ओ धम्मदीक्षा क्या तुझे ही धर्मान्तर कहते हैं?
जाति व्यवस्था बरक्स धर्मान्तरण
सुशान्त कुमारआसन्न चुनाव से पूर्व हाल ही में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में बौद्ध समाज से जुड़ी प्रतिष्ठित संस्था ‘बौद्ध कल्याण समिति’ ने 100 से अधिक बच्चों को 7 अक्टूबर से 23 अक्टूबर तक धम्म प्रशिक्षण शिविर का आयोजन कर 24 अक्तूबर को धम्मदीक्षा देने का कार्यक्रम आयोजित किया था। जानकारों का कहना है कि धम्मदीक्षा ही धर्मान्तर कहलाता है। इसके लिए बाकायदा फॉर्म भरवाएं गए हैं जिसमें अभिभावक और आवेदक के दस्तखत लिए गए हैं। इस दौरान बच्चों को त्रिशरण पंचशील के साथ 22 प्रतिज्ञा प्रदान की गई। इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम पर ‘दक्षिण कोसल’ ने इसके आयोजकों से बात करने की कोशिश की है।

इस आयोजन को लेकर बातचीत में विरोधाभाष है कोई कहता है यह शिक्षा का कार्यक्रम है कोई कहता है यह धम्मदीक्षा का कार्यक्रम है कोई कहता है यह दीक्षा महोत्सव है। लेकिन जानकारों का कहना है कि यह धम्मदीक्षा और धर्मान्तरण का कार्यक्रम ही है और जब बौद्ध समाज के लोग कर रहे हैं तो दीक्षित बायडिफाल्ट अपने माता पिता के धर्म के अनुसार बौद्ध होने से बच्चे भी बौद्ध कहलाएंगे वहां बालिग नाबालिग का सवाल ही नहीं उठता है।
आयोजक विनोद श्रीरंगे कहते हैं कि पहले बच्चों का धम्म दीक्षा हो गया। यह बच्चों का धम्म दीक्षा कार्यक्रम है। आगे यह भी कि यह शिक्षा और वर्षावास का कार्यक्रम है। धर्मांतरण वाला दीक्षा कार्यक्रम नहीं। फिर कहते हैं कि हम किसी धर्म के खिलाफ नहीं है। कार्यक्रम का उद्देश्य समाज के प्रति जोडऩा है प्रोपोगंडा करना नहीं है। ध्यान रखा गया कि हिन्दू देवी देवता के खिलाफ बोलना नहीं है। इसमें बाइस प्रतिज्ञा नहीं त्रीशरण और पंचशील दिया जा रहा है।
बहुजन समाज पार्टी की रविता लकड़ा कहती हैं कि बच्चों को धम्मदीक्षा दी गई है। साथ में पेरेंट हैं। नाबालिग और बालिग भी इस कार्यक्रम में हैं। आगे कहती हैं कि धम्मदीक्षा नहीं शिविर है। यह बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास है। बच्चों को धम्म का ज्ञान हो सके। यह महामानवों को लेकर विस्तृत जानकारी थी। शिक्षा का कार्यक्रम है और सामाजिक तौर पर है।
आयोजक प्रवीण नोन्हारे उलटे सवाल करते हुए कहते हैं कि दीक्षा कहां है दीक्षा महोत्सव है, बच्चों को जो शिक्षा दी गई है उनको प्रमाण पत्र दे रहे हैं। वह स्वीकारते हैं कि इस दौरान बच्चों की धम्म प्रशिक्षण के दो तीन क्लासेस हुई थी। दीक्षा कार्यक्रम नहीं हैं। कार्यक्रम में बच्चों को महापुरूषों के इतिहास से रूबरू किया गया है। वह कहते हैं कि विधिवत दीक्षा करवाते तो कानूनी प्रक्रिया करवानी पड़ती। बच्चे शिक्षित हो गए हैं। जो प्रचार है वह शिक्षा का है दीक्षा का नहीं।
