वह जगह जहां एक सपने की हत्या करने की कोशिश की गई
दल्ली राजहरा से लौटकर सुशान्त कुमार की ग्राउंड रिपोर्ट
सुशान्त कुमारशंकर गुहा नियोगी का 32वां शहीद दिवस 28 सितम्बर को दल्ली राजहरा में मनाई गई। इस बार तय हुआ था कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) के विभिन्न गुटों के साथ जन मुक्ति मोर्चा (जमुमो) सहित अनेक अन्य जन संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा कार्यक्रम को संयुक्त रूप से आयोजित किए जाएंगे। इस तरह तीन बैठकों के पश्चात एक साथ इस दिवस को याद करने की योजना बनाई गई।

‘दक्षिण कोसल’ के सम्पादक की हैसियत से मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के 32वां शहादत दिवस की ग्राउंड रिपोर्ट एकत्र करने छमुमो के दूसरे समूह के अध्यक्ष भीमराव बागड़े के साथ दल्ली राजहरा पहुंचा। मानपुर चौक से ही छमुमो और जमुमो के झंडों से पूरे दल्ली राजहरा को सजा हुआ पाया। शहीद स्थल पर उनके स्मारक पर श्रमिकों द्वारा श्रद्धांजलि देते हुए देखा जिसे खूबसूरती के साथ सजाया गया था।
पहले माई घर में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के कार्यालय में उनके प्रमुख नेता जनक लाल ठाकुर, सोमनाम उइके, बसन्त साहू, शहीद अस्पताल के प्रमुख डॉ. शैबाल जाना, किसान नेता और अधिवक्ता वीरेन्द्र उके, डॉ. देवेश मेश्राम और नेताओं से नियोगी की हत्या और न्याय पर बातचीत की साथ ही वर्तमान में आसन्न चुनाव में भागीदारी पर भी चर्चा भी की। माइंस कार्यालय को भव्यता के साथ सजाया गया था। मानो पूरा दल्ली राजहरा अपने प्रिय नेता को आज 32 साल बाद भी याद कर रहा हो।
तत्पश्चात डा. जाना द्वारा लगाए गए पुस्तकों के स्टॉल से कई सारे बुलेटिन व पुस्तिका खरीदा। इस स्टॉल में नियोगी सहित मानव को होने वाले कई बीमारियों पर कई सारगर्भित पुस्तकें उपलब्ध थी। भोजन व्यवस्था सभी के लिए किया गया था। भोजन वैगरह कर जन मुक्ति मोचा के कार्यालय में पहुंचा। उसे भी भव्यता के साथ सजाया गया था। तोरणद्वार और गेट को सजाया गया था।
द्वार पर आदिवासी नृत्य कर रहे थे। देखा कि अर्द्ध निर्मित ट्रांसपोर्ट नगर का पूरा आहाता आगंतुक मजदूर और किसानों के लिए भोजन के लिए तैयार था। वहां सफाई कामगारों के नेता जयप्रकाश नायर जमुमो के कार्यक्रम में व्यस्त नजर आए उनसे मुलाकात हुई साथ ही ईश्वर निर्मलकर, बसंत रावटे तथा सुरजू टेकाम से मुलाकात हुई।
जहां छमुमो गुरूर के ओम प्रकाश साहू और ओबीसी संगठन के प्रमुख मुरारी दास से भी मुलाकात किया। सुनिलम से चुनाव और मध्यप्रदेश की राजनीति पर चर्चा हुई।जैसे समन्वय समिति ने तय किया था कि दोपहर 1 बजे दोनों कार्यालयों से रैली प्रारंभ होगी जो शहीद गैरेज के पास शामिल होकर जैन भवन चौक में सभा होगी। ऐसा नजारा नहीं था। लगभग 2 बजे काफी इंतजार के बाद छमुमो ने माइंस ऑफिस से रैली की शुरूआत की।
इसमें भीमराव बागड़े, जनक लाल ठाकुर, बसंत साहू, कलादास डेहरिया, प्रसाद राव, सोमनाथ उइके, प्रेमनारायण वर्मा जैसे सैकड़ों नेताओं ने रैली को जमुमो के इंतजार में वीरनारायण सिंह चौक, गुप्ता चौक, बस स्टैंड में नियोगी चौक से होते हुए अस्पताल चौक के बाद हजारों की संख्या में मजदूर किसान जैन भवन चौक पहुंच गए। और कार्यक्रम का संचालन करते हुए गीत गाकर शहीद शंकर गुहा नियोगी को श्रद्धासुमन अर्पित किए।
