छत्तीसगढ़ की राजनीति: इतिहास, जनसांख्यिकी और मुद्दे

पांच साल में छत्तीसगढ़ को लेकर नरैटिव बदला है

सुदीप ठाकुर

 

जमीनी स्तर पर सक्रिय युवा राजनेताओं/ नेत्रियों को प्रशिक्षित करने के काम से जुड़े इंडियन स्कूल ऑफ डेमोक्रेसी के डेमोक्रेसी एक्सप्रेस कार्यक्रम के तहत सुदीप ठाकुर को 3 नवंबर को देशभर से आए चुनींदा युवा राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को संबोधित करने का मौका मिला। उन्होंने इस अवसर पर कुछ नोट्स ले रखे थे और उस आधार पर एक वक्तव्य हुआ और फिर सवाल जवाब। यह आलेख उसी पर आधारित है।

एक अलग राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ की स्थापना दो अन्य राज्यों उत्तराखंड और झारखंड के साथ नवंबर, 2000 में हुई थी। छत्तीसगढ़ राज्य को लेकर भले ही उत्तराखंड और झारखंड की तरह उग्र आंदोलन न हुआ हो, लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य को लेकर दशकों से मांग उठाई जा रही थी। दरअसल सीपी ऐंड बरार ( मध्य प्रांत और बरार) के समय से ही छत्तीसगढ़ की एक भौगोलिक-सामाजिक-राजनीतिक -सांस्कृतिक पहचान रही है।

आजादी के बाद से छत्तीसगढ़ को एक अलग भौगोलिक-राजनीतिक इकाई के रूप में मान्यता देने की मांग हो रही थी। वास्तविकता तो यह है कि छत्तीसगढ का इतिहास उससे भी पुराना है। ऐतिहासिक संदर्भों की बातें इस राज्य को समझने के लिए काफी हैं। प्राचीन इतिहास में यह दक्षिण कोशल के नाम से दर्ज है। 1920 के दशक से छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने की मांग उठती रही। 1930 के दशक में बकायदा रायपुर कांग्रेस ने यह मांग की थी और प्रस्ताव रखा था। 

पहले छत्तीसगढ सीपी ऐंड बरार का हिस्सा था, उसके बाद पुराने मध्य प्रदेश का हिस्सा बना रहा। जब पंडित नेहरू ने राज्यों के पुनर्गठन के लिए जस्टिस फजल आयोग का गठन किया था, तब उसके समक्ष भी छत्तीसगढ़ को अलग राज्य के रूप में मान्यता देने की मांग उठी थी। उस समय इसके समानांतर ही गोंडवाना राज्य की मांग भी उठी। दरअसल छत्तीसगढ़ और गोंडवाना के नाम पर हो रहे आंदोलन कमोबेश एक ही आंदोलन के दो नाम कहे जा सकते हैं। 

मैंने अपनी किताब लाल श्याम शाह, एक आदिवासी की कहानी में इसके बारे में विस्तार से लिखा है, उसका एक अंश: ‘1955 में पुराने मध्य प्रदेश में पहली बार नागपुर स्थित विधानसभा में जब एक नए राज्य के गठन की मांग उठी थी, तो उसके पीछे इस क्षेत्र का ‘आदिवासी बहुल होना एक बड़ा आधार था’ छत्तीसगढ़ से चुनकर गए विधायकों ने तब छत्तीसगढ़ और गोंडवाना में बहुत फर्क नहीं किया था बल्कि नए राज्य के गठन के लिए जो प्रस्ताव रखा गया था उसमें उसका नाम #गोंडवाना ही था 21 नवंबर 1955 को विधानसभा में नए राज्य के गठन से संबंधित प्रस्ताव में छत्तीसगढ़ के जिन विधायकों ने संबोधित किया था उनमें चौकी क्षेत्र से चुनकर आए निर्दलीय विधायक लाल श्याम शाह भी शामिल थे उन्होंने कहा मैं आपके सामने गोंडवाना के संबंध में ही बोलना चाहता हूं ‘इस प्रदेश में लाखों आदिवासी और दलित जनता रहती है जो कि बहुत गरीब है आप सब लोग इस बात को जानते हैं लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि मुगलों के पहले और उनके जमाने में भी इसे गोंडवाना कहा जाता था जब आयोग राज्य पुनर्गठन आयोग यहां आया था तो आदिवासी विभाग के मंत्री और मुख्यमंत्री दोनों ने गोंडवाना राज्य बनाने के लिए मेमोरेंडम दिया था जिस पर ध्यान नहीं दिया गया यह रहस्य की बात है।’