बौद्ध विद्वान एएस वासनिक स्पष्ट कहते हैं कि दीक्षा लेने से पूर्व शिक्षा दी है। पहले शिक्षा दी गई है। अधिकांश बच्चे बालिग हैं। मुझे इसकी पूरी जानकारी नहीं है। फार्म भरवाये गए हैं लेकिन कलेक्टर से परमिशन नहीं लिये हैं। यह समाजिक कार्यक्रम हैं। वह कहते हैं कि हम अपने आप को पारंपरिक बौद्ध समझते हैं। वह कहते हैं कि जब तक दीक्षा नहीं लेते तब तक आप बौद्ध नहीं कहलाते वही दीक्षा हो रही है। इसमें हम पारंपरिक बौद्ध हैं और शिक्षा ले रहे हैं।
बौद्ध कल्याण समिति के प्रमुख क्रांति फुले कहते हैं कि नहीं, कलक्टोरेट से परमिशन नहीं ली है। हमने एसडीएम को कार्यक्रम के संबंध में आवेदन दे दिया है। यह धर्म परिवर्तन का कार्यक्रम नहीं है यह हमारा धम्म संस्कार कार्यक्रम है। हम सामाजिक बंधुओं को दीक्षित कर रहे हैं। जैसे मुसलमानों में...और हिन्दुओं में जेनेऊ और अन्य समारोह होता है, क्रिश्चयन में बपतिस्मा होता है उसी तरह हमारा धर्म संस्कार है। धर्मान्तरण होगा तो कानूनों का पालन किया जाएगा। अभी तो ऐसी कोई औपचारिकता को हमने पूरी नहीं की है। बच्चों से आवेदन में दस्तखत लिया गया है और उन्हें दीक्षित किया जा रहा है।
इस कार्यक्रम को समझने के लिए हमने बौद्ध धम्म के जानकार और भदंत धम्मतप से बात की वह कहते हैं कि शिक्षा जो दे वही दीक्षा भी दें। दोनों अलग अलग व्यक्ति से नहीं होना चाहिए। जब शिक्षा दीक्षा हो ऐसे हालात में कलेक्टर से विधिवत फार्म वैगरह भरवाना चाहिए। प्रत्येक दीक्षित व्यक्ति अन्य व्यक्ति को दीक्षा दे सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि वह व्यक्ति शिलवान हो। हां बौद्ध भिक्षु दीक्षित कर सकते हैं। दीक्षा का कार्यक्रम विधिवत करवाना है और सर्टिफिकेट और अन्य आवश्यक प्रक्रियाओं की पूर्ति के लिए इसकी जानकारी कलेक्टर को देनी चाहिए।
इस जटिल मामले को समझने के लिए हमने बौद्ध धर्म के जानकार कन्हैया खोब्रागड़े से इस संबंध में समझने की कोशिश की तो वह कहते हैं कि धर्म परिवर्तन के लिए परमिशन का होना जरूरी है। धर्म परिवर्तन करने वाला सरकार को लिखेंगे कि धर्म बदल रहा हूं। उसमें वेरीफिकेशन होता है कि आपका धर्म परिवर्तन कोई लालच या दबाव से तो नहीं हो रहा है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि -‘धर्म दीक्षा और धर्मांतरण एक ही बात है। हां इसके लिए कानूनी प्रक्रिया पूरी करनी चाहिए। संविधान कहता है आप जिस धर्म में जा रहे हैं उसके लिए व्यवस्था रखी गई है।
बहरहाल हम इनके कारणों में जाने की जुर्रत करते हैं-पहला -जाति-व्यवस्था का पालन करने वाले हिन्दुओं का विश्वास है कि दैवीय शक्तियों ने ही एक जाति को दूसरी जाति से श्रेष्ठ बनाया है। हिन्दुओं की एक प्रसिद्ध सृष्टि-कल्पना के अनुसार देवताओं ने पुरुष नामक एक आद्य सत्ता की काया से दुनिया की रचना की थी। सूर्य की रचना पुरुष के नेत्र, चन्द्रमा की रचना पुरुष के मस्तक, ब्राह्मणों की रचना उसके मुख, क्षत्रियों की रचना उसकी भुजाओं, वैश्यों की रचना उसकी जंघाओं और शूद्रों की रचना उसके पैरों से हुई।