उसके बाद जमुमो अपनी अलग जुलूस के साथ निर्धारित मंच में पहुंचे। कई मामलों को लेकर विवाद भी गहरा हुआ और सभी समन्वयकारी नेताओं के बीच मनमुटाव की स्थिति भी रही। बावजूद इस शहादत दिवस पर किसान नेता सुनिलम, जनक लाल ठाकुर, आशा गुहा नियोगी, जय प्रकाश नायर, सोमनाथ उइके, सौरा यादव, एजी कुरैशी, कलादास डहरिया जैसे कई वक्ताओं ने अपना भाषण दिया। छमुमो और जमुमो द्वारा पेश शहीद गीत काफी प्रशंसनीय रही। शासन - प्रशासन ने अपनी कड़ी व्यवस्था कर रखी थी।
श्रमिकों ने अनुशासित रहकर पूरे कार्यक्रम को सुना और अपने गणतव्य स्थान के लिए रवाना हुए। इस कार्यक्रम में दल्ली राजहरा, और आस पास के गांव के मजदूर किसान, दुर्ग, बालोद, गुरूर, भिलाई, टेडेसरा, राजनांदगांव, रायपुर, उरला, बिलासपुर, जामुल के मजदूर किसान बड़ी संख्या में उपस्थित थे। इस दौरान तहसीलदार के माध्यम से मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा गया। वक्ताओं में भीमराव बागड़े और आशा गुहा नियोगी ने नियोगी की हत्या पर सवाल उठाए।
जनकलाल ठाकुर ने कहा कि नियोगी की प्रासंगकिता आज भी बनी हुई है। उन्होंने डंकल प्रस्ताव और उनके चेतावनी से अवगत कराया था। सरकार की तानाशाही पर आदिवासियों के मुंह में आवाज दिया। और वर्तमान सांगठनिक बिखराव पर इशारा किया। राजहरा की ताकत को कम होते बताया लेकिन विचार आज भी जिंदा है।शंकर गुहा नियोगी ने साल 1967 में ब्लॉस्ट फर्नेस संघर्ष समिति के संघर्षो में नील रतन घोषाल को इस ऐतिहासिक आंदोलन के लिए साथी बना लिया था।
नियोगी उस समय स्फुलिंग (चिंगारी) नाम से पत्रिका प्रकाशित करते थे। उस समय नियोगी धीरेश गुहा नियोगी के रूप में जाने जाते थे। उस समय एटक, इंटुक व अन्य नामधारी ट्रेड यूनियन ने बोनस को लेकर संघर्ष प्रारंभ किया। उस वक्त स्थाई मजदूरों की अपेक्षा असंगठित ठेका श्रमिकों, स्थाई मजदूरों की तुलना में 1/4 बोनस देने की मांग उठी। इस मुद्दे पर संघर्ष किया।
जब हम इतिहास को पलटते हैं तो पाते हैं कि साल 1968 में भिलाई के बोरिया कांड जहां हिन्दू-मुस्लिम के बीच दंगा भडक़ाया गया था। बताया जाता है कि गाय का बछड़ा हलाल कर दिया गया था। फिर क्या था दंगे भडक़ उठे। घोषाल और नियोगी ने लोगों के बीच अपने-अपने संगठनों के माध्यम से कर्मचारियों की बैठक लेकर लोगों को दंगे की असलियत व शासकों की चालाकियों से अवगत कराया। यह भी कि किस प्रकार राजनैतिक पार्टियां दंगों को आयोजित करती है।
इसका भंडाफोड़ किया। लगातार बैठकों व राजनैतिक चर्चाओं का परिणाम यह हुआ कि दंगा पर अंकुश लगा। क्योंकि सारे प्रभावित लोग संयंत्र के कर्मचारी ही थे। इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। लोगों के मध्य एक अच्छा संदेश भी उस समय पहुंचा कि श्रम संगठन किस प्रकार सामाजिक मुद्दों का भी हल खोज निकालती है। नील रतन घोषाल ने मुझे एक साक्षात्कार में कहा था कि तब तक दोनों ही के विचारधारा मार्क्स और लेनिन के विचारों से लैस थी, लेकिन इन विचारों के आधार पर जनसंगठन व समाज में परिवर्तन कैसे होगा इस पर उनका सोच-विचार आगे केन्द्रित होता नहीं दिखाई देता।
उन्होंने यह भी बताया था कि 21 मार्च 1977 में रायपुर जेल से नियोगी के छूटने के बाद दल्ली राजहरा में बंशीलाल साहू के नेतृत्व में काल बेक वेजेस, झोपड़ी मरम्मत व बोनस के मुद्दे को लेकर संघर्ष तेज हुआ। जिसमें नियोगी की साफ व ईमानदार छवि व समस्याओं पर उनकी गहरी पैठ के कारण उन्हें दल्ली राजहरा बुला लिया गया। जहां साल 1977 में छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संगठन का गठन किया गया।