दरअसल कांग्रेस और भाजपा तथा उसकी पहले की अवतार भारतीय जनसंघ जैसे दो बड़े राजनीतिक दलों में छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर एक तरह की झिझक थी। शायद इसकी वजह राजनीतिक थी। एक समय यह भी कहा जाता था कि 320 विधानसभा सीटों वाले राज्य का मुख्यमंत्री बनने के बजाय कौन 90 सीटों वाली विधानसभा वाले राज्य में जाना चाहेगा। 

जबकि पचास, साठ और सत्तर के दशकों में छत्तीसगढ़ राज्य की मांग उठती रही। नेताओं के नामों में मैं नहीं जा रहा हूं। इसकी लंबी फेहरिस्त है। ढेर सारे नाम हैं। 1977 में तो बकायदा एक अशासकीय प्रस्ताव भी पेश किया गया। छत्तीसगढ़ के आंदोलन की खूबसूरती यह थी कि यह कभी हिंसक नहीं हुआ। 1990 के दशक में आते-आते राजनीतिक दलों को लगने लगा कि यह अब ऐसी मांग है, जिसे पूरा करने का समय आ गया है, लिहाजा सारे राजनीतिक दल इससे जुड़ गए। 

स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ ने भी अहम भूमिका निभाई थी। शहीद वीर नारायण सिंह को 10 दिसंबर, 1857 को रायपुर में सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई। वह सोनाखान के जमींदार थे। भयंकर अकाल पड़ा, तो उन्होंने अंग्रेजों के सरपरस्तों के गोदामों से अनाज निकालकर गरीबों में बंटवा दिया था। यहां समाजवादी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, कम्युनिस्ट आंदोलन भी चलता रहा। श्रमिक और किसानों के आंदोलनों का भी लंबा इतिहास है। 

खासतौर से बंगाल नागपुर काटन मिल्स (बीएनसी) मिल राजनांदगांव की राजनीति श्रमिक आंदोलन के केंद्र में रही। 2002 में यह बंद हो गई। 1894 में इसकी स्थापना हुई थी। एक समय बीएनसी मिल समाजवादी और श्रमिक आंदोलन का केंद्र थी। करीब तीन दशकों तक छत्तीसगढ़ की राजनीति को शंकर गुहा नियोगी के छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने भी खासा प्रभावित किया। छमुमो न केवल एक प्रभावशाली श्रमिक संगठन था, बल्कि उसने सामाजिक सुधार के भी कई काम किए थे। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आज बिखर गया है, लेकिन एक समय यह एक बड़ी आवाज था।

इसी तरह से कम्युनिस्ट पार्टियां भी छत्तीसगढ़ में कमजोर पड़ गई हैं। यह अलग बात है कि पूरे देश में उनका क्षरण हुआ है। वास्तविकता यही है कि एक समय मध्य प्रदेश की विधानसभा में विधायक भेजने वाली कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) नए बने छत्तीसगढ़ राज्य में आज तक एक भी सीट जीत नहीं सकी। श्रमिक आंदोलन और उन्हें समर्थन करने वाले समाजवादी आंदोलन और कम्युनिस्ट पार्टियों के कमजोर पडऩे का असर बढ़ते निजीकरण के तौर पर देख सकते हैं। इसकी मिसाल बस्तर से लेकर रायगढ़ और हसदेव तक देखी जा सकती है। एक पत्रकार के रूप में रिपोर्टिंग के दौरान मेरा अपना अनुभव है कि बैलाडीला की 11 बी खदान के निजी करण के प्रयास के खिलाफ श्रमिकों ने बड़ा आंदोलन किया था, तब जाकर उसका निजीकरण रोका गया। 