इस व्याख्या को स्वीकार करते ही ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच के फर्क उतने ही स्वाभाविक और शाश्वत है, जितना फर्क सूर्य और चन्द्रमा के बीच है। प्राचीन चीनियों का मानना कि जब देवी नू वा ने मिट्टी से मनुष्यों की रचना की, तो उसने कुलीनों को चिकनी पीली मिट्टी से गूथा, जबकि सामान्य जनों को भूरे कीचड़ से गढ़ा गया।
तब भी हमारी श्रेष्ठतम समझ के अनुसार, ये सारे श्रेणीबद्ध क्रम मनुष्य की कल्पना की उपज हैं। ब्राह्मणों और शूद्रों की रचना देवताओं द्वारा किसी आद्य सत्ता के शरीर के विभिन्न हिस्सों ने नहीं की गई थी। इसके बजाय दोनों जातियों के बीच का भेद कोई 3000 साल पहले उत्तर भारत में मनुष्यों द्वारा ईजाद नियमों और मानकों से रचा गया था। अरस्तू की धारणा के विपरीत, गुलामों और स्वतन्त्र लोगों के बीच कोई ज्ञात जैविक भेद नहीं है। मानवीय नियमों और मानकों ने ही कुछ लोगों को गुलामों में और कुछ को उनके मालिकों में बदल दिया। कालों और गोरों के बीच कुछ तथ्यात्मक जैविक भेद हैं, जैसे कि चमड़ी के रंग और बालों का प्रकार, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं कि इन फर्कों का विस्तार बुद्धि और नैतिकता तक है।
दूसरा-ज्यादातर लोग दावा करते हैं कि उनका सामाजिक श्रेणीबद्ध क्रम कुदरती और न्यायसंगत है, जबकि दूसरे समाजों के श्रेणीबद्ध क्रम छद्म और हास्यास्पद मापदण्डों पर आधारित हैं। आधुनिक पश्चिमी लोगों को नस्लपरक श्रेणीबद्ध क्रम का मखौल उड़ाने की शिक्षा दी गई है। वे उन क़ानूनों से बहुत स्तम्भित रह जाते हैं, जो कालों के गोरों के इलाक़ों में रहने या उनके गोरों के स्कूलों में पढऩे या गोरों के अस्पतालों में इलाज़ कराने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं।
लेकिन अमीर और गरीब का श्रेणीबद्ध क्रम - जो अमीरों को अलग-थलग और अधिक भव्य क्षेत्रों में रहने, अलग-थलग और अधिक प्रतिष्ठित स्कूलों में पढऩे और अलग-थलग तथा बेहतर साधन-सम्पन्न अस्पतालों में चिकित्सा हासिल करने का अधिकार देता है बहुत से अमेरिकी और यूरोपीय लोगों को सर्वथा विवेकपूर्ण लगता है। तब भी यह एक प्रमाणित तथ्य है कि ज्यादातर अमीर महज इसलिए अमीर हैं क्योंकि वे अमीर परिवार में पैदा हुए हैं, जबकि ज्यादातर गऱीब सिर्फ़ इसलिए आजीवन गरीब बने। रहेंगे क्योंकि वे एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे।
तीसरा-शासकों का तर्क था कि जाति-व्यवस्था किसी ऐतिहासिक संयोग का नतीजा नहीं, बल्कि एक सनातन वैश्विक वास्तविकता है। शुचिता और अशुचिता की धारणाएं हिंदू धर्म के मूलभूत तत्वों में शामिल थी और उनका उपयोग सामाजिक पिरामिड को मजबूत बनाने के लिया किया गया। पवित्र हिंदुओं को सिखाया गया कि दूसरी जाति के लोगों का स्पर्श न सिर्फ उन्हें निजी तौर पर अपवित्र करेगा, बल्कि पूरे समाज को भी अपवित्र बना देगा और इसलिए ऐसे लोगों से उन्हें घृणा करनी चाहिए। इस तरह की धारणाएं सिर्फ हिन्दुओं की ही विशेषताएं नहीं है।