जिसके रजिस्ट्रेशन के लिए नियोगी स्वयं इंदौर गए। भिलाई का लौह अयस्क दल्ली राजहरा से आता था जहां ज्यादातर ठेके के मजदूर काम करते थे उनका निरंतर शोषण होता था जैसे सोलह घंटे काम करने के बदले उन्हे केवल दो रुपये मजदूरी मिलती थी। उनकी कोई संगठित ट्रेड यूनियन भी नहीं थी।
लेखक और कवि शरद कोकास कहते हैं कि 1977 में दल्ली-राजहरा की खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूरों ने नियोगी के नेतृत्व में अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी उसी समय नियोगी चर्चा में आए। ठेका मजदूरों की यह उस समय की देश में सबसे बड़ी हड़ताल थी। अंतत: संयंत्र प्रबंधन को मजदूरों की तमाम मांगें माननी पड़ीं। बाद में साल 1980 के करीब छमुमो के रूप में जनसंगठन का गठन किया अर्थात केवल मजदूरों को ही नहीं इस जन संगठन में किसानों के साथ व्यापक आदिवासियों को भी इससे जोड़ा गया।
जिसका अपना कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है और आज यह कई टुकड़ों में विभक्त है। हां इस संगठन से दो बार आदिवासी नेता जनक लाल ठाकुर डौंडी लोहारा विधान सभा क्षेत्र के लिए विधायक के रूप में चुनकर आए।
इस तरह संगठन का विस्तार हुआ। उन्होंने मजदूरों के लिए कल्याणकारी योजनाए शुरू की और 'शहीद अस्पताल' का निर्माण किया। बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की। लेकिन सबसे ज्यादा उल्लेखनीय काम नियोगी ने सामाजिक बदलाव के रूप में मजदूरों के बीच अनिवार्य शराब बंदी लागू कर दी और उन्हें भविष्य के लिए बचत करना सिखाया। बताया जाता है कि उनके मजदूर शराब नहीं पीते थे।
नियोगी खुद मजदूर बस्ती में एक कच्चे मिट्टी के मकान में रहते थे उनके मकान की दीवारें मिट्टी की थीं जिसके ऊपर खपरे की छत थीं। यहां वह अपनी पत्नी, दो बेटियों और एक बेटे के साथ रहते थे।
16 अक्टूबर 1988 को नियोगी से देशबन्धु के पत्रकार सुनील कुमार ने साक्षात्कार लिया था। जिसमें उन्होंने नियोगी से कम्युनिस्ट पार्टी के संबंध में सवाल उठाया था। जिस पर नियोगी ने दो टूक जवाब दिया था कि - ‘वे मार्क्स को मानते हैं गांधी व सर्वोदय पढ़ते हैं, जेपी से प्रभावित थे। सबको मिलाकर नई विचारधारा के साथ वे काम करते थे? क्या आप बता सकते हैं। वह मिश्रित नई विचारधारा क्या थी। ऐसे विचारों पर आज भी सवाल अनुत्तरित हैं।
जनकलाल ठाकुर कहते हैं कि 1990 के इस दशक में जनता विशेषकर मजदूरों पर नई आर्थिक नीतियां लाद दी गई। पूंजीपति वर्ग नियोगी के संगठन से भयभीत होने लगी, उन्हें जान से मारने की धमकियां मिल रही थी उन्हें जिलाबदर भी किया गया। भिलाई के औद्योगिक क्षेत्र में कई निजी कंपनियों के मजदूर उनके सदस्य बने।
वे पूंजीपातियों के जानी दुश्मन नहीं थे बल्कि मजदूरों के हक के पैरोकार थे। साथ ही सत्ता का मिजाज उनके मजदूर हितैषी कार्यप्रणाली से नहीं बैठता था। मजदूरों के समर्थक होने के कारण आपातकाल में कुछ साल उन्होंने जेल में काटे, सत्ता ने उन पर झूठे और बेबुनियाद मुक़दमें लगाए। लेकिन वे कभी भी दोषी साबित नहीं किए जा सके।
लेकिन अस्सी का दशक आते - आते वे पूंजीपतियों के लिए खतरा बन चुके थे। उनके खिलाफ षडय़ंत्र शुरू हो गए मजदूर नेता भीमराव बागड़े कहते हैं कि 28 सितम्बर 1991 की रात जब वे दुर्ग स्थित आमदी नगर, हुडको में अपने निवास में सो रहे थे खिडक़ी से साइलेंसर लगी बंदूक की गोलियों से उनकी हत्या कर दी गई। उस समय बताया जाता है कि वे मात्र 48 साल के थे।
