हुए ललई सिंह ने जब्ती के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। वे हाईकोर्ट में मुकदमा जीत गए।  सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई तीन जजों की खंडपीठ ने की। खंडपीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर थे तथा दो अन्य  न्यायमूर्ति पी .एन. भगवती और सैयद मुर्तज़ा फज़़ल अली थे।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले पर 16 सितंबर 1976 को  सर्वसम्मति से फैसला देते हुए राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया।

कोर्ट के न्यायाधीशों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को मानव समुदाय की विकास यात्रा के साथ जोडक़र देखा और व्यक्ति एवं समाज की प्रगति के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में रेखांकित किया। निम्नांकित सुप्रीम कोर्ट के अंग्रेजी में दिए गए फैसले के प्रासंगिक अंशों का अनुवाद है ।   

पेरियार की सच्ची रामायण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ
भारत का सर्वोच्च न्यायालय उत्तर प्रदेश राज्य बनाम ललई सिंह यादव
याचिकाकर्ता - उत्तर प्रदेश राज्य  बनाम प्रत्यर्थी - ललई सिंह यादव
निर्णय की तारीख  - 16, सितंबर, 1976

पूर्णपीठ - कृष्ण अय्यर, वी. आर. भगवती, पी.एन.फज़ल अली सैय्यद मुर्तजा

निर्णय - आपराधिक अपीली अधिकारिता: आपराधिक अपील संख्या 291, 1971

(इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 19 जनवरी, 1971 के निर्णय और आदेश से विशेष अनुमति की अपील। विविध आपराधिक केस संख्या 412/70)

अपीलकर्ता की ओर से डी.पी. उनियाल तथा ओ.पी. राणा। प्रत्यर्थी की ओर से एस.एन. सिंह।

 

 

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय -

कुछ मामले ऊपर से दिखने में अहानिकर लग सकते  हैं, किन्तु वास्तविक रूप में ये लोगों की स्वतंत्रता के संदर्भ में अत्यधिक चिंताजनक समस्याएं पैदा कर सकते हैं। प्रस्तुत अपील उसी का एक उदाहरण है। इस तरह की समस्याओं से मुक्त होकर ही ऐसे लोकतंत्र की नींव पड़ सकती है, जो आगे चलकर फल-फूल सके।

इस न्यायालय के समक्ष यह अपील विशेष अनुमति से उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार द्वारा की गई है। अपील तमिलनाडु के दिवंगत राजनीतिक आंदोलनकर्ता तथा तर्कवादी आंदोलन के नेता पेरियार ईवीआर द्वारा अंग्रेज़ी में लिखित ‘रामायण - ए ट्रू रीडिंग’ नामक पुस्तक और उसके हिंदी अनुवाद की ज़ब्ती के आदेश के संबंध में की गई है। अपील का यह आवेदन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 99-ए के तहत दिया गया है।  

अपीलकर्ता उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार [जब्ती की अधिसूचना इसलिए जारी की गई है क्योंकि], ‘यह पुस्तक पवित्रता को दूषित करने तथा अपमानजनक होने के कारण आपत्तिजनक है। भारत के नागरिकों के एक वर्ग- हिन्दुओं के धर्म और उनकी धार्मिक भावनाओं को अपमानित करते हुए जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने की मंशा [इसमें] है। अत: इसका प्रकाशन धारा 295 एआईपीसी के तहत दंडनीय है।’

 [उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी] अधिसूचना में सारणीबद्ध रूप में एक परिशिष्ट प्रस्तुत किया है, जिसमें पुस्तक के अंग्रेज़ी और हिंदी संस्करणों के उन प्रासंगिक पृष्ठों तथा वाक्यों का सन्दर्भ दिया गया है, जिन्हें संभवत: अपमानजनक सामग्री के रूप में देखा गया है। उत्तर प्रदेश सरकार की इस अधिसूचना के बाद प्रत्यर्थी प्रकाशक [ललई सिंह] ने धारा 99  सी के तहत [इलाहाबाद] उच्च न्यायालय को आवेदन भेजा था। उच्च न्यायालय की विशिष्ट पीठ ने उनके आवेदन स्वीकार किया तथा सच्ची रामायण पर प्रतिबंध लगाने और इसकी जब्ती करने से संबंधित उत्तर प्रदेश सरकार की अधिसूचना को ख़ारिज कर दिया।

पूरा लेख फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ई.वी. रामासामी पेरियार - दर्शन-चिंतन और सच्ची रामायण’ में संकलित है।


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