समूचे इतिहास के दौरान, और लगभग सारे समाजों में अपवित्रता और शुचिता की धारणाएं सामाजिक और राजनैतिक विभाजनों को मजबूत बनाने में प्रमुख भूमिका निभाती रही है और अनेक कुलीन वर्गों द्वारा अपनी विशेष हैसियत को बरकरार रखने के लिए इनका दुरुपयोग किया गया है। अशुचिता का भय पूरी तरह से पुरोहितों और राजकुमारों की धूर्तता नहीं है।
इसकी जड़े सम्भवत: जीवित बने रहने की उन जैविक प्रक्रियाओं में फैली हैं, जो मनुष्यों में रोगों के सम्भावित वाहकों, जैसे कि बीमार इंसानों और शवों के प्रति स्वाभाविक विकर्षण की भावनाएं जगाती हैं। अगर आप किसी भी इंसानी समुदाय स्त्रियों यहूदियों, जिप्सियों, समलैंगिकों, कालों को अलग-थलग बनाए रखना चाहते है तो इसका सबसे अच्छा तरीका हर किसी के दिमाग में यह बात बैठा देना है कि ये लोग प्रदूषण के स्रोत हैं।
वास्तविकता क्या है-हिन्दू वर्ण व्यवस्था और उससे जुड़े शुचिता के नियम हिन्दुस्तानी संस्कृति में गहरे पैठ गए। इंडो-आर्यन आक्रमण के भुलाए जा चुकने के बहुत बाद तक हिन्दुस्तानियों ने वर्ण व्यवस्था में विश्वास और वर्णों के संकरण (मिश्रण) से होने वाली अशुचिता से घृणा करना जारी रखा। ये वर्ण परिवर्तन से निरापद नहीं थे। दरअसल, समय के गुजऱने के साथ, मुख्य वर्ण उप-जातियों में विभाजित हुए।
अन्तत: मूलभूत चार वर्ण 3000 जातियों (‘जाति’ का शाब्दिक अर्थ है ‘जन्म’) में बदल गए, लेकिन जातियों के इस प्रसार ने वर्ण-व्यवस्था के उस बुनियादी नियम में कोई बदलाव नहीं किया, जिसके मुताबिक़ हर व्यक्ति का जन्म एक विशिष्ट कुल में हुआ है और इसके विधानों का किसी भी तरह का उल्लंघन व्यक्ति और समूचे समाज को दूषित कर देता है। किसी व्यक्ति की जाति उसके व्यवसाय, उसके योग्य भोजन, उसके निवास स्थान और उसके योग्य वर/वधू का निर्धारण कर देती है। आम तौर से कोई अपनी ही जाति में विवाह कर सकता है या कर सकती है और उसकी सन्तानों को विरासत में वही जातीय हैसियत प्राप्त होती है।
ऐतिहासिक पृष्टभूमि में जब भी कभी कोई नया व्यवसाय विकसित होता था या लोगों का कोई नया समूह प्रकट होता था, तब हिन्दू समाज के भीतर एक जायज़ स्थान हासिल करने के लिए उनका किसी जाति के रूप में अपनी पहचान बनाना जरूरी होता था। जो समूह किसी जाति के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाते थे, वे सच्चे अर्थों में बहिष्कृत होते थे इस स्तरीकृत समाज में उन्हें सबसे निचली सीढ़ी भी मयस्सर नहीं होती थी। वे अछूत कहे जाने लगे। उन्हें बाक़ी समाज से अलग रहना पड़ता था और कचरे के ढेर से जूठन बटोरने जैसे अपमानजनक और घृणित तरीकों से अपनी आजीविका जुटानी पड़ती थी।