दक्षिण कोसल ने पाया कि हुडको स्थित उनके उस निवास पर आज भी एक बोर्ड लगा है जहां लाल-हरा रंग में लिखा है ‘वह जगह जहां एक सपने की हत्या करने की कोशिश की गई’।
भिलाई और एसीसी के मजदूर नेता कहते हैं कि भिलाई में मजदूर आंदोलन में नियोगी के हत्या के पूर्व ही शिथिलता आ गई थी। मजदूर बाहर हो गए थे? सरकार व प्रशासन चुप्पी साधे बैठी थी? प्रशासन व पुलिस दमन तेज कर दिया था? भिलाई में सारे उद्योग निजी उद्योगपतियों के थे। छमुमो के साथ इन उद्योगपतियों की तानाशाही जगजाहिर था। आंदोलन में टुकड़ों में हमले होते थे। कभी केडिया के गुंडे हमला करते थे, तो कभी सिम्पलेक्स के।
उस समय का अखबार 'भिलाई टाइम्स' इत्यादि ने इस पर खबर बनाया है कि गांवों व शहरों को जोडक़र सभी वर्गो की भागीदारी तय होनी शुरू हो गई थी। नियोगी हत्याकांड के बाद यह गोलीकांड यहीं नहीं थमी। जीने लायक वेतन और निकाले गए साढ़े चार हजार मजदूरों पर 1 जुलाई 1992 को भिलाई पावर हाउस, दुर्ग जिला में 17 मजदूरों पर गोलियां दाग दी गई।
जानकारों का कहना है कि छमुमो ने आर्थिक आंदोलन को शिखर तक पहुंचाया है, लेकिन मजदूरों में राजनैतिक चेतना के बीज बोने में नाकाम रहा। हां नियोगी के संघर्ष के साथ निर्माण के रूप में अस्पताल, गैरेज व स्कूल जैसी युटोपियाई कामकाजों की एक बड़ी फेरहिस्त है।
अदालत से देर में आने वाली फैसले बताते हैं कि नियोगी के हत्यारों को सजा नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से नियोगी का परिवार व आंदोलन बुरी तरह प्रभावित हुआ? इस व्यवस्था में जुझारू संघर्षो को जीत तक पहुंचाना बड़ा कठिन काम है। दत्ता सामंत, ललित माकन से लेकर नियोगी के हत्यारों को सजा नहीं मिली। कालांतर में घोषाल के संरक्षण में दल्ली राजहरा में एक और जन संगठन जन मुक्ति मोर्चा का साल 2004 में गठन हुआ।
हम पाते हैं कि जहां तक प्रजातांत्रिक आंदोलनों का सवाल है। नेतृत्वकारी लोगों में संगठन को मजबूत व क्रियाशील बनाए रखने में राजनीतिक चेतना का अभाव शुरू से रहा है। नए-नए आर्थिक, औद्योगिक, कृषि व अन्य नीतियों के कारण लोगों में विरोध का स्वर ऊपर जरूर उठ रहा है लेकिन ऐसे स्वरों को सरकार अपनी नई योजनाओं से समेट रही है।
मजदूर आंदोलन के जानकारों का कहना है कि एनजीओ की नीति इस पूरे आंदोलन के दौरान यह रही है कि लोकतंत्र के मजबूती के लिए सरकार के साथ जनआंदोलन को कुचलने में सक्रिय रही है। इस तरह क्या लोकतंत्र मजबूत हो सकता है? इसके इतर मजदूर संगठनों में फूट और वर्चस्व की लड़ाई गहरा होता दिख रहा है। इतिहास में हमने देखा है कि काले कानूनों का डंडा दिखाकर आंदोलनों को कुचला गया। नेताओं की गिरफ्तारी और मौत के घाट उतार दिया गया।
इससे लोग भयभीत हैं। संघर्षशील लोगों के बीच काले कानूनों का डर व्याप्त है। साथ ही साथ बेरोजगारी और महंगाई मुख्य स्वर के रूप में आज भी व्याप्त हैं। महंगाई और बेरोजगारी इस कदर है कि थोड़े से ही आवाज पर श्रमिकों को कार्य से बाहर किया जा रहा है। इससे श्रमिकों का पूरा परिवार प्रभावित होता है। श्रम कानून को चार कोड में बदल कर खत्म कर दिया गया है। अब लोग चुप रह कर अधिकार के लिए आंदोलन तथा यूनियन और उनके नेताओं से प्राप्त परिणामों को तौलने लगे हैं।
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