जहां तक छत्तीसगढ़ की जनसांख्यिकी की बात है, तो यहां की आबादी में 32  फीसदी आदिवासी हैं। यह भी मुद्दा है कि आदिवासियों का एक तबका खुद को किसी धर्म में नहीं मानता। वे प्रकृति पूजक हैं। आदिवासियों से जुड़े मुद्दे पर आगे बात करेंगे। राज्य सरकार के सर्वे के मुताबिक 42.41 फीसदी ओबीसी हैं। 13 फीसदी एससी हैं। इन सबसे अहम यह भी है कि लैंगिक समानता के मामले में छत्तीसगढ़ नंबर एक पर है।
बीते एक नवंबर को छत्तीसगढ़ को एक अलग राज्य के रूप में 23 वर्ष हो गए हैं। इन वर्षों में यहां कांग्रेस और भाजपा के अलावा तीसरे विकल्प के तौर पर कोशिशें तो हुई हैं, लेकिन ये सारे प्रयोग अमूमन विफल साबित हुए हैं। बसपा यहां मध्य प्रदेश के समय से एक दो सीटें जीतती रही, लेकिन वह विस्तार नहीं कर सकी और आज तो वह राष्ट्रीय स्तर पर भी हाशिये पर है। यही हाल कम्युनिस्ट पार्टियों का रहा। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी बहुत सीमित दायरे में ही रही है। आम आदमी पार्टी ने पिछला चुनाव लड़ा था और इस बार भी वह मैदान में है, लेकिन वह कांग्रेस या भाजपा की जगह लेती नहीं दिखती। 

आज जब एक अलग राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ में विधानसभा के पांचवें चुनाव हो रहे हैं, तो यह गौर किया जाना चाहिए कि आखिर मतदाताओं के सामने मुद्दे कौन से हैं। निस्संदेह छत्तीसगढ़ ने पिछले कुछ वर्षों में गरीबी से मुकाबला किया है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक से संबंधित नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में 2015'6 और 2019-21 के बीच 13.53 फीसदी लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। 2020 की प्रोजेक्टेड जनसंख्या की बात करें, तो यह संख्या 39 लाख 90 हजार से ज्यादा है। दरअसल गरीबी और असमानता को जोडक़र देखने की जरूरत है। और यह स्थिति सिर्फ छत्तीसगढ़ की नहीं है। पूरे देश में असमानता बढ़ी है। कोरोना महामारी के दौर में ऑक्सफेम की रिपोर्ट (द इनइक्वालिटी वायरस) ने दिखाया था कि कैसे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान देश के शीर्ष सौ अरबपतियों की संपत्ति बढ़ गई थी, जिनसे 13 करोड़ गरीब लोगों को मदद की जा सकती थी। 

आप जानते हैं कि छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। खेती किसानी यहां एक बड़ा मुद्दा है। यदि डॉ. रमन सिंह को एक समय ‘चाउर वाले बाबा’ कहा जाता था, तो इसीलिए कि उनकी सरकार ने प्रदेश के लाखों परिवारों को दो रुपये किलो चावल देने की पहल की थी। हालांकि यह अब भी मेरे लिए पहेली है कि उस समय जो यह दावा किया जाता था कि 34 लाख परिवार उससे लाभान्वित हुए, तो यह कैसे हुआ और इसका मतलब तो यह हुआ कि उस समय राज्य की करीब दो करोड़ की आबादी का बड़ा हिस्सा गरीब था! और इसे उपलब्धि कहा जाए या नाकामी!