सबसे निचली जाति के लोग भी उनसे घुलने-मिलने, उनके साथ बैठकर खाने, उन्हें छूने और निश्चय ही उनके साथ वैवाहिक रिश्ता बनाने में परहेज़ करते थे। आधुनिक हिन्दुस्तान में विवाह और काम के मसले आज भी जाति-व्यवस्था से ज़बरदस्त ढंग से प्रभावित हैं, बावजूद इसके कि हिन्दुस्तान की लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा इस तरह के भेदभावों को तोडऩे और हिन्दुओं को यह समझाने की तमाम कोशिशें की गई हैं कि जातीय मिश्रण से कोई दूषण नहीं होता।
बावजूद हिंदुओं से बाहर आने के लिए 5 हजार वर्षों के जहालतभरे जिंदगी से जूझने अछूतों की मुक्ति के लिए डॉ. आंबेडकर द्वारा बौद्ध धम्म में धर्मान्तरण के बाद कहा जाना चाहिए उस दिन पर पिछले 24 अक्टूबर को ‘बौद्ध कल्याण समिति राजनांदगांव, छत्तीसगढ़’ ने 100 से अधिक बच्चों का धर्मान्तर के लिए धम्मदीक्षा करवाया।
बिल्कुल सही यह महोत्सव भी है, इतिहास में दर्ज है कि 14 अक्टूबर 1956 को डॉक्टर आंबेडकर ने 5 लाख अछूतों को हिन्दू धर्म की कुरूतियों से मुक्ति दिलाते हुए बौद्ध धम्म में दीक्षित किया था। अर्थात धर्मान्तर। इस दीक्षाभूमि में आज भी लाखों की संख्या में बौद्ध अनुयायी पहुंचते हैं, जहां पांव रखने को जगह नहीं होती है विभिन्न राज्यों के लोग कई दिनों से दूर-दराज व अन्य राज्यों से यहां चलकर पहुंचते हैं। पुस्तक मेला व धर्मान्तरण के पलों व क्षणों को देखने, समझने हर साल लाखों लोग पहुंचते हैं।
जन सैलाब अशोका विजयादशमी के दिन बाबा साहब द्वारा धर्मान्तरण के उन पलों को याद कर बौद्ध धम्म में परिवर्तन की अपनी प्रतिबद्धता को साबित करने बौद्ध धम्म में दीक्षित होते हैं। 13 अक्टूबर 1935 को येवला कान्फे्रन्स में आम्बेडकर ने कहा था कि जीवन में पहली बार धर्मान्तर की घोषणा करते हुए कल्पप्रवर्तक, बोधिसत्व, संविधानवेत्ता आंबेडकर ने कहा था कि दुर्भाग्य से मैं हिन्दू समाज में अछूत पैदा हुआ। यह मेरे बस की बात नहीं थी।
परन्तु हिन्दू समाज में बने रहने से इन्कार करना मेरे बस की बात है और मैं निश्चित तौर पर कहता हूं कि मैं मरते समय हिंदू नहीं रहूंगा। और आम्बेडकर मृत्यु के पूर्व बौद्ध हो गए थे। 1936 में लाहौर के जात-पांत मंडल के वार्षिक अधिवेशन में आम्बेडकर ने कहा था कि वर्णभेद ने सार्वजनिक भाव को मार डाला है। वर्णभेद ने सद्गुण को जात-पांत के नीचे दबा दिया है और सदाचार को जात-पांत में जकड़ लिया है।
1935 के भाषण में उन्होंने कहा था कि हमने हिन्दू समाज में समानता का दर्जा हासिल करने के लिए हर तरह की कोशिशें की और सत्याग्रह किए, परन्तु सब बेकार। हिन्दू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है। हिन्दू धर्म का त्याग करने से ही हमारी परिस्थिति में सुधार हो सकेगा। धर्मान्तर के सिवाय हमारे उद्धार का और कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
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