पिछले पांच वर्षों बल्कि पिछले चुनाव के समय से खेती और किसान यहां एक बड़ा मुद्दा है। भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने कृषि और किसानों के लिए बहुत-सी सीधी सब्सिडी या नकद मदद की योजनाएं चलाई हैं, और अब भी घोषणाएं की हैं। इस बार भी कृषि कर्ज माफी और एमएसपी को बढ़ाने का वादा कांग्रेस ने किया है। इसके जवाब में भाजपा ने भी एक कदम आगे बढक़र वादे किए हैं। इन वादों से इतर मुझे लगता है कि 3 दिसंबर के बाद जो भी नई सरकार बनेगी उसे छत्तीसगढ़ में खेती में दीर्घकालीन नए सुधार की दिशा में आगे बढऩा ही होगा। 

यदि रमन सिंह की अगुआई वाली भाजपा की 15 साल की सरकार और भूपेश बघेल की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार में तुलना करें, तो एक बड़ा बदलाव साफ दिखता है कि पांच साल में छत्तीसगढ़ को लेकर नरैटिव बदला है और यह उसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहचान से जुड़ा हुआ है। अब यहां की राजनीति छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक अस्मिता को जोड़े बिना संभव नहीं है। 

अब बात आदिवासियों की, खनिज संपदा की, निजी करण की और माओवाद या नक्सलवाद की। अकूत खनिज और वन संपदा के बावजूद छत्तीसगढ़ की गिनती पिछड़े राज्यों में होती आई है। मध्य प्रदेश के समय छत्तीसगढ़ के साथ उपनिवेश जैसा व्यवहार होता था। तो जाहिर है, अलग राज्य बनने के बाद उसके पास अवसर भी था और क्षमता भी। लेकिन एक खतरा और सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश में जिस तरह से बढ़ रहा है, वह बढ़ते निजीकरण से जुड़ा है। इसकी कहानी बाल्को से लेकर बैलाडीला और हसदेव तक फैली हुई है।

आज बस्तर पहले जैसा नहीं है, जब अविभाजित मध्य प्रदेश में सजा के तौर पर लोगों का वहां तबादला कर दिया जाता था। इसके बावजूद अब भी बहुत कुछ बदलने की जरूरत है। निर्णय लेने की प्रक्रिया में आदिवासियों की हिस्सेदारी बढ़ाकर स्थितियों को बदला जा सकता है। यही माओवादी हिंसा या नक्सली हिंसा का जवाब भी होगा। अभी फिर खबरें हैं कि नक्सलियों ने कुछ जगह चुनाव बहिष्कार की अपील की है। मगर मेरा अपना अनुभव है कि बस्तर के आदिवासी हर बार ऐसे बहिष्कार का जवाब मतदान के जरिये देते हैं। उनकी आस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था और अपने लोकतांत्रिक अधिकार पर कायम है। दरअसल लोकतंत्र ही हमारी आखिरी उम्मीद है। 

और अंत में, सुप्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्ल की कई दशक पुरानी कविता, रायपुर बिलासपुर संभाग का एक अंश। यह कविता पलायन पर केंद्रित है। हालांकि छत्तीसगढ़ से अब पलायन कम हो गया है, फिर भी यह छत्तीसगढ़ के लोगों को उनकी सहजता को उनकी सादगी को उनकी विनम्रता को उनके संकोच को समझने में मदद करती है: 

रायपुर बिलासपुर संभाग..
विनोद कुमार शुक्ल

पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में
लपकते वही फिर एक साथ दूसरे डब्बे में
एक भी छूट गया अगर
गाड़ी में चढऩे से
तो उतर जाएंगे सब के सब ।
डर उससे भी ज्यादा है
अलग अलग बैठने की बिलकुल नहीं हिम्मत
घुस जाएंगे डिब्बों में
खाली होगी बेंच
यदि पूरा डिब्बा तब भी
खड़े रहेंगे चिपके कोनों में
य उखरू बैठ जाएंगे
थककर नीचे
डिब्बे की जमीन पर ।
निष्पृह उदास निष्कपट इतने
कि गिर जाएगा उनपर केले का छिलका
या फल्ली का कचरा
तब और सरक जाएंगे
वहीं कहीं
जैसे जगह दे रहे हों
कचरा फेंकने को अपने ही बीच ।


इंडियन स्कूल ऑफ डेमोक्रेसी के डेमोक्रेसी एक्सप्रेस अभियान के तहत देश भर के चुनींदा युवा राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को दिए गए संबोधन के संपादित अंश